अनुक्रम
जयशंकर प्रसाद का जन्म माघ शुक्ल दशमी संवत् 1946 (सन् 1889) को काशी के एक सम्पन्न और यशस्वी घराने में हुआ था। कहा जाता है कि उनके पूर्वज मूलत: कन्नौज के थे। कन्नौज से सत्राहवीं शताब्दी में वे जौनपुर आकर बस गये थे। उसी कुल की एक शाखा अठारहवीं सदी के अंत में काशी जाकर बस गई थी और वहीं उन्होंने तम्बाकू का व्यापार सम्भाल लिया था। उनके इस व्यापार की प्रगति के कारण ही उनकी कीर्ति ‘सुँघनी साहू’ के रूप में चारों ओर फैल गई और काशी-नरेश के बाद नगर में उन्हीं का रुतबा था। सूँघनी के अलावा तम्बाकू की अन्यान्य किस्मों में भी वे लगातार नई-नई चीजें बनाते रहते थे, जिनका कहीं कोई सानी नहीं था। इस मामले में लगता था कि उन्होंने तम्बाखू के व्यवसाय को एक ललित कला के दर्जे तक पहुँचा दिया है। यह परिवार अपने विद्याप्रेम और दानवीरता के लिए विख्यात था, अत: विद्वानों, कवियों, संगीतज्ञों, पहलवानों, वैद्यों और ज्योतिषियों का वहाँ प्रतिदिन जमघट लगा रहता था।

जयशंकर प्रसाद की रचनाएँ
1. काव्य –
जयशंकर प्रसाद ने अपनी काव्य धारा को द्विवेदी कालीन इतिवृतात्मकता निकालकर नवीनता की ओर प्रेरित किया, सुन्दर काल्पनिक विलान के नीचे छायावादी और रहस्यवादी काव्य का स्वरूप उपस्थित करने में ये सिद्धहस्त रहे हैं। इनकी इसी विचारधारा ने आगे चलकर निराला, पंत, महादेवी जैसे कलाकारों को जन्म दिया। यह कहना उचित होगा कि जयशंकर प्रसाद ने अपनी प्रतिमा के बल पर भाव, भाषा, शैली, छन्द, विषय आदि को छायावादी और रहस्यवादी परिवेश प्रदान किया। जयशंकर प्रसाद जी काव्य और कविता-संग्रह हैं:-
- कामायनी
- आँसू
- झरना
- लहर
- महाराणा का महत्त्व
- प्रेम पथिक
- कानन कुसुम
- चित्राधार
- करुणालय।
2. नाटक –
हिन्दी नाट्य साहित्य के इतिहास में भारतेन्दु युग नाटकों का प्रयोग काल था। इस काल में अनुवाद, रूपान्तर और मौलिक नाटकों की जो परम्परा मिली, उसका द्विवेदी युग में यथेष्ट विकास नहीं हो पाया। इसमें अंग्रेजी तथा बंगला से कुछ नाटकों के अनुवाद अवश्य हुए किन्तु उनमें नवीन नाट्यविधान की धूमिल रेखएं ही सामने आई। पारसी रंगमंच के अधिक प्रभाव के कारण उत्कृष्ट मौलिक रचनाओं की ओर किसी का ध्यान आकर्षित नहीं हुआ। स्वयं भारतेन्दु द्वारा निर्मित रंगमंच का प्रभाव भी इसी पारसी रंगमंच की तड़क-भड़क के प्रभाव में निष्प्राण हो गया। इस विषय परिस्थित में जयशंकर प्रसाद जी नाट्य क्षेत्र में अवतरित हुए। इन्होंने काव्य-कला के साथ-साथ नाट्य कला को परिभाषित कर सहित्यिक जगत को चमत्कृत कर दिया। जयशंकर प्रसाद के नाटक हैं’-
- राज्यश्री
- विशाख
- अजातशत्रु
- जनमेजय का नाग यज्ञ
- कामना
- स्कन्दगुप्त
- एक घूंट
- चन्द्रगुप्त
- ध्रुवस्वामिनी
- कल्याणी-परिणय
- सज्जन।
3. उपन्यास –
जयशंकर प्रसाद ने उपन्यासों की रचना भी की है। काव्य के क्षेत्र में जहां वे आदर्श और भावुक बनकर हमारे सामने आए तथा नाटक के क्षेत्र में भारतीय संस्कृति के आराधक के रूप में हमारे सम्मुख उपस्थित हुए, वहीं वे उपन्यासों में आधुनिक समस्याओं के प्रति सजग और जागरुक दिखाई पड़ते हैं। जयशंकर प्रसाद जी के उपन्यास –
- कंकाल
- तितली
- इरावती (इसे वे पूरा नहीं कर पाए, क्योंकि इसके प्रणयन में संलग्न रहते हुए वे अकाल काल-कवलित हो गए।)
4.कहानी –
कहानी के क्षेत्र में जयशंकर प्रसाद जी का स्थान गौरवपूर्ण रहा है। जब हिन्दी कहानी-कला अपने शैशव काल में ही थी, तब जयशंकर प्रसाद जी की कहानी ‘‘इन्दु’’ नाटक पित्राका में प्रकाशित हुई। उसकी कहानी अपनी मौलिकता के कारण उस समय की श्रेष्ठतम कहानियों में गिनी गई। इसके बाद प्रसाद जी ने अनेक कहानियों की रचना की। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि यदि हिन्दी की सर्वोत्तम कहानियों का कोई संग्रह प्रकाशित किया जाए तो उसमें पचास प्रतिशत कहानियां जयशंकर प्रसाद की होंगी। जयशंकर प्रसाद जी के कहानी संग्रहों के नाम हैं-
- आकाशदीप
- इन्द्रजाल
- प्रतिध्वनि
- आँधी
- छाया।
5. निबन्ध और आलोचना –
जयशंकर प्रसाद ने यद्यपि किसी विशाल आलोचनात्मक granth की रचना नहीं की, तथापि उनके आलोचनात्मक निबन्ध ही उनकी गवेषणात्मक, प्रज्ञा, विश्लेषण, मनीषा और विचाराभिव्यक्ति के परिवाचक हैं।
काव्य कला तथा अन्य निबन्ध में इनके आलोचनात्मक निबन्ध संग्रहीत हैं।
6. चम्पू –
जयशंकर प्रसाद ने चम्पू काव्य की भी रचना की है। इनकी इस प्रकार की रचना का नाम है- ‘‘उर्वशी’’। इसके साथ ही इन्होंनें एक काव्य कहानी भी लिखी है जो ‘‘प्रेम राज्य’’ के नाम से प्रसिद्ध है। जयशंकर प्रसाद जी की रचनाओं के उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि उन्होंने तत्कालीन युग में प्रचलित गद्य एवं पद्य साहित्य की समस्त विद्याओं में लिखा तथा साहित्य के सर्वांगीण विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। यह चिरन्तन एवं विश्वसनीय सत्य है कि प्रत्येक साहित्यकार को अपने जीवन में विभीषिकाओं का हलाहल पान करना पड़ता है। ये विभीषकाएं ही साधक की साहित्य साधना का केन्द्र बिन्दु बनती है। जयशंकर प्रसाद भी इसके अपवाद नहीं हैं। उनके महान व्यक्तित्व के आनन्दमय वातावरण को देखकर कोई भी यह कल्पना नहीं कर सकता था कि वे क्षय रोगी होंगे और यह रोग ही उनके जीवन का अंत कर देगा। निष्कर्षत: जयशंकर प्रसाद जी का नाट्य-लेखन के क्षेत्र में सर्वोपरि स्थान है और उनका सम्पूर्ण कृतित्व हिन्दी-साहित्य की अमूल निधि है।