अनुक्रम
विलियम प्रथम की मृत्यु के उपरान्त उसका पुत्र फैड्रिक तृतीय जर्मनी के राज्य-सिंहासन पर 9 मार्च 1888 ई. को आसीन हुआ। किन्तु केवल 100 दिन राज्य करने के बाद उसकी मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु होने पर उसका पुत्र विलियम द्वितीय राज्य सिंहासन पर आसीन हुआ। वह एक नवयुवक था। उसमें अनेक गुणों और दुर्गुणों का सम्मिश्रण था। वह कुशाग्र बुद्धि, महत्वाकांक्षी आत्मविश्वासी तथा असाधारण नवयुवक था। वह स्वाथ्र्ाी और घमण्डी था तथा उसका विश्वास राजा के दैवी सिद्धांत में था। किसी अन्य व्यक्ति के नियंत्रण में रहना उसको असह्य था जिसके कारण कुछ ही दिनों के उपरांत उसकी अपने चांसलर बिस्मार्क से अनबन हो गई। परिस्थितियों से बाध्य होकर बिस्मार्क को त्याग-पत्र देना पड़ा। बिस्मार्क के पतन के उपरांत विलियम ने समस्त सत्ता को अपने हाथों में लिया और उसके मंत्री आज्ञाकारी सेवक बन गये और वह स्वयं का शासन का कर्णधार बना।
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| कैसर विलियम II |
विदेश नीति के उद्देश्य
कैसर विलियम द्वितीय की विश्व नीति के निम्नलिखित तीन मुख्य उद्देश्य थे –
- भूमध्य-सागर में प्रभाव-क्षेत्र स्थापित करना
- औपनिवेशिक मामलों में रूचि एवं दृढ़ नीति
- शक्तिशाली नौ-सेना का निर्माण
उपरोक्त उद्देश्यों की पूर्ति करने के अभिप्राय से कैसर विलियम।। ने जर्मनी की ‘विदेश नीति’ का संचालन करना आरंभ किया। प्रथम उद्देश्य के कारण आस्ट्रिया के साथ घनिष्ट मेल आवश्यक था, क्योंकि वह भी उसी दिशा में बढ़ कर सैलोनिका के बन्दरगाह पर अधिकार करना चाहता था। इसका अर्थ था मध्य यूरोप के कूटनीतिज्ञ गुट को सुदृढ़ बनाना, आस्ट्रिया और रूस के हितों में संघर्ष होने के कारण इसका अर्थ रूस से अलग हटना और अन्त में उसे अपना विरोधी बना लेना भी था। दूसरे उद्देश्य की पूर्ति का अर्थ था संसार में जहां कहीं भी आवश्यक हो, विशेषकर अफ्रीका में, जर्मनी की शक्ति का प्रदर्शन करना।’ इस संबंध में मोरक्को ने फ्रांस को दो बार 1905 इर्. और 1911 ई. में चुनौती दी।
रूस के प्रति नीति
1890 ई. में पुनराश्वासन संधि की पुनरावृत्ति होने वाली थी जो बिस्मार्क द्वारा जर्मनी और रूस में हुई थी। जबकि विलियम रूस की अपेक्षा आस्ट्रिया से सुदृढ़ संबंध स्थापित करना चाहता था जिससे वह बालकन में होकर पूर्वी भमू ध्यसागर को अपने प्रभाव क्षत्रे में लाने में सफल हो सक।े रूस ने भी इस पुनराश्वासन संधि की पुनरावृत्ति को यह कहकर मना कर दिया कि ‘सन्धि बड़ी पेचीदा है और इसमें आस्ट्रिया के लिये धमकी मौजूद है जिसके बड़े अनिष्टकारी परिणाम हो सकते हैं।’’
नीति का परिणाम
पुनराश्वासन सन्धि की पुनरावृत्ति के न होने का स्पष्ट परिणाम यह हुआ कि रूस अकेला रह गया। उसको अपने एकाकीपन को दूर करने के लिये एक मित्र की खोज करनी अनिवार्य हो गई। अब उसके सामने उसके शत्रु इंगलैंड और फ्रांस ही थे। किन्तु अपनी परिस्थिति से बाध्य होकर वह फ्रांस से मित्रता करने की ओर आकर्षित हुआ और उससे मित्रता करने का प्रयत्न करने लगा। अन्त में, 1895 ईमें दोनों देशों में संधि हुई जो द्विगुट संधि के नाम से प्रसिद्ध है। इस संधि से फ्रांस को अत्यधिक लाभ हुआ और उसका अकेलापन समाप्त हो गया।
जर्मनी को विश्व भाक्त बनाना
विलियम बड़ा महत्वकांक्षी था। वह जर्मनी को यूरोप का भाग्य-निर्माता ही नहीं, वरन् विश्व का भाग्य-निर्माता बनाना चाहता था। बिस्मार्क विश्व के झगड़ों से जर्मनी को अलग रखना चाहता था, किन्तु विलियम ने यूरोप के बाहर के झगड़ों में हस्तक्षपे करना आरंभ कर दिया। वह केवल बालकन प्रायद्वीप में ही जर्मन-प्रभाव से संतुष्ट नहीं था, वरन् वह तो उसको विश्व-शक्ति के रूप में देखना चाहता था। इसी उद्देश्य के लिए 1890 ई. के उपरांत जर्मनी की वैदेशिक नीति में विश्व-व्यापी नीति का समावेश हुआ। विलियम के अनेक भाषण्ज्ञों से उसके इन विचारों का दिग्दशर्न होता है। उसने इन प्रदेश को अपने अधिकार में किया –
- 1895 ई. में जब जापान ने चीन को परास्त कर उससे लियाओतुंग प्रायद्वीप तथा पोर्ट आर्थर पर अधिकार करना चाहा तो जर्मनी ने रूस और फ्रांस से मिलकर उस पर दबाव डाला कि वह इनको अपने अधिकार में न करे
- 1897 ई. जर्मनी ने कियाओचाऊ पर अधिकार किया।
- अगले वर्ष उसने चीन को बाध्य कर कियाओचाऊ तथा शान्तुंग के एक भाग का 99 वर्ष के लिए पट्टा लिखवाया।
- 1899 ई. में बाकेसरों का दमन करने के लिए जो सेना यूरोपीय देशों से भेजी गई उसका सेनापतित्व करने का गौरव एक जर्मन को प्राप्त हुआ।
- 1899 ई. में उसने स्पने से करोजिन द्वीप क्रय किया।
- 1900 ई. में संयुक्त राज्य और इंगलैंड से समझौता कर उसने सेमाअे ा द्वीप समूह के कुछ द्वीपों पर अधिकार किया।
जर्मनी और टर्की
विलियम टर्की को अपने प्रभाव-क्षेत्र के अंतर्गत लाना चाहता था और यह उसकी विश्व नीति का एक प्रमुख अंग था। इंगलैंड भी इस ओर प्रयत्नशील था। वह किसी यूरोपीय राष्ट्र का प्रभुत्व टर्की में स्थापित नहीं होने देना चाहता था, क्योंकि एसे ा होने से उसके भारतीय साम्राज्य को भय उत्पन्न हो सकता था। 1878 ई. की बर्लिन-कांग्रेस तक टर्की पर इंगलैंड का प्रभुत्व रहा और जब कभी भी किसी यूरोपीय राष्ट्र ने उस ओर प्रगति करने का विचार किया तो इंगलैंड ने उसका डटकर विरोध किया, परन्तु साइप्रस के समझौते के उपरांत उसका प्रभाव टर्की पर से कम होने लगा। जब इंगलैंड का 1882 ई. में मिस्र पर अधिकार हुआ तो इंगलैंड और टर्की के मध्य जो रही-सही सद्भावना विद्यमान थी उसका भी अंत होना आरंभ हो गया। अब विलियम द्वितीय ने इस परिस्थिति का लाभ उठाकर टर्की को अपने प्रभाव-क्षत्रे में लाने का प्रयत्न किया।
- 1889 ई. में विलियम कुस्तुन्तुनिया पहुंचा और उसने टर्की के सुल्तान अब्दुल हमीद से भंटे की और उससे मित्रता का हाथ बढ़ाया।
- 1898 ई. में वह दूसरी बार कुन्तुन्तुनिया गया और टर्की के सुल्तान से भंटे करने के उपरांत जैरूसलम गया और वहां से दमिश्क गया। दमिश्क के एक भाषण में उसने मुसलमानों को यह आश्वासन दिया कि जर्मन सम्राट सदा उनका मित्र रहेगा। उसके भाषण ने समस्त यूरोपीय राष्ट्रों को चिन्ता में डाल दिया, क्योंकि संसार के अधिकांश मुसलमान विभिन्न यूरोपीय देशों की प्रजा के रूप में रहते थे।
- 1902 ई. में जर्मनी का एक समझौता टर्की से हुआ जिसके अनुसार जर्मनी की एक कम्पनी को कुस्तुन्तुनिया से बगदाद तक रेल बनाने की आज्ञा प्राप्त हुई। जर्मनी का उद्देश्य बर्लिन से कुस्तुन्तुनिया तक रेल बनाने का भी था। इस मार्ग के खुल जाने से जर्मनी का सम्पर्क फारस की खाड़ी तक हो जाता जो इंगलैंड के भारतीय साम्राज्य के लिए विशेष चिन्ता का विषय बन जाता। विलियम टर्की को अपनी ओर आकर्षित करने में अवश्य सफल हुआ, किन्तु उसने अपनी इस नीति से रूस, फ्रांस और इंगलैंड को अपना शत्रु बना लिया जबकि टर्की की शक्ति इन तीनों बड़े राष्ट्रों के सामने नगण्य थी। विलियम की इस नीति को सफल नीति नहीं कहा जा सकता। उसने तीनों राष्ट्रों को एक साथ अप्रसन्न किया जिसका परिणाम यह हुआ कि त्रिदलीय गुट का निर्माण संभव हो गया।
इंगलैंड और जर्मनी
1890 ई. तक जर्मनी और इंगलैंड के संबंध अच्छे थे, किन्तु जब विलियम द्वितीय के शासनकाल में जर्मनी ने विश्व-व्यापी नीति को अपनाना आरंभ किया तो जर्मनी और इंगलैंड के संबंध कटु होने आरंभ हो गये। बिस्मार्क के पद त्याग करने के उपरांत विलियम ने जर्मनी की नौ-सेना में विस्तार करना आरंभ किया तो इंगलैंड जर्मनी की बढ़ती हुई शक्ति से सशंकित होने लगा था। कुछ समय तक दोनों में मैत्री का हाथ बढ़ा, किन्तु 1896 ई. के उपरांत दोनों के संबंध कटु होने आरंभ होते गये। जब विलियम ने ट्रान्सवाल के राष्ट्रपति क्रुजर को जेम्स के आक्रमण पर विजय प्राप्त करने के उपलक्ष में बधाई का तार भेजा। इस तार से इंगलैंड की जनता में बड़ा क्षेाभ उत्पन्न हुआ। महारानी विक्टोरिया ने भी अपने पौत्र विलियम द्वितीय के इस कार्य की बड़ी निन्दा की। इस समय इंगलैंड ने जर्मनी से संबंध बिगाड़ना उचित नहीं समझा, क्योंकि ऐसा करने पर वह अकेला रह जाता। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसने जर्मनी से अच्छे संबंध स्थापित करने का प्रयत्न किया।
एल्जीसिराज का सम्मेलन
जनवरी 1906 ई. में स्पेन के एल्जीसिराज में मोरक्को के प्रश्न पर एक अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ। तीन महीने के वाद-विवाद के उपरांत एल्जीसिराज अधिनियम बना जिसके द्वारा निम्न बातें निश्चित हुई –
- मोरक्को को स्वतंत्र राज्य स्वीकार करना।
- मोरक्को के सुल्तान को स्वतंत्र घोषित किया गया।
- समस्त विदेशी राज्यों को व्यापार करने के समान अधिकार प्रदान किए गए।
- एक अन्तर्राष्ट्रीय बैंक की व्यवस्था की गई।
- फ्रांस और स्पेन को मोरक्को की सुरक्षा के लिये पुलिस-व्यवस्था स्थापित करने का अधिकार प्राप्त हो गया।
पूर्वी समस्या में रूचि
फ्रांस और रूस के मध्य मित्रता की स्थापना हो चुकी थी, अब फ्रांस द्वारा रूस और इंगलैंड की मित्रता का कार्य आरंभ हुआ। 1907 ई. में फ्रांस के प्रयत्न से रूस और इंगलैंड का गुट तैयार हो गया। यह गुट रक्षात्मक था किन्तु जर्मन सम्राट विलियम।। को इसके निर्माण से बड़ी चिन्ता हुई। अब उसने अपना ध्यान इस गुट के अंत करने की ओर विशेष रूप से आकर्षित किया। इसी समय जर्मनी को पूर्वी समस्या में हस्तक्षपे करने तथा रूस को अपमानित करने का अवसर प्राप्त हुआ।
फ्रांस और रूस में समझौता
यद्यपि जर्मन-सम्राट विलियम बालकन प्रदेश में रूस को नीचा दिखलाने में सफल हुआ और वह अपने मित्र आस्ट्रिया की शक्ति का विस्तार तथा प्रभाव में वृद्धि करवा सका, किन्तु फिर भी वह फ्रांस, रूस और इंगलैंड के गुट से भयभीत बना रहा। उसने फ्रांस और रूस से मित्रता करने की ओर हाथ बढ़ाना आरंभ किया। 8 फरवरी 1909 ई. को उसने फ्रांस से एक समझौता किया जिसके अनुसार फ्रांस ने मोरक्को की स्वतंत्रता एवं अखण्डता के सिद्धांत को स्वीकार कर लिया। जर्मनी ने मोरक्को की आन्तरिक सुरक्षा के संबंध में फ्रांस की असाधारण स्थिति मान ली। इधर निश्चित होकर जर्मनी ने अपना ध्यान रूस से समझातै ा करने की और आकषिर्त किया। जर्मनी ने रूस से नवम्बर 1910 में मेसोपोटामिया और फारस में अपने हितों के संबंध में समझौता किया, जिसके द्वारा ‘रूस ने जर्मनी को बर्लिन बगदाद रेलवे की योजना का विरोध न करने का वचन दिया और विलियम ने फारस में रूस के हितों की स्वीकृति प्रदान की।’’
मोरक्को का प्रश्न
उपरोक्त कार्यो द्वारा विलियम।। रूस, फ्रांस और इंगलैंड के गुट को निर्बल करने में सफल हुआ, किन्तु यह स्थिति अधिक काल तक स्थायी नहीं रह सकी। मोरक्को के प्रश्न का समाधान करने का प्रयत्न फ्रांस और जर्मनी द्वारा किया गया था, किन्तु दोनों समझौते की स्थिति से संतुष्ट नहीं थे। ‘मोरक्को की स्वतंत्रता’ तथा फ्रांस की पुलिस सत्ता में स्वाभाविक विरोध था जिसके कारण भविष्य में झगड़ा होना निश्चित था। फ्रांस मोरक्को को पूर्णतया अपने अधिकार में लाने पर तुला हुआ था और जर्मनी उसे राके ने या उसके बदले में उपयुक्त पुरस्कार प्राप्त करने पर कटिबद्ध था।
बाल्कन युद्धों के प्रभाव
बाल्कन युद्ध यूरोपीय इतिहास में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं, क्योंकि बाल्कन प्रदेश के कारण ही यूरोप में प्रथम विश्वयुद्ध की ज्वाला प्रज्वलित हुई। यद्यपि 1907 ई. तक समस्त यूरोप दो परस्पर विरोधी गुटों में विभक्त हो गया था। इन युद्धों के दारै ान रूस और आस्ट्रिया का तनाव काफी बढ़ गया था। दोनों में सर्बिया विजयी रहा था और द्वितीय युद्ध में बल्गारिया का,े जिसका समर्थन आस्ट्रिया कर रहा था, बड़ी क्षति उठानी पड़ी थी। इस प्रकार बाल्कन युद्धों से रूस तथा आस्ट्रिया के बीच तनाव बहुत बढ़ गया जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव उनके मित्र राष्ट्रों पर भी पड़ना स्वाभाविक ही था।
