कुशीनगर का इतिहास

कुशीनगर भारत के तत्कालीन महाजनपदों में से एक एवं मल्ल राज्य की राजधानी थी। वर्तमान समय में यह गोरखपुर से 32 मील (लगभग 51.2 किमी0) पूर्व, देवरिया से 21 मील (लगभग 33.6 किमी0) उत्तर और पडरौना से 13 मील (लगभग 20. 8 किमी०) दक्षिण-पश्चिम में स्थित है। बिहार प्रान्त के पूर्वी सीमा से 13 मील (लगभग 20.8 किमी0) पश्चिम में यह अवस्थित है।

कनिंघम ने कुशीनगर को वर्तमान में स्थित ‘कसिया’ (कसया) से समीकृत किया है। अपने समीकरण की पुष्टि में उन्होने परिनिर्वाण मंदिर के पीछे स्थित स्तूप में मिले ताम्रपत्र का उल्लेख किया है। जिस पर ‘परिनिर्वाण चैत्य ताम्रपत्र इति’ का उल्लेख है। कनिंघम के विचार से स्मिथ और पार्जिटर प्रभूति विद्वान सहमत नही हैं। उनका कहना है कि कसिया के अवशेषों एवं चीनी यात्री ह्वेनसांग के यात्रा के विवरणों में पर्याप्त भिन्नता है। इस भिन्नता के आधार पर स्मिथ ने कुशीनगर को नेपाल में पहाड़ीयों की प्रथम श्रृंखला के पार स्थित होने सम्बन्धी विचार पर सहमति दिया है । रीज डेविड्स के अनुसार यदि हम चीनी यात्रियों के यात्रा के विवरणों का आधार माने तो कुशीनगर को मल्लों का प्रदेश, शाक्य प्रदेश के पूर्व में पहाडी ढाल पर स्थित होना चाहिए। लेकिन बाद के पुरातात्विक उत्खनन (1906-1907) से प्राप्त सामग्रीयों के आधार पर कनिंघम की समीक्षा को उचित मानते हुए ‘कसिया’ और ‘कुशीनगर’ को एक ही मानना उचित होगा। 

1861 ई० में जनरल कनिंघम द्वारा किए गये खोज में इन अवशेषों से ‘महावीर निर्वाण विहार’ नामांकित अनेक मुद्राएं और स्तूप के भीतर से कुछ ताम्रपत्र भी मिले हैं। इनके अतिरिक्त इन खंडहरों से महात्मा बुद्ध की वैसी ही विशाल मूर्ति प्राप्त हुई है, जैसा कि हवेनसांग ने कुशीनगर में देखा था। ये विभिन्न तथ्य भी कनिंघम के समीकरण के औचित्य की पुष्टि करते हैं।

वैदिक साहित्य में मल्लों अथवा उनकी राजधानी का कोई उल्लेख नहीं मिलता है, परन्तु परवर्ती साहित्य में उनका वर्णन अनेक ग्रन्थों में मिलता है। महाभारत के भीष्म पर्व में यह मल्ल राष्ट्र के रूप में वर्णित है, जो अंग, वंग और कलिंग के समान ही पूर्वी भारत में एक प्रमुख राज्य था। बुद्ध-पूर्व युग में वहां महासम्मत वंश का राज्य था। इस कुल में इक्ष्वांकु (ओवकाक), कुश तथा महासुदस्सन प्रमुख शासक हुए थे। उस समय कुशीनगर का नाम ‘कुशावती’ था तथा इसका विस्तार 144 वर्ग किमी0 क्षेत्रफल में था। बुद्ध मेतय के शासन काल में इसे ‘केतुमती’ नाम से जाना जाता था। गौतम बुद्ध के पूर्व मल्ल राज्य राजतंत्रात्मक था। वह कब और कैसे गणराज्यों में परिवर्तित हो गया यह कहना कठिन है? किन्तु बुद्ध के काल में उसकी स्थिति निश्चित रूप से एक स्वतंत्र गणराज्य की थी। मल्लों के संस्थागार का उल्लेख अनेक स्थलों पर हुआ है जहां एकल होकर वे विचार-विमर्श करते थे। बुद्ध काल में मल्लों की राजधानी कुशीनगर एक महत्वपूर्ण नगर के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त कर चुकी थी।

बौद्ध साहित्य में कुशीनगर का विशद् वर्णन मिलता है। इसमें कुशीनगर के साथ ‘कुशीनारा’, ‘कुशीनगरी’ और ‘कुशीग्राम’ प्रभूति अन्य नामों का भी उल्लेख है। बुद्ध पूर्व युग में यह कुशावती के नाम से विख्यात थी। बुद्ध ने कुशीनगर को प्राचीन कुशावती से अभिहित किया था। विस्तार और समृद्धि की दृष्टि से उनका कहना था कि यह राजधानी पूर्व से पश्चिम 12 योजन लम्बी एवं उत्तर से दक्षिण 7 योजन चौड़ी थी। यह हिरण्यवती नदी (छोटी गंडक) के पश्चिम तट के समीप एक प्रमुख स्थलमार्ग पर स्थित था। इसी स्थल मार्ग से बावरी ऋषि के शिष्यों के जाने का उल्लेख है। बुद्ध की मृत्यु के समय महाकश्यप भी राजगृह से कुशीनगर इसी मार्ग से गये थे ।

पांचवी शताब्दी ई० में जब फाह्यान ने भारत का भ्रमण किया तो कुशीनगर को उपेक्षित और निर्जन पाया। केवल कुछ स्थानों पर स्तूप और संघाराम बने हुए थे। सातवीं शताब्दी में जब हवेनसांग भारत आया तो उस समय भी यह स्थान निर्जन था। उसने यहां मात्र कुछ संघाराम देखे थे। इस संबंध में चीनी यात्रियों का विवरण निम्नलिखित है-

चीनी यात्री फाह्यान 399-414 ई0 के बीच कुशीनगर आया था। उसने कुशीनगर को पिप्पलिवन के अंगार स्तूप के पूर्व में 12 योजन और वैशाली से 12 योजन की दूरी पर स्थित बतलाया। उसने संम्पूर्ण जनपद को निर्जन एवं उजाड़ पाया था। फाह्यान ने नगर के उत्तर निरंजना नदी के किनारे शालवन में दो वृक्षों के बीच के बुद्ध के परिनिर्वाण प्राप्त करने के स्थान का उल्लेख किया है। शालवन के बिहार में उस समय भी कुछ भिक्षु निवास करते थे। फाह्यान लिखता है कि परिनिर्वाण स्तूप के अतिरिक्त वहाँ चार अन्य स्तूप थे, जो क्रमशः निम्नलिखित चार स्थानों पर बने थे-

1. जहां सुभद्र ने अहितत्व को प्राप्त किया था।
2. जहां बज्रपाणि यक्ष की गद्दा गिरी थी।
3. जहां मल्लों ने बुद्ध के निष्प्राण शरीर का सप्ताह पर्यन्त पूजन किया था।
4. जहां बुद्ध के अस्थि अवशेषों का विभाजन किया था।

फाह्यान के भारत आगमन के समय यहां गुप्तों का साम्राज्य था। उस समय भारतवर्ष कला और संस्कृति के क्षेत्र में अपनी पराकाष्ठा पर था। कुमार गुप्त के शासन काल में हरिबल स्वामी ने कसिया के सुविख्यात परिनिर्वाण मंदिर के निकटवर्ती स्तूप का जीर्णोद्धार किया। फाह्यान यहां से 12 योजन चलकर उस स्थान पर पहुँचा था, जहाँ बुद्ध ने लिच्छवियों को वापस भेजा था, क्योंकि वे लोग उनके साथ परिनिर्वाण स्थल तक जाना चाहते थे। यहीं एक पत्थर की स्तंभ थी, जिस पर उनके परिनिर्वाण के घटना को अंकित किया गया था।

चीनी यात्री हवेनसांग कुशीनगर आया तो उस समय इस स्थान की स्थिति अच्छी नही थी। यह नगर मात्र खडंहर सदृश्य रह गया था। यहां की जनसंख्या अत्यल्प थी। नगर के उत्तर-पश्चिम चुंड के निवास स्थान पर अशोक द्वारा बनवाया गया स्तूप था। नगर के उत्तर-पश्चिम में स्थित ‘अजितवती’ (हिरण्यवती) नदी के पश्चिमी किनारे पर हवेनसांग ने सालवन का उल्लेख किया है। इस सालवन में विभिन्न घटनाओं के स्मारक-स्वरूप अनेक स्तूप बने हुए थे। इनमें से दो का सम्बन्ध बुद्ध के पूर्व जन्म की कथाओं से था। वहां पर ईटों से निर्मित एक बड़ा चैत्य था, जिसमें एक मूर्ति रखी थी। इसमें बुद्ध परिनिर्वाण को प्राप्त तथा उत्तर की ओर सिर किए हुए लेटी अवस्था में दिखाए गये थे। इस चैत्य के समीप अशोक द्वारा निर्मित 200 फिट ऊँचा एक भग्न स्तूप था। स्तूप के सामने मौर्यकालीन प्रस्तर-स्तंभ था, जिस पर परिनिर्वाण का वृतान्त उत्कीर्ण था।

अन्य स्तूपों में सुभद्र के मरण-स्थल से संबद्ध स्तूप का उल्लेख किया जा सकता है, जो बिहार से पश्चिम की ओर स्थित था। वह ब्राह्मण मतावलंबी था। सुभद्र ने एक सौ बीस वर्ष की अवस्था में गौतम बुद्ध से दीक्षा ली थी। इन स्तूपों के अतिरिक्त ब्रजपाणि यक्ष के गद्दापत्तन, देवताओं द्वारा तथागत के शरीर पूजन एवं माया देवी के विलाप, आदि घटनाओं से संबंध-स्थानों पर स्तूप निर्मित थे। नगर के उत्तर हिरण्यवती नदी के दूसरे तट से 300 पग दूर एक स्थल पर भी एक स्तूप था जिसको मिट्टी भी मानी जाती थी। स्थल पर निर्मित एक ऐसे स्तूप का भी हवेनसांग ने उल्लेख किया है, जो महा काव्य द्वारा बुद्ध की पादवंदना से संबद्ध था। एक दूसरे स्तूप को अशोक ने बनवाया था। वह उस स्थान पर था, जहां बुद्ध की अस्थियों का बटवारा आठ नरेशों के बीच हुआ था। उसके सामने एक स्तंभ था, जिस पर उपर्युक्त घटना का वृतान्त उत्कीर्ण था। यद्यपि हवेनसांग ने यहां के विहारों के भिक्षुओं की संख्या का उल्लेख नही किया है, परन्तु उसके वर्णन से तत्कालीन विहारों के और उनमें सन्निहित तत्वों का पूर्ण परिचय प्राप्त होता है।

सातवी शताब्दी के अंत में इत्सिंग नामक एक अन्य चीनी यात्री कुशीनगर आया था। उसके समय में कुशीनगर की स्थिति अच्छी थी। संभवतः उसे महाराज हर्ष का सफल संरक्षण था। इत्सिंग ने लिखा है कि ‘शालवन’ तथा ‘मुकुट बंधन’ प्रसिद्ध चैत्य थे, जहां शरद तथा बसंत ऋतु में दूर-दूर से श्रद्धालु आया करते थे। उस समय विहार में रहने वाले भिक्षुओं की संख्या सौ थी। वहां के भिक्षुओं के पास पर्याप्त साधन थे, अतः यात्रियों के स्वागत सत्कार में उन्हे कठिनाई नही होती थी। एक बार अकस्मात वहां पांच सौ भिक्षुओं का समूह (जत्था) आ पहुँचा, जिनका स्थानीय विहार में भोजन आदि से स्वागत-सत्कार किया गया। इत्सिंग ने समय की गणना के लिए प्रयुक्त एक ऐसे विशिष्ट विधान का उल्लेख किया है, जिसका इन विहारों में प्रयोग किया जाता था  |

प्राचीन समय में इस नगर की स्थिति रक्षा एवं व्यापार की दृष्टि से सर्वथा अनुकूल थी। नगर के समीप ही उपावत्तन नामक शालवन था, जिसके एक भाग को मल्लों ने प्रमोद उद्यान में परिणत कर दिया था। यह हिरण्यवती के दूसरे किनारे पर स्थित था। इस उपावत्तन शालवन में ही भगवान ने अंतिम निवास किया था, और यहीं युगल साल वृक्षों के नीचे उनका महापरिनिर्वाण हुआ था। उपावत्तन शालवन को कनिंघम ने वर्तमान कसिया के ‘माथा कुँवर कोट’ से समीकृत किया है। बौद्ध ग्रन्थों में कुशीनगर एवं अन्य प्रमुख नगरों के बीच की दूरी उल्लिखित है, जो इस नगर की स्थिति निश्चित करने में सहायक है। कुशीनगर से पावा की दूरी तीन गण्यूत है। बुद्ध ने अपनी अंतिम यात्रा में इसी रास्ते से कुकुक्षा नदी को पार किया था। ‘राजगृह’ से इस नगर की दूरी 25 योजन एवं ‘सागल’ (स्यालकोट) से 100 योजन थी । 

कुशीनगर बहुत समृद्धिशाली नगर था। स्वंय गौतम बुद्ध ने इसकी प्रशंसा की है। ‘बुद्ध घोष’ ने उन विशिष्ट कारणों का उल्लेख किया है, जिनसे प्रेरित होकर बुद्ध ने कुशीनगर को परिनिर्वाणार्थ चुना था-

1. ‘महासुदस्सन’ सुतांत का उपदेश वहीं किया गया था।
2. सुभद्र की प्रवज्या वहीं संभव थी।
3. अस्थि विभाजन की समस्या हल करने वाला व्यक्ति वहां उपस्थित था।

दिग्विजयी चक्रवती सम्राट महासुदर्शन के राज्यकाल में ‘कुशावती’ (कुशीनगर) 84000 नगरियों में प्रमुख थी। यह समृद्ध, रमणीय, जनाकीर्ण एवं धन्य-धान्य संपन्न थी। यह देवताओं की राजधानी ‘अलकनन्दा’ की भांति समृद्ध थी। यहां दिन रात हाथी, घोड़े, रथ, भेरी, मृदंग, गीत, झांझ, ताल, शंख और खाओ-पिओं के दस शब्द गूँजते रहते थे। नगरी सात परकोटों से घिरी थी। इनमें चार रंगो के बडे-बडे द्वार थे। चारों ओर ताल, वृक्षों की सात पंक्तियाँ नगरी को घेरे हुई थी। लेकिन यहां यह उल्लेखनीय है कि बुद्ध के काल में यह नगर राजगृह, वैशाली और श्रावस्ती की तरह प्रथम कोटि का नगर नही था। अतः कहा जा सकता है कि इस नगर का क्रमशः हास हुआ था। 

बुद्ध का कुशीनगर से विशेष लगाव था। पुर्वजन्मों में भी यह नगरी उनकी क्रिडास्थली रह चुकी थी। एक उल्लेख के अनुसार वे सात बार चक्रवर्ती सम्राट बनकर कुशीनगर में राज्य कर चुके थे। अंतिम बार जब बुद्ध यहां आये तो मल्लों ने उनका स्वागत किया। स्वागत सत्कार में सम्मिलित न होने वाले व्यक्तियों के लिए मुद्रा दंड का प्रावधान था। इस प्रकार कुशीनगर बुद्ध की शिक्षाओं से पूर्णरूपेण प्रभावित हुआ और वहां के अनेक सभ्रांत व्यक्ति उनके समर्थक बने। अतः ऐसे समय में ही बहुविध विकास हो चुका था। उनके संभ्रान्त व्यक्तियों ने इस धर्म की सदस्यता स्वीकार की थी ।

ज्ञातव्य है कि कुशीनगर में ही बुद्ध ने परिनिर्वाण प्राप्त किया था। वहां के मल्लों ने भगवान के अंतिम संस्कार का समुचित प्रबन्ध किया था। छः दिनों तक वे लोग उनके निष्प्राण शरीर का नृत्य, गीत, वाद्य एवं सुगंधित पुष्पादि से सत्कार करते रहे। सातवें दिन वे उसे ‘मुकूट बंधन चैत्य’ (जहां मल्ल राजाओं का अभिषेक किया जाता था और उनके सिर पर मुकूट बांधा जाता था) ले गए। शालवन से चलकर वे नगर में उत्तर द्वार से प्रविष्ट हुए और पूर्व द्वार से निकलकर चैत्य स्थान पर पहुँचे। वहीं पर चक्रवर्ती राचोजित विधार के अनुसार दाह-संस्कार किया गया। ‘मुकूट बंधन चैत्य’ को वर्तमान रामाभार तालाब के पश्चिमी तट पर स्थित एक विशाल स्तूप के खंडहर से समीकृत किया जा सकता है, जो माथा कुँवर के कोट से लगभग एक मील की दूरी पर स्थित है दाह-संस्कार के पश्चात् अस्थि-विभाजन के संदर्भ में विवाद उत्पन्न हो गया। इस अवसर पर उपस्थित लोगो में वैशाली के लिच्छवी, कपिलवस्तु के शाक्य, अल्लकप के बुली, रामग्राम के कोलिय, पावा के मल्ल, मगधराज के अजातशत्रु तथा बैठदीप (विष्णुदीप) के ब्राह्मण मुख्य थे। कुशीनगर के मल्लों ने विभाजन का विरोध किया। प्रतिद्वंदी राज्यों की सेनाओं ने उनके नगर को घेर लिया। युद्ध प्रायः निश्चित था, किन्तु द्रोण ब्राहम्ण के आ जाने से अस्थि अवशेषों का आठ भागो में विभाजन संभव हुआ। विभिन्न राज्यों के प्रतिनिधि अस्थि अवशेषों को अपनी राजधानियों में ले गए और वहां नवनिर्मित स्तूपों में उन्हे स्थापित किया गया। साँची के तोरण पर उत्कीर्ण चित्र इस घटना के ज्वलंत उदाहरण है। इसके अतिरिक्त तोरण के मध्य भाग में नीचे की ओर नगर के परिखा तथा प्राकार का भी अंकन मिलता है। प्राकार के भीतर नगर के कुछ विशिष्ट भवन भी दृष्टिगोचर होते हैं । 

कुशीनगर के मल्लों का अपना संथागार था, जहाँ पर राजनितिक तथा धार्मिक विषयों पर विवाद होते थे। आनंद जिस समय तथागत की मृत्यु का समाचार लेकर कुशीनगर गए, उस समय मल्ल अपनी राज्य सभा में थे। तत्पश्चात् उन्होने अपने संथागार में ही तथागत के अंतिम संस्कार के प्रारूप पर विचार-विमर्श किया था। दीर्घ निकाय में महापरिनिब्बान सुतांत में कुशीनारा के मल्लों में ‘पुरिष’ नामक एक अधिकारी वर्ग का उल्लेख मिलता है जो रीज डेविड्स के मतानुसार अधीनस्थ कर्मचारियों का वर्ग था ।

कुशीनगर के करीब फाजिलनगर कस्बा है जहां के ‘छठियांव’ नामक गांव में किसी ने महात्मा बुद्ध को सुअर का कच्चा गोस्त खिला दिया था, जिसके कारण उन्हे दस्त की बीमारी शुरू हुई और मल्लों की राजधानी कुशीनगर तक जाते-जाते वे सन् 483 ई० में निर्वाण को प्राप्त हुए। फाजिलनगर में आज भी कई टीले है जहां गोरखपुर विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग की ओर से कुछ खुदाई का कार्य कराया गया है और अनेक प्राचीन वस्तुएं प्राप्त हुई हैं। फिर भी और खुदाई कराये जाने की आवश्यकता है। फाजिलनगर को पावापुरी भी कहा जाता है। कुछ इतिहासकारों का मत है कि जैन धर्म की वास्तविकता पावापुरी यही है, न कि बिहार स्थित पावापुरी। यही कारण है कि जैनियों द्वारा यहां पर जैन मंदिर का निर्माण भी कराया गया है। फाजिलनगर के पास ग्राम जोगियां जनूबीपट्टी में भी एक अति प्राचीन मंदिर के अवशेष है, जहां बुद्ध की अति प्राचीन मूर्ति खंडित अवस्था में पड़ी है। गांव वाले इस मूर्ति को जोगीर बाबा कहते हैं। संभवतः जोगीर बाबा के नाम पर इस गांव का नाम जोगिया पडा है।

बौद्ध अनुश्रुति के अनुसार मौर्य सम्राट अशोक ने कुशीनगर की यात्रा की थी और लाख मुद्रा व्यय करके यहां के चैत्य का पुननिर्माण करवाया था। युवानच्वांग के अनुसार अशोक ने यहां तीन स्तूप और दो स्तंभ बनवाए थे। तत्पश्चात् कनिष्क (120 ई०) ने कुशीनगर में कई विहारों का निर्माण करवाया। गुप्तकाल में यहां अनेक बौद्ध विहारों का निर्माण हुआ तथा पुराने भवनों का जीर्णोद्धार भी किया गया। गुप्त-राजाओं की धार्मिक उदारता के कारण बौद्ध संघ को कोई कष्ट न हुआ। कुमार गुप्त (5 वीं शती का प्रारम्भ काल) के समय में हरिबल नामक एक श्रेष्ठी ने परिनिर्वाण मंदिर में बुद्ध की बीस फुट ऊँची प्रतिमाा की प्रतिस्थापना की। छठी व सातवीं ई० से कुशीनगर उजाड होना प्रारम्भ हो गया। हर्ष (606-647 ई०) के शासन काल में कुशीनगर प्रायः नष्ट हो गया था यद्यपि यहां भिक्षुओं की संख्या पर्याप्त थी। युवानच्वांग के यात्रा वृतान्त से सूचित होता है कि कुशीनगर, सारनाथ से उत्तर-पूर्व 116 मील दूर था। युवान के परवर्ती दूसरे चीनी यात्री इप्सिंग के वर्णन से ज्ञात होता है कि उसके समय में कुशीनगर में सर्वास्तिवादी भिक्षुओं का आधिपत्य था। हैह्यवंशीय राजाओं के समय उनका स्थान महायान के अनुयायी भिक्षुओं ने ले लिया जो तांत्रिक थे। 16 वी शती में मुसलमानों के आक्रमणों के साथ ही कुशीनगर का इतिहास अंधकार के गर्त में लुप्त सा हो जाता है। संभवतः तेरहवीं शती में मुसलमानो ने यहां के विचारों तथा अन्य भवनों को तोड़-फोड़ डाला था । 

कुशीनगर के संन्दर्भ में प्राप्त साहित्यिक स्रोतों की पुष्टि प्रायः पुरातात्विक साक्ष्यों से भी होता है। कसिया के अवशेषों को सर्वप्रथम प्रकाश में लाने का श्रेय बुकानन और लिस्टन को है। कुशीनगर को कसिया (कसया) से समीकृत करते हुए भी ये विद्वान इस स्थल के ऐतिहासिक महत्व से अवगत न थे। 1854 ई0 में एच० एच० बिल्सन ने भी कसिया को कुशीनगर से समीकृत किया। परन्तु कुशीनगर की ओर इतिहास प्रेमियों का ध्यान कनिंघम द्वारा 1860-61 ई0 में इस क्षेत्र की खुदाई के बाद ही आकृष्ट हुआ। उत्खनन के परिणामों के आधार पर कनिंघम ने आधुनिक ‘कसिया’ को कुशीनगर से समीकृत किया। कनिंघम के उत्खनन के समय यहां पर माथा कुँवर का छोटा एवं रामाभार नामक दो बड़े तथा कुछ अन्य छोटे टीले मात्र अवशिष्ट थे। यह समस्त भू-भाग वनाच्छादित एवं दुर्गम्य था। निकटवर्ती ग्रामों के निवासी इन टीलो की ईटें निकाला करते थे, जिससे प्राचीन स्मारकों का दुरूपयोग हो रहा था। मुकुट बंधन चैत्य के ऊपर रामाभार भवानी की मठिया और एक अन्य स्तूप के ऊपर किसी नट की समाधि बन चुकी थी। कनिंघम के पश्चात् उनके सहायक अधिकारी कार्लाइल ने 1875 से 1877 ई0 तक कसिया में महत्वपूर्ण सर्वेक्षण किया और कई टीलों की खुदाई करवाई। कसिया के सुप्रसिद्ध परिनिर्वाण प्रतिमा मंदिर एवं निकटस्थ स्तूप के अनुसंधान का श्रेय कार्लाइल को ही प्राप्त है। सन् 1896 ई० में प्रान्तीय सरकार की ओर से विसेंट स्मिथ ने कसिया का सर्वेक्षण किया। पुनः पुरातत्व विभाग द्वारा फोगेल के निर्देशन में 1904 से 1907 ई0 तक तथा हीरानंद शास्त्री की देख-रेख में 1910 से 1912 तक उत्खनन कार्य किया गया। इसके परिणाम स्वरूप बहुत से स्तूप, चैत्य तथा विहार प्रकाश में आये। ये स्मारक एक-दूसरे के सानिध्य में नहीं थे, अपितु इनका निर्माण विभिन्न चरणों में हुआ था ।

जनपद के रूप में कुशीनगर का उम्र बहुत कम है। सर्वप्रथम आजादी से पूर्व 16 मार्च 1946 को गोरखपुर जनपद के विभाजन के पश्चात, देवरिया जनपद अस्तित्व में आया। 13 मई 1994 को देवरिया जनपद को विभाजित कर तत्कालीन मुख्यमंत्री उ० प्र० माननीय मुलायम सिंह यादव ने पडरौना जनपद नामक नये जनपद का सृजन किया। इसी बीच प्रदेश की सत्ता बसपा नेतृ माननीया मायावती जी के हाथ में आ गयी और उन्होने बौद्ध धर्म के प्रवर्तक भगवान बुद्ध की परिनिर्वाण स्थली कुशीनगर के अन्तर्राष्ट्रीय महत्व को रेखांकित करते हुए तथा भगवान तथागत के चरणों में श्रद्धा और भक्ति का सुमन अर्पित करते हुए पडरौना जनपद का नाम परिवर्तित कर 22 मई 1997 को कुशीनगर जनपद रख दिया। अब राजनीतिक सरगर्मी तेज हो गयी, दलगत राजनीति के नारे लगने लगे। पडरौना और कुशीनगर के तत्कालीन विधायक जनपद मुख्यालय को लेकर एक मत नही हो पा रहे थे। ‘पडरौना’ और ‘कुशीनगर मुख्यालय बनाने के लिए आन्दोलन, धरना-प्रदर्शन और भी तेज हो गया। अन्ततः एक बीच का रास्ता तलाश किया गया और कुशीनगर और पडरौना के बीच रबीन्द्रनगर (धूस) को जिला मुख्यालय बना दिया गया। 

भौगोलिक स्थिति एवं क्षेत्रफल

कुशीनगर जनपद उत्तर प्रदेश की राजधानी से 318 किमी0 तथा गोरखपुर से 53 किमी0 पूरब राष्ट्रीय राजमार्ग-28 पर 26°45′ उत्तरी अक्षांश एवं 83°24′ पूर्वी देशान्तर पर स्थित है। जिले का मुख्यालय पडरौना लखनऊ से 336 किमी0 एवं गोरखपुर से 71 किमी0 दुरी पर स्थित है। जिले का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 2873.5 वर्ग किमी0 है।

सीमायें

कुशीनगर जनपद की सीमाएं उत्तर-पश्चिम में महाराजगंज जनपद, दक्षिण -पश्चिम में गोरखपुर जनपद, दक्षिण में देवरिया जनपद तथा पूर्व में बिहार प्रांत से मिलती है। 

भूसंरचना

जनपद में लगभग सभी प्रकार की भूमि जैसे दोमट, भाठ, मटियार, एवं बलुई दोमट पायी जाती है।

जलवायु एवं वर्षा

कुशीनगर जनपद का मौसम सामान्यतः सुखद एवं स्वास्थ्यकर रहता है। जिले में नवम्बर से फरवरी तक शीतकाल, मार्च से जुन तक ग्रीष्मकाल तथा मध्य जुन से सितम्बर तक वर्षाकाल होता है। अक्टूबर माह से वर्षा कम होकर मौसम सर्द होने लगता है। जलवायु की दृष्टि से कुशीनगर जिले की जलवायु मानसुनी तर है। यहाँ ग्रीष्म, वर्षा एवं शीत ऋतु स्पष्ट रूप से पाई पाती है। वायु में आर्द्रता की मात्रा वर्ष पर्यन्त बनी रहती है। अधिकांशतः वायु पूर्व से पश्चिम या पश्चिम से पूर्व की ओर चला करती है। गरमी में लू का प्रकोप प्रायः नही के बराबर रहता है किन्तु धुप तीव्र होती है। जिले में वर्ष 2011 में 1203 मिमी0 सामान्य तथा 393 मिमी० वास्तविक वर्षा दर्ज की गयी।

तापमान

कुशीनगर जिले में दिसम्बर-जनवरी का महीना सबसे अधिक ठंडा रहता है। जिले में अक्टूबर महीने से तापमान कम होकर दिसम्बर-जनवरी तक अपने न्यूनतम स्तर पर होता है, जो मार्च के महीने से अधिक होकर मई एवं जून महीने में अपने उच्चतम स्तर पर होता है। जुलाई माह से वर्षा का मौसम आ जाने से तापमान में कमी आती है जिससे तापमान में उतार-चढ़ाव आता रहता है। वर्षा का मौसम जुलाई से सितम्बर तक रहता है। 

जनसंख्या

सन् 2001 की जनसंख्या के अनुसार जिले की कुल जनसंख्या 28,93,196 है, जिसमें 14,73,637 पुरुष (50.93 प्रतिशत) तथा 14,19,559 (49.07 प्रतिशत) महिलाएं हैं (kushinagr zila sankhikiye pattrika 2012:43)। जिले में सन् 2001 की जनगणना के अनुसार जनसंख्या का घनत्व 995 व्यक्ति प्रति किमी0 है तथा 2001 की जनगणना के अनुसार लिंगानुपात प्रति हजार पुरूष पर 963 महिलाए हैं । 

कुशीनगर जिले की जनसंख्या 28,93,196 में से 1,34,052 (4.63 प्रतिशत) जनसंख्या नगरीय क्षेत्र में तथा 27,59,144 (95.37 प्रतिशत) जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है। 1991-2001 के दशक में जिले की संख्या वृद्धि 28.1 प्रतिशत रही है।

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