चिंतन को हम मानसिक विचार की अवस्था भी कह सकते है अर्थात् व्यक्ति की एक विचारशील अवस्था का नाम चिंतनहै। विचार का अर्थ है कि विभिन्न दृष्टियों से एक बात को देखने अथवा समझने का प्रयत्न करना। चिंतनके अंतर्गत हम विचार को जांचते है, समालोचना करते है, उसके प्रति जागरूक होते है, तुलना करते है, प्रश्न-प्रत्तिप्रश्न करते है, विश्लेषण करते है, बार-बार दोहराते है और संबंधित बातों को सामने लाने का प्रयत्न करते है, इत्यादि।
अतः चिंतन एक जटिल मानसिक प्रक्रिया है और यह हमारे मस्तिष्क में चलती रहती है। चिंतनमें अनेक आन्तरिक क्षमताओं का उपयोग होता रहता है, जैसे-कल्पना, एकाग्रता, जागरूकता, स्मृति, समझ और अवलोकन आदि। ये सभी आन्तरिक क्षमताएं चिंतनकी प्रक्रिया में सहभागी एवं सहयोगी बनती है। चिंतनशक्ति की स्पष्टता एवं विकास के लिए पृथकता से विचार करना अपेक्षित है।
चिंतन की परिभाषा
मनोवैज्ञानिकों ने चिंतन को अनेक रूपों में परिभाषित किया है।
1. रॉस- चिंतन मानसिक क्रिया का भावनात्मक पक्ष या मनोवैज्ञानिक वस्तुओं से संबंधित मानसिक क्रिया है।
2. गैरेट- चिंतन एक प्रकार का अव्यक्त एवं अदृश्य व्यवहार होता है जिसमें सामान्य रूप से प्रतीकों (बिम्बों, विचारों, प्रत्यय) का प्रयोग होता है।
3. मोहसिन- चिंतन समस्या समाधान संबंधी अव्यक्त व्यवहार है।
4. डाॅ. एस.एन. शर्मा ने वारेन के द्वारा चिंतनके संदर्भ में दी गई परिभाषा को अपने शब्दों में इस प्रकार अभिव्यक्त किया है- ‘‘चिंतनएक विचारात्मक प्रक्रिया है जिसका स्वरूप प्रतिकात्मक है, इसका प्रारंभ व्यक्ति के समक्ष किसी समस्या अथवा क्रिया से होता है, परन्तु समस्या के प्रत्यक्ष प्रभाव से प्रभावित होकर अंतिम रूप से समस्या सुलझाने अथवा उसके निष्कर्ष की ओर ले जाती है।
5. कागन एवं हैवमेन (1976) के अनुसार चिंतनप्रतिमाओं, प्रतिका,ें संप्रत्ययों, नियमों एवं मध्यस्थ इकाइयों का मानसिक परिचालन है।
6. सिलवरमेन (1978) के अनुसार चिंतन एक मानसिक प्रक्रिया है जो हमें उद्दीपकों एवं घटनाओं के प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व द्वारा किसी समस्या का समाधान करने में सहायता करती है।
7. बेरोन (1972) ने चिंतनको संप्रत्ययों, विचारार्थ समस्याओं तथा प्रतिमाओं का मानसिक परिचालन माना है।
8. आइजनेक एवं उनके साथियों (1972) के अनुसार कार्यात्मक परिभाषा के रूप में चिंतन काल्पनिक जगत में व्यवस्था स्थापित करना है। यह व्यवस्था स्थापित करना वस्तुओं से सम्बन्धित होता है तथा साथ ही साथ वस्तुआ के जगत की प्रतिकात्मता से भी सम्बन्धित होता है। वस्तुओं में सम्बन्धों की व्यवस्था तथा वस्तुओं में प्रतिकात्मक सम्बन्धों की व्यवस्था भी चिंतन है।
चिंतन प्रक्रिया के तत्त्व
मनोवैज्ञानिकों ने चिंतन के मुख्य तत्त्व माने है-
- चिंतन के लिए समस्या का उपस्थित होना आवश्यक है।
- समस्या के हल के लिए एक दिशा निर्धारित करना।
- उद्देश्यपूर्ण दिशा की ओर अग्रसर होना।
- प्रयास एवं त्रुटि विधि का प्रयोग करना।
- व्यक्ति का क्रियाशील होना।
- आन्तरिक भाषा का उपस्थित होना।
चिंतन के प्रकार
चिंतन के मनोवैज्ञानिकों इसे कई प्रकारों में बाटाॅ है –
1. प्रत्यक्ष बोधात्मक या मूर्त चिंतन – यह चिंतन का अत्यन्त सरल रूप है। प्रत्यक्ष बोध या अप्रत्यक्षीकरण ही इस प्रकार के चिंतन का आधार है। प्रत्यक्षीकरण व्यक्ति की संवेदनात्मक अनुभूमि की व्याख्या है। यदि एक बच्चे को सेब दिया जाए तो वह एक क्षण के लिए सोचता है और उसे लेने से इन्कार कर देता है।
इस समय इसका चिंतन प्रत्यक्ष बोध पर आधारित है वह अपनी पूर्व अनुभूति के आधार पर संवेदना की व्याख्या कर रहा है। उसे हरे सेब के स्वाद की याद आ रही है जो उसे कुछ दिन पहले दिया गया था।
2. संप्रत्यात्मक या अमूर्त चिंतन – प्रत्यक्ष बोधात्मक चिंतन की भॉति इसमें वास्तविक विषयों या क्रियाओं के बोध की आवश्यकता नहीं होती। इसमें संप्रत्ययों एवं सामान्यीकृत विचारों का प्रयोग किया जाता है। इस प्रकार के चिंतन के विकास में भाषा का बहुत बड़ा हाथ होता है।
यह चिंतन प्रत्यक्ष बोधात्मक चिंतन से बढ़िया माना जाता है, क्योंकि इससे समझने में सुविधा होती है तथा खोज एवं आविष्कारों में सहायता मिलती है।
3. विचारात्मक या तार्किक चिंतन – यह ऊँचे स्तर का चिंतन है जिसका कोई निश्चित लक्ष्य होता है। सरल, चिंतन तथा इसमें पहला अन्तर तो यह है कि इसका उद्देश्य सरल समस्याओं की अपेक्षा जटिल समस्याओं को हल करना होता है।
दूसरे, इसमें अनुभूतियों को सरलतापूर्वक एक दूसरे के लाभ जोड़ने की अपेक्षा समस्त संबंधित अनुभूतियों का पुनर्गठन करके उनमें से स्थिति का सामना करने के लिए या बाधाओं को दूर करने के लिए नए रास्ते निकाले जाते है।
तीसरे विचारात्मक चिंतन में मानसिक क्रिया प्रयत्न एवं भूल का यान्त्रिक प्रयास नहीं करती। चौथे विचारात्मक चिंतन में तर्क को सामने रखा जाता है। सभी संबंधित तथ्यों को तर्कपूर्ण क्रम में कठित करके उनसे प्रस्तुत समस्या का समाधान निकाला जाता है।
4. सृजनात्मक चिंतन – इस चिंतन का मुख्य उद्देश्य किसी नई चीज का निर्माण करना है। यह वस्तुओं, घटनाओं तथा स्थितियों की प्रकृति की व्याख्या करने के लिए नएं सम्बन्धों की खोज करता है। यह पूर्व स्थापित नियमों से बाध्य नहीं होता।
इसमें व्यक्ति स्वयं ही समस्या पैदा करता है और फिर स्वतन्त्रतापूर्वक उसके समाधान के साधन ढूंढता है। वैज्ञानिकों तथा अनुसन्धानकर्ताओं का चिंतन इसी प्रकार का होता है।
5. अभिसारी चिंतन – अभिसारी चिंतन की सर्वप्रथम व्याख्या पॉल गिलफर्ड ने की। अभिसारी चिंतन में किसी मानक प्रश्न का उत्तर देने में किसी सृजनात्मक योग्यता की आवश्यकता नहीं होती। विद्यालयों में होने वाले अधिकांश कार्यों, बुद्धि आदि के परीक्षण में बहुविकल्पीय प्रश्नों के उत्तर देने में अभिसारी चिंतन का प्रयोग होता है।
इस प्रकार के चिंतन में व्यक्ति एक पदानुक्रमिक ढंग से अनुसरण करते हुए चिंतन करता है। वस्तुत: यह चिंतन परंपरागत प्रकार की क्रमबद्ध विचार प्रक्रिया का परिणाम होता है, इसके द्वारा व्यक्ति अपनी सरल समस्याओं का समाधान खोजने का प्रयास करता है।
6. अपसारी चिंतन – किसी समस्या के विभिन्न समाधानों या कार्य को करने के विभिन्न प्रयत्नों में से किसी एक उत्तम समाधान या प्रयत्न को चुना जाना अपसारी चिंतन है, अपसारी चिंतन अभिसारी चिंतन के विपरीत होता है क्योंकि अभिसारी चिंतन में किसी समस्या के समाधान के लिए कुछ निश्चित संख्या में समाधान उपस्थित होते हैं जबकि इस प्रकार के चिंतन में विभिन्न प्रकार के अनेकों समाधान होते हैं।
अपसारी चिंतन में सृजनात्मकता तथा खुले प्रकार के प्रश्न तथा सृजनात्मकता सम्मिलित होती है।
7. क्रांतिक चिंतन – क्रांतिक चिंतन, चिंतन का एक प्रकार होता है जिसमें किसी विषय-वस्तु, विषय या समस्या के समाधान में कौशलयुक्त संश्लेषण मूल्यांकन तथा पुर्नसंरचना सम्मिलित होते हैं। क्रांतिक चिंतन स्वनिर्देशित, स्व-अनुशासित, सुनियोजित प्रकार का चिंतन होता है।
चिंतन के साधन
चिंतन की प्रक्रिया से जुड़े हुए तत्वों तथा काम में आने वाले साधनों को इन रूप में समझा जा सकता है-
1. बिम्ब- प्राय: बिम्ब चिंतन साधन के रूप में प्रयुक्त किए जाते हैं। मानसिक चित्रों के रूप में बिम्बों में व्यक्ति के उन वस्तुओं, दृश्यों तथा व्यक्तियों से संबंधित वयक्तिगत अनुभव सम्मिलित होते हैं जिन्हें वास्तविक रूप में देखा हो या जिनके बारे में सुना या अनुभव किया हो। कई स्मृति बिम्ब होते हैं जो इन ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त अनुभवों पर आधारित होते हैं। कई कल्पना बिम्ब होते हैं जो कल्पनाओं पर आधारित होते है। अत: बिम्ब वास्तविक वस्तुओं, अनभूतियों तथा क्रियाओं के प्रतीक होते हैं।
2. संप्रत्यय- संप्रत्यय भी चिंतन का एक महत्वपूर्ण साधान है। संप्रत्यय एक सामान्य विचार है जो किसी सामान्य वर्ग के लिए प्रयेफकत होता है और जो उसी सामान्य वर्ग की सभी वस्तुओं या क्रियाओं की किसी सामान्य विशेषता का प्रतिनिधित्व करता है। संप्रत्यय निर्माण या सामान्यीकरण से हमारे चिंतन प्रयासों में मितव्ययिता आती हैं।
उदाहरणस्वरूप जब हम बन्दर शब्द सुनते हैं तो तत्काल हमारे मन में बन्दरों की सामान्य विशेषताएं ही नहीं घूम जाती बल्कि बन्दरों के संबंध में अपने व्यक्तिगत अनुीाव भी हमारी चेतन पटल पर आ जाते हैं और हमारे चिंतन को आगे बढ़ाते हैं।
3. प्रतीक एवं चिन्ह- प्रतीक एवं चिन्ह वास्तविक विषयों, अनुभूतियों तथा क्रियाओं का प्रतिनिधित्व करते है। टे्रफिक की बत्तियॉ, रेल्वे सिग्नल, स्कूल की घंटियॉ, गीत, झण्डा, नारे-सभी प्रतीकात्मक अभिव्यक्तियॉ है। चिंतन में संप्रत्यय भी प्रतीकों एवं चिन्हों द्वारा अभिव्यक्त होते हैं। इन प्रतीकों एवं चिन्हों से चिंतन को बढ़ावा मिलता है। इनकी सहायता से तत्काल ज्ञान हो जाता है कि क्या करना चाहिए और कैसे करना चाहिए- जैसे हरी झण्डी का हिलाना हमें बता देता है कि गाड़ी चलने वाली है और हमें गाड़ी में बैठ जाना चाहिए। इस प्रकार गणित में (+) का निशान बता देता है कि हमें क्या करना है।
बोरिग लांगफील्ड तथा वैल्ड ने इस संबंध में महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाला है, प्रतीक एवं चिन्ह मोहरे एवं गोटियॉ है जिसमें द्वारा चिंतन का महान खेल खेला जाता है। इसके बिना यह खेल इतना अभूतपूर्व और सफल नहीं हो सकता।
4. भाषा- भाषा केवल पारस्परिक सम्पर्क बनाने का ही साधन नहीं बल्कि चिंतन का भी साधन है। इनमें शब्द होते हैं जो प्रतीकात्मक होते हैं। कई बारे हम शब्दों के स्थान पर इशारों का प्रयोग करते हैं। अंगूठा दिखाना, मुस्कुराना, भौहें चढ़ाना, कन्धे झठकना- आदि महत्वपूर्ण अर्थ रखते हैं। चिंतन प्रक्रिया के लिए भाषा एक सशक्त एवं अत्यन्त विकसित साधन है।