अनुक्रम
प्रथम गोलमेज सम्मेलन (12 नवम्बर 1930-19 जनवरी 1931)
प्रधानमंत्री रैम्जे मैक्डोनाल्ड की अध्यक्षता में लन्दन में 12 नवम्बर 1930 से 19 जनवरी 1931 तक प्रथम गोलमेज सम्मेलन का आयोजन किया गया। इसमें कुल 89 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इस गोलमेज सम्मेलन का उद्देश्य भारतीय संवैधानिक समस्या को सुलझाना था। चूँकि काँग्रेस ने इस सम्मेलन में भाग नहीं लिया, अत: इस सम्मेलन में कोई निर्णय नहीं लिया जा सका। सम्मेलन अनिश्चित काल हेतु स्थगित कर दिया गया। डॉ. अम्बेडकर एवं जिन्ना ने इस सम्मेलन में भाग लिया था।
गाँधी इरविन समझौता
ब्रिटिश सरकार प्रथम गोलमेज सम्मेलन से समझ गई कि बिना कांग्रेस के सहयोग के कोई फैसला संभव नहीं है। वायसराय लार्ड इरविन एवं महात्मा गांधी के बीच 5 मार्च 1931 को गाँधी-इरविन समझौता सम्पन्न हुआ। इस समझौते में लार्ड इरविन ने स्वीकार किया कि –
- हिंसा के आरोपियों को छोड़कर बाकी सभी राजनीतिक बन्दियों को रिहा कर दिया जावेगा।
- भारतीयों को समुद्र किनारे नमक बनाने का अधिकार दिया गया।
- भारतीय शराब एवं विदेशी कपड़ों की दुकानों के सामने धरना दे सकते हैं।
- आन्दोलन के दौरान त्यागपत्र देने वालों को उनके पदों पर पुन: बहाल किया जावेगा। आन्दोलन के दौरान जब्त सम्पत्ति वापस की जावेगी।
कांग्रेस की ओर से गांधीजी ने निम्न शर्तें स्वीकार की –
- सविनय अवज्ञा आन्दोलन स्थगित कर दिया जावेगा।
- कांग्रेस द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लेगी।
- कांग्रेस ब्रिटिश सामान का बहिष्कार नहीं करेगी।
- गाँधीजी पुलिस की ज्यादतियों की जाँच की माँग छोड़ देंगे।
यह समझौता इसलिये महत्वपूर्ण था क्योंकि पहली बार ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों के साथ समानता के स्तर पर समझौता किया।
द्वितीय गोलमेज सम्मेलन (7 सितम्बर 1931 से 1 दिसम्बर 1931)
7 सितम्बर 1931 को लन्दन में द्वितीय गोलमेज सम्मेलन आरंभ हुआ। इसमें गाँधीजी, अम्बेडकर, सरोजिनी नायडू एवं मदन मोहन मालवीय आदि पहुँचे। 30 नवम्बर को गांधीजी ने कहा कि काँग्रेस ही एकमात्र ऐसी पार्टी है जो साम्प्रदायिक नहीं है एवं समस्त भारतीय जातियों का प्रतिनिधित्व करती है। गांधीजी ने पूर्ण स्वतंत्रता की भी मांग की। ब्रिटिश सरकार ने गांधीजी की इस माँग को नहीं माना। भारत के अन्य साम्प्रदायिक दलों ने अपनी-अपनी जाति के लिए पृथक-पृथक प्रतिनिधित्व की माँग की। एक ओर गांधीजी चाहते थे कि भारत से सांप्रदायिकता समाप्त हो वही अन्य दल साम्प्रदायिकता बढ़ाने प्रयासरत थे। इस तरह गाँधीजी निराश होकर लौट आए।
![]() |
| द्वितीय गोलमेज सम्मेलन, लंदन, 1931 |
कम्यूनल अवार्ड (साम्प्रदायिक पंचाट)
चूँकि द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में सांप्रदायिक समस्या का कोई निराकरण नहीं हो सका अत: 16 अगस्त 1932 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री रेम्से मैक्डोनाल्ड ने सांप्रदायिक पंचाट की घोषणा की। इस घोषणा के अनुसार –
- जाति के आधार पर विधानमण्डलों के सदस्यों की संख्या का बॅटबारा किया जावेगा। इसके तहत मुसलमानों, सिक्खों, भारतीय ईसाईयों एवं एंग्लो इण्डियनों हेतु पृथक-पृथक चुनाव पद्धति की व्यवस्था होगी।
- महिलाओं हेतु भी पृथक स्थान निर्धारित किए जावेगें।
- श्रम, व्यापार, उद्योग, जमींदार एवं विश्वविद्यालयों हेतु पृथक चुनाव की व्यवस्था होगी।
- हरिजन एवं दलित वर्ग को हिन्दुओं से पृथक माना जावेगा। यह कम्यूनल अवार्ड भारत में सांप्रदायिक उन्माद फैलाने की साजिश थी। हरिजन एवं दलित वर्ग को हिन्दुओं से पृथक करना सरासर गलत था। यह फूट डालो राज्य करो की नीति की पराकाष्ठा थी।
पूना समझौता (26 सितम्बर 1932)
गाँधीजी कम्यूनल अवार्ड से अत्यन्त दु:खी हुए। उन्होंने पत्र लिखकर मैक्डोनाल्ड को चेतावनी दी कि वह अपना यह निर्णय 20 सितम्बर 1932 तक वापस ले लें अन्यथा वे आमरण अनशन करेंगे। जब यह बात नहीं मानी गई तो गांधीजी ने 20 सितम्बर 1932 को आमरण अनशन आरंभ कर दिया। बाद में पूना समझौता 26 सितम्बर 1932 को हुआ। इस समझौते के अनुसार –
- हरिजन, हिन्दुओं से पृथक नहीं माने जावेगें। जितने स्थान कम्यूनल अवार्ड द्वारा हरिजनों को दिए गए थे अब उनसे दुगने स्थान अब उन्हें दिए जावेगें।
- स्थानीय संस्थाओं एवं सार्वजनिक सेवाओं में हरिजनों को उचित प्रतिनिधित्व दिया गया।
- हरिजनों को शिक्षा हेतु आर्थिक सहायता देने का वादा किया। गांधीजी ने पूना समझौते के पश्चात आमरण अनशन वापस ले लिया। हरिजनों को इस समझौते से और अधिक लाभ मिला। कांग्रेस ने 1 मई 1933 को सविनय अवज्ञा आन्दोलन समाप्त कर दिया।
तृतीय गोलमेज सम्मेलन (17 नवम्बर 1932 – 24 दिसम्बर 32)
पूना समझौता के पश्चात 17 नवम्बर 1932 से 24 दिसम्बर 1932 के बीच तृतीय गोलमेज सम्मेलन का आयोजन लन्दन में किया गया। चूंकि सम्मेलन हेतु जिस सद्भावना एवं स्वस्थ वातावरण की आवश्यकता थी, उसका इस सम्मेलन में अभाव था। कांग्रेस ने इसमें भाग नहीं लिया।
तीनों गोलमेज सम्मेलनों की सिफारिशों के आधार पर ब्रिटिश सरकार ने श्वेत पत्र जारी किया। इन प्रस्तावों पर विचार-विमर्श हेतु लार्ड लिनोलिथो की अध्यक्षता में एक संयुक्त संसदीय समिति नियुक्त की गई। लिनोलिथो की सिफारिशों में कुछ संशोधन कर 1935 का भारत सरकार अधिनियम पारित किया गया।
