अनुक्रम
- प्रस्तावित व्याख्याओं (suggested explanations) की प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए प्रयोगों की सहायता लेना
- उन नियमों की कल्पना करना जिनको तार्किक व प्रयोगात्मक (experimental) आधार पर समझाया जा सकता है। जो (व्याख्या) कि धार्मिक मत व दार्शनिक व्याख्या से भिन्न हो,
- तथ्यों की विश्वसनीयता को निश्चित करने के लिए निश्चित विधियों का प्रयोग,
- अवधारणाओं एवं चिन्हों का प्रयोग और (v) सत्य के लिए तथ्य की खोज करना।
ईजेन्टाड (Eisenstadt) के अनुसार आधुनिकीकरण सामाजिक संगठन के संरचनात्मक पक्ष और समाजों के सामाजिक जनसंख्यात्मक, दोनों पक्षों की व्याख्या करता है। कार्ल ड्यूश (Karl Deutsh) ने आधुनिकीकरण के अधिकतर सामाजिक जनसंख्यात्मक पक्षों को स्पष्ट करने के लिए, ‘सामाजिक गतिमानता’ (social mobilization) शब्द का प्रयोग किया है। उन्होंने सामाजिक गतिशीलता की परिभाषा इस प्रकार की है: ‘‘ऐसी प्रक्रिया जिसमें पुरानी सामाजिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक प्रतिबद्धताओं के समूह मिटा दिये जाते हैं व तोड़ दिए जाते हैं और लोग नवीन प्रकार के सामाजीकरण और व्यवहार प्रतिमानों के लिए तैयार रहते हैं।’’
‘आधुनिकीकरण’ को ‘औद्योगीकरण’ से भी संभ्रमित (confused) नहीं मानना है। औद्योगीकरण का सन्दर्भ उन परिवर्तनों से है जो कि उत्पादन की विधियों, शक्ति चालित (power driven) मशीनों के प्रवेश के फलस्वरूप आर्थिक व सामाजिक संगठनों, तथा परिणामस्वरूप फैक्ट्री व्यवस्था के उदय से है। थियोडरसन (Theodorson) के अनुसार औद्योगीकरण के निम्न लक्षण हैं:
- कारीगर या शिल्पी के घर या दुकान में हस्त उत्पादन के स्थान पर फैक्ट्री केन्द्रित मशीनी उत्पादों की प्रतिस्थापना,
- प्रमाणिकीकृत वस्तुओं (standardized goods) का बदले जाने वाले भागों (interchangeable parts) से उत्पादन
- फैक्ट्री मजदूरों के एक वर्ग का उदय जो मजदूरी के लिए कार्य करते हैं और जो न तो उत्पादन किए गए माल और न ही उत्पादन के साधनों के मालिक होते हैं
- गैर-कृषि धन्धों में लगे लोगों के अनुपात में वृद्धि और
- असंख्य बड़े नगरों का विकास। औद्योगीकरण लोगों को वे भौतिक वस्तुएं उपलब्ध कराता है जो पहले कभी उपलब्ध नहीं थीं। आधुनिकीकरण, दूसरी ओर, एक लम्बी प्रक्रिया है जिससे मस्तिष्क का वैज्ञानिक दृष्टिकोण पैदा होता होता है।
जेम्स ओ कोनेल (James O’ Connell) ने आधुनिकीकरण की प्रक्रिया के विश्लेषण में इसको तीन पहलुओं में विभाजित किया है:
- आविष्कारात्मक (inventive) दृष्टिकोण, अर्थात् वैज्ञानिक भावना जिससे निरन्तर व्यवस्थित तथा आविष्कारात्मक ज्ञान प्राप्त होता हो, जो कि घटना के कारण और परिणाम से संबंधित हो,
- नए तरीकों और उपकरणों का आविष्कार, अर्थात् उन विभिन्न विधियों की खोज जो अनुसन्धान को आसान बनाये, और उन नई मशीनों का आविष्कार जो जीवन के नये प्रतिमान को आवश्यक बनाते हों। आधुनिक विज्ञान द्वारा प्रस्तुत व्याख्या धार्मिक संस्कारों को अनावश्यक बनाती है, और
- सामाजिक संरचनाओं का लचीलापन और पहचान की निरन्तरता अर्थात्, व्यक्तिगत और सामाजिक संरचनात्मक दोनों स्तरों पर निरन्तर परिवर्तन को स्वीकारने की इच्छा और साथ ही व्यक्तिगत तथा सामाजिक पहचान सुरक्षित रखने की योग्यता। उदाहरणार्थ, बहुपत्नी परम्परागत समाज में वैवाहिक रीति-रिवाज बुजुर्गों के चारों ओर केन्द्रित थे, किन्तु मजदूरी प्रथा के प्रचलन और श्रमिकों की गतिशीलता से युवा पीढ़ी की आर्थिक उपलब्धियों ने पत्नियों के लिए प्रतिस्पर्द्धा को बाध्य कर दिया।
जेम्स ओ कोनेल के अनुसार परम्परागत समाज से आधुनिक समाज में जो परिवर्तन होते हैं, वे इस प्रकार हैं:
- आर्थिक विकास में वृद्धि होती है और वह आत्मनिर्भर हो जाता है।
- धन्धे अधिक विशिष्ट और कुशल (skilled) हो जाते हैं।
- प्रारम्भिक धन्धों में लगे लोगों की संख्या कम होती जाती है, जबकि द्वैतीयक तथा तृतीयक धन्धों में लगे लोगों की संख्या बढ़ती जाती है।
- पुराने कृषि यन्त्रों तथा विधियों के स्थान पर ट्रेक्टरों और रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग बढ़ता है।
- वस्तु विनिमय (barter system) की स्थान मुद्रा व्यवस्था ले लेती है।
- उन समुदायों के बीच जो पहले एक दूसरे से अलग होते थे और स्वतंत्र होते थे, अन्त:निर्भरता (inter-dependence) आ जाती है।
- नगरीकरण की प्रक्रिया में वृद्धि होती है।
- प्रदत्त प्रस्थिति अर्जित प्रस्थिति को स्थान देती है।
- समानता धीरे-धीरे संस्तरण का स्थान लेती है।
- स्वास्थ्य सुधार तथा अच्छी मेडिकल देखभाल के कारण जीवन की अवधि लम्बी होती जाती है।
- यातायात तथा संचार की नवीन विधियों द्वारा भौगोलिक दूरियाँ कम होती जाती हैं।
- वंशानुगत नेतृत्व का स्थान चुनाव द्वारा नेतृत्व ले लेता है।
इस संबंध में ‘परम्परा’, ‘परम्परावाद’ तथा ‘परम्परागत समाज’ शब्दों को समझना आवश्यक है। ‘परम्परा’ शब्द का अर्थ अतीत में चले आ रहे विश्वासों एवं प्रथाओं से है। ‘परम्परावाद’ मानसिक दृष्टिकोण (psychic attitude) है जो प्राचीन विश्वासों और प्रथाओं को अपरिवर्तनीय मानकर उसको शोभायुक्त व गौरवान्वित करता है। यह परिवर्तन और विकास के विपरीत है।
परम्परागत समाज गतिहीन होता है। उच्च गतिशीलता वाले समाज में जिसे मुक्त समाज भी कहा जाता है, व्यक्ति मार्ग में आने वाले अवसरों तथा अपनी योग्यता व संभावनाओं का लाभ उठाते हुए अपनी प्रस्थिति में परिवर्तन कर सकता है। दूसरी ओर, बन्द या गतिहीन समाज में व्यक्ति जन्म से मृत्यु तक एक ही प्रस्थिति में रहता है। आधुनिकता से हमारा तात्पर्य मुक्त समाज की रचना से या नई संस्थाओं की रचना की सीमा से, और उस परिवर्तन को स्वीकारने से है जो संस्थाओं, विचारों तथा समाज की सामाजिक संरचना से सम्बद्ध है।
आधुनिकीकरण के प्रमुख लक्षण
कार्ल ड्यूश ने आधुनिकता के एक पक्ष (अर्थात् सामाजिक जनसंख्यात्मक या जिसे वह सामाजिक गतिशीलता भी कहते हैं) का संदर्भ देते हुए इंगित किया है कि इसके कुछ सूचक (indices) इस प्रकार हैं: यंत्रों के माध्यम से आधुनिक जीवन के प्रति अनावृत्ति (exposure), शहरीकरण, कृषि धन्धों में परिवर्तन, साक्षरता तथा प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि। इजेन्टाड के अनुसार सामाजिक संगठन (या आधुनिकीकरण) के संरचनात्मक पक्षों के मुख्य सूचक (indices) हैं: विशिष्ट भूमिकाएं (specialized roles) उन्मुक्त विचरण वाली (free floating) होती हैं (अर्थात् उनमें प्रवेश व्यक्ति के प्रदत्त लक्षणों से निर्धारित नहीं होता है), तथा धन व शक्ति जन्म के आधार पर निश्चित नहीं होते (जैसा कि परम्परागत समाजों में होता है)। यह मार्केट जैसी संस्थाओं से, (आर्थिक जीवन में), मतदान से, और राजनीतिक जीवन में पार्टी कार्यों से सम्बद्ध होते हैं।
मूर (Moore) ने बताया है कि आधुनिक समाज के विशेष आर्थिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक लक्षण होते हैं। आर्थिक क्षेत्र में आधुनिक समाज के लक्षण निम्न हैं:
- अत्यन्त उच्च स्तरीय तकनीकी का विकास जो ज्ञान के व्यवस्थित खोज से होता है, जिसका अनुसरण प्राथमिक व्यवसाय (कृषि में) कम और द्वैतीयक (उद्योग, व्यापार) और तृतीयक (नौकरी) व्यवसायों में अधिक होता है;
- आर्थिक विशिष्टताओं की भूमिकाओं का विकास,
- प्रमुख बाजारों, जैसे वस्तुओं का बाजार, श्रम बाजार, तथा मुद्रा बाजार के क्षेत्र व जटिलता का विकास।
राजनैतिक क्षेत्र में आधुनिक समाज कुछ अर्थों में प्रजातांत्रिक या कम से कम जनवादी (populistic) है। इसके लक्षण हैं: शासकों के अपने समाज से बाहर शक्ति के सन्दर्भ में पारम्परिक वैधता में गिरावट, (ii) शासकों की उन शासितों के प्रति एक प्रकार के वैचारिक उत्तरदायित्व (ideological accountability) की स्थापना जो राजनैतिक सत्ता के वास्तविक धारणहारी होते हैं, (iii) समाज की राजनैतिक, प्रशासनिक, वैधानिक एवं केन्द्रीय शक्ति की सीमाओं का विकासशील विस्तार, (iv) समाज में अधिक से अधिक समूहों में संभावित शक्ति का निरन्तर फैलाव और अन्तत: सभी प्रौढ़ नागरिकों में तथा नैतिक व्यवस्था में फैलाव और (v) किसी भी शासक व्यक्ति या शासक समूह के प्रति प्रदत्त राजनैतिक प्रतिबद्धता में कमी होना।
सांस्कृतिक क्षेत्र में आधुनिक समाज के लक्षण हैं: (i) प्रमुख सांस्कृतिक और मूल्य व्यवस्थाओं के प्रमुख तत्वों जैसे, धर्म दर्शन और विज्ञान में बढ़ता हुआ अन्तर, (ii) धर्म निरपेक्ष शिक्षा और साक्षरता का विस्तार, (iii) बौद्धिक विषयों पर आधारित विशिष्ट भूमिकाओं के विकास के लिए जटिल संस्थात्मक व्यवस्था, (iv) संचार साधनों का विकास, (v) नवीन सांस्कृतिक दृष्टिकोण का विकास जिसमें प्रगति व सुधार पर बल, योग्यताओं की अभिव्यक्ति और प्रसन्नता पर बल, व्यक्तिवाद का नैतिक मूल्यों के रूप में मानने पर बल तथा व्यक्ति की कुशलता और सम्मान पर बल दिया जाता है। विस्तृत रूप में आधुनिकीकरण के प्रमुख लक्षण इस प्रकार हैं:
- वैज्ञानिक भावोन्माद (temper)
- कारण (reason) और तर्कवाद
- धर्मनिरपेक्षता
- उच्च आकांक्षाएं तथा उपलब्धि परकता (achievement orientation)
- मूल्यों, मानदण्डों और अभिरूचियों में सम्पूर्ण परिवर्तन
- नवीन प्रकार्यात्मक संस्थाओं की रचना
- मानव संसाधनों में निवेश (investment)
- विकास परक अर्थ व्यवस्था
- नातेदारी, जाति, धर्म या भाषा परक हितों की अपेक्षा राष्ट्रीय हित
- मुक्त (open) समाज
- गतिशील व्यक्तित्व
आधुनिकीकरण के परिमाप
आधुनिकीकरण के परिमापों के विषय में व्याख्या करते हुए रस्टोव और वार्ड ) ने इनमें परिवर्तन के इन विशेष पक्षों को सम्मिलित किया है:
- अर्थव्यवस्था का औद्योगीकरण तथा उद्योग, कृषि, दुग्ध उद्योग (dairy farming), आदि में वैज्ञानिक तकनीकी धारण करके उन्हें अधिकाधिक उत्पादक बनाना
- विचारों का धर्म निरपेक्षीकरण
- भौगोलिक एवं सामाजिक गतिशीलता में उल्लेखनीय वृद्धि
- तकनीकी तथा वैज्ञानिक शिक्षा का प्रसार
- प्रदत्त प्रस्थिति से अर्जित प्रस्थिति में परिवर्तन
- भौतिक जीवन स्तर में वृद्धि
- अर्थ व्यवस्था में निर्जीव शक्ति (inanimate energy) का जैविक (animate) शक्ति से अधिक उपयोग
- प्राथमिक उत्पादन क्षेत्र की अपेक्षा द्वैतीयक तथा तृतीय उत्पादन क्षेत्रों में अधिक श्रमिकों का कार्य करना (अर्थात, कृषि व मत्स्य कार्यों की अपेक्षा निर्माण और नौकरी आदि व्यवसायों में अधिक श्रमिक)
- तीव्र शहरीकरण
- उच्च स्तरीय साक्षरता
- प्रति व्यक्ति उच्च राष्ट्रीय उत्पादन
- जनसंचार का नि:शुल्क विस्तार
- जन्म के समय उच्च जीवन अपेक्षा (expectancy)।
आधुनिकीकरण की कुछ पूर्व आवश्यकताएं
परम्परावाद से आधुनिकीकरण में परिवर्तन होने से पूर्व समाज में आधुनिकीकरण की कुछ पूर्व आवश्यकताएं मौजूद होनी चाहिए। ये हैं
- उद्देश्य की जानकारी तथा भविष्य पर दृष्टि
- अपनी दुनिया से परे भी अन्य समाजों के प्रति जागरूकता
- अति आवश्यकता का भाव
- विविध भूमिकाओं एवं अवसरों की उपलब्धता
- स्वयं लादे गए कार्यों एवं बलिदानों के लिए भावनात्मक तत्परता
- प्रतिबद्ध, गतिशील एवं निष्ठावान नेतृत्व का उदय।
आधुनिकीकरण बड़ा जटिल है क्योंकि इसमें न केवल अपेक्षाकृत नए स्थाई ढाँचे की आवश्यकता होती है, बल्कि ऐसे ढाँचे की भी जो स्वयं को निरन्तर बदलती दशाओं एवं समस्याओं के अनुकूल बना ले। इसकी सफलता समाज की आन्तरिक परिवर्तन की सामथ्र्य पर निर्भर करती है।
इजेन्टाड की मान्यता है कि आधुनिकीकरण के लिए एक समाज के तीन संरचनात्मक लक्षण होने चाहिए:
- (उच्च स्तरीय) संरचनात्मक अन्तर,
- (उच्च कोटि की) सामाजिक गतिशीलता, और
- अपेक्षाकृत केन्द्रीय तथा स्वायत्तता धारी संस्थात्मक संरचना।
आधुनिकीकरण के प्रति प्रतिक्रिया
सभी समाज आधुनिकीकरण की एक सी प्रक्रिया स्वीकार नहीं करते हैं। हर्बर्ट ब्लूमर (Herbert Blumer) के विचार को मानते हुए पांच तरीके बताये जा सकते हैं जिनमें एक परम्परागत समाज आधुनिकीकरण की प्रक्रिया के प्रति प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकता है। ये हैं:
साधारणतया ये पांचों अनुक्रियाएँ विविध संयोजनों (combinations) द्वारा परम्परागत व्यवस्था के विविध बिन्दुओं पर होती रहती है। अनुक्रियाएं वरीयताओं (preferences), रुचियों (interests), तथा मूल्यों (values) से प्रभावित होती रहती हैं।
आधुनिकीकरण के प्रमुख साधन
माइरन वीनर (Myron Weiner) के अनुसार आधुनिकीकरण को सम्भव बनाने वाले प्रमुख साधन (instruments) इस प्रकार हैं:
भारत में पश्चिम का और आधुनिकीकरण का प्रभाव
अलाटास के अनुसार भारत पर पश्चिमी प्रभाव का पाँच चरणों में विवेचन किया जा सकता है। प्रथम चरण सिकन्दर की विजय के साथ प्रतिरोधी सम्पर्क है जो कि बाद की शताब्दियों से वाणिज्य व व्यापार से शक्तिपूर्ण आदान प्रदान के रूप में सदियों तक चलता रहा। दूसरा चरण पन्द्रहवीं शताब्दी के अन्त से प्रारम्भ हुआ जब वास्कोडिगामा कालीकट में अपने जहाजों के साथ 1498 ई0पू0 में आया। कुछ ही वर्षों में पुर्तगालियों ने गोआ पर अधिकार कर लिया। लेकिन इन पश्चिमी लोगों का प्रभाव अपेक्षाकृत कम रहा।
- बैंक व्यवस्था, लोक प्रशासन, सैन्य संगठन, आधुनिक औषधियाँ, कानून आदि जैसी पश्चिमी संस्थाओं को देश में प्रारम्भ किया गया।
- पश्चिमी शिक्षा ने उन लोगों के दृष्टिकोण को विस्तृत किया जिन्होंने आजादी व अधिकारों की बात शुरू की। नवीन मूल्यों, धर्म निरपेक्ष व न्याय संगत भावना तथा व्यक्तिवाद, समानता व न्याय के विचारों के समावेश ने बड़े महत्व का स्थान ले लिया।
- वैज्ञानिक नवीनताओं की स्वीकृति ने जीवन स्तर को ऊंचा उठाने की आकांक्षाओं को ऊंचा उठाया और लोगों के लिए भौतिक कल्याण उपलब्ध कराया।
- कई सुधार आन्दोलन हुए। अनेक परम्परागत विश्वास तथा व्यर्थ की प्रथाएं त्याग दी गई, तथा अनेक नए व्यवहार स्वरूप अपनाए गए।
- हमारी तकनीकी, कृषि, व्यवसाय और उद्योग आधुनिक किए गए जिससे देश का आर्थिक विकास एवं कल्याण हुआ।
- राजनैतिक मूल्यों के संस्तरण की पुनर्रचना की गई। प्रजातंत्र स्वीकार करने के बाद सभी रियासतें भारतीय राज्य में सम्मिलित कर ली गई तथा सामन्तों और जमींदारों के अधिकार और शक्ति समाप्त हो गई। \
- विवाह, परिवार और जाति जैसी संस्थाओं में संरचनात्मक परिवर्तन आए और सामाजिक तथा धार्मिक जीवन में नए संबंध बनने लगे।
- रेलवे, बस यात्रा, डाक सेवा, हवाई एवं समुद्री यात्रा, प्रेस, रेडियों और दूरदर्शन आदि संचार माध्यमों के आने से मानव जीवन के अनेक क्षेत्रों में प्रभाव पड़ा है।
- राष्ट्रीय भावना में वृद्धि हुई है।
- मध्यम वर्ग के उदय ने समाज के प्रमुख मूल्यों में परिवर्तन कर दिया है।
अलाटास (Alatas) ने पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव को हमारी संस्कृति और सामाजिक व्यवस्था में चार प्रकार के परिवर्तनों के आधार पर समझाया है: निरस्नात्मक (eliminative) परिवर्तन, योगात्मक (addictive) परिवर्तन, समर्थन (supportive) परिवर्तन, तथा संश्लेषात्मक (synthetic) परिवर्तन। निरस्नात्मक परिवर्तन वे हैं जिनसे सांस्कृतिक विशेषताएँ, व्यवहार के स्वरूप, मूल्य, विश्वास और संस्थाएं लुप्त हो जाती हैं।
पश्चिमी प्रभाव के कारण परिवर्तन का उपरोक्त विभाजन केवल विश्लेषण के उद्देश्य से है, लेकिन एक दूसरे से उनको अलग करना सम्भव नहीं है। एक ही प्रकार के परिवर्तन के भीतर हम दूसरे प्रकार के परिवर्तनों के तत्व भी देख सकते हैं। उदाहरणार्थ, वस्त्र उद्योग के प्रारम्भ करने में समर्थक तत्व देखे जा सकते हैं क्योंकि यह कपड़े के उत्पादन को सुविधा प्रदान करता है। परन्तु साथ ही क्योंकि इससे हाथकरघा (handloom) उद्योग को आघात लगा है, तो यह कहा जा सकता है कि इसमें हटाने योग्य अथवा निरस्नात्मक परिवर्तन के तत्व भी काम करते हैं। खुले कारागृहों (wall-less prisons) का आरम्भ भी एक और उदाहरण है जिसमें तीन विविध प्रकार के परिवर्तन कार्य करते हैं। इसी प्रकार, शिक्षा व्यवस्था, बैकिंग-व्यवस्था, विवाह व्यवस्था आदि में परिवर्तन मिलते हैं।
अब प्रमुख प्रश्न है कि: पश्चिम के सम्पर्क के बाद भारत कहाँ पहुंच गया है? क्या भारत ने प्रगति की है? क्या इसने लोक कल्याण में योगदान किया है? कुछ विद्वान मानते हैं कि भारत को द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ा, जैसे आर्थिक पिछड़ापन, बड़ी संख्या में लोगों का गरीबी की रेखा से नीचे जीवनयापन करना, बेरोजगारी, जीवन के सभी क्षेत्रों में धर्म का प्रभुत्व, ग्रामीण ऋण, जातीय संघर्ष, साम्प्रदायिक दुर्भावना, पूँजी की कमी, तकनीकी दक्षता वाले दक्ष कार्मिकों की कमी, आदि। इन समस्याओं का समाधान भी पश्चिमी प्रभाव ने दिया है। लेकिन अन्य विद्वानों की मान्यता है कि पश्चिमी प्रभाव ने भारत को इन समस्याओं के समाधान में कोई सहायता नहीं की। यदि कुछ समस्याओं का समाधान हुआ है तो कई दूसरी समस्याएं खड़ी हुई हैं और भारत उन्हें पश्चिम के नमूने पर सुलझाने का प्रयत्न नहीं कर रहा है।
वास्तविकता यह है कि जीवन के कुछ क्षेत्रों में पश्चिमी प्रभाव को स्वीकार करके हम सही हो सकते हैं। आधुनिक मेडिकल साइंस, आधुनिक तकनीकी, प्राकृतिक प्रकोपों का सामना करने के आधुनिक उपाय, देश को बाहरी खतरों से सुरक्षा प्रदान करने के आधुनिक तरीके, आदि भारत के इतिहास में पश्चिम के अद्वितीय योगदान के रूप में गिने जायेंगे। लेकिन, भारत इनके साथ-साथ लोगों के उत्थान के लिए अपनी परम्परागत संस्थाओं, प्रथाओं और विश्वासों का भी प्रयोग कर रहा है। इस प्रकार पश्चिमी प्रभाव के बाद भी तथा विविध व्यवस्थाओं के आधुनिकीकरण के बाद भी भारत, भारत ही रहेगा। भारतीय संस्कृति आने वाले कई दशकों तक सुरक्षित रहेगी।
भारत में आधुनिकीकरण की प्रक्रिया
पूर्व पृष्ठाों में किया गया विश्लेषण दर्शाता है कि परम्परा और आधुनिकता में एक अटूट क्रम पाया जाता है जिसमें एक ओर परम्परा और दूसरी ओर आधुनिकीकरण है। निरन्तरता की इस रेखा पर किसी भी समाज को किसी भी बिन्दु पर रखा जा सकता है। अधिकतर समाज किसी न किसी प्रकार की संक्रमण की स्थिति में रहते हैं। स्वतंत्रता के समय भारतीय समाज में भी गहरी परम्पराएं थीं, किन्तु यह आधुनिक भी होना चाहता था। ऐसे लोग व ऐसे नेता थे जो कि परम्परागत जीवन शैली ही पसन्द करते थे, लेकिन दूसरी ओर ऐसे लोग भी थे जो भारत का आधुनिक उदय देखना चाहते थे जिसमें अतीत का लगाव न हो। लेकिन कुछ ऐसे भी थे जो परम्परा एवं आधुनिकता के बीच सामंजस्य के पक्षधर थे।
हमने अपने समाज को विविध स्तरों पर आधुनिक बनाने का निश्चय किया। सामाजिक स्तर पर हम सामाजिक संबंधों को समानता तथा मानवीय गौरव के आधार पर बनाना चाहते थे। ऐसे सामाजिक मूल्य चाहते थे जो सामाजिक गतिशीलता को सुनिश्चित करें, जाति निर्योग्यताओं को दूर करें स्त्रियों की दशा में सुधार करें, आदि आर्थिक स्तर पर हम तकनीकी विकास तथा न्याय वितरण (distributive justice) चाहते थे। सांस्कृतिक स्तर पर हम धर्म निरपेक्षता, तर्कवाद और उदारवाद चाहते थे। राजनैतिक स्तर पर हम प्रतिनिधि सरकार, जनतांत्रिक संस्थाएं, उपलब्धि-परक शक्ति संरचना (achievement-oriented power structure), तथा देश की सरकार में भारतीय जन की अधिक आवाज व भागीदारी चाहते थे। समाज को आधुनिक बनाए जाने के लिए जो माध्यम चुने गए (तर्कवाद और वैज्ञानिक ज्ञान पर आधारित) वे थे: नियोजन, शिक्षा, (जो अज्ञानता के अंधकार को दूर कर सके), विधान, विदेशों से सहायता, उदारवाद की नीति अपनाना आदि। जहाँ तक आधुनिकीकरण की प्रक्रिया का संबंध है, विस्तृत रूप में कहा जा सकता है कि गुणात्मक दृष्टिकोण से भारत में आधुनिकीकरण इन प्रक्रियाओं से गुजर रहा है: आर्थिक सरंचनात्मक स्तर पर पुरानी पारिवारिक एवं सामुदायिक उपकरणीय अर्थव्यवस्था (tool economy) के स्थान पर यांत्रिक औद्योगिक अर्थ व्यवस्था को अपनाने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। यह जजमानी प्रथा जैसी परम्परागत व्यवस्था को तोड़ने के लिए भी उत्तरदायी है।
राजनैतिक संरचनात्मक स्तर पर, शक्ति संरचना में परिवर्तन लाया जा रहा है। अर्द्ध सामन्ती समूह-परक (group-oriented) शक्ति संरचना का उन्मूलन कर के और उसके स्थान पर जनतांत्रिक शक्ति संरचना की स्थापना कर के जो कि आवश्यक रूप से व्यक्ति-परक (individual-oriented) होती है। सांस्कृतिक स्तर पर मूल्यों के क्षेत्र में परिवर्तन पवित्र मूल्य व्यवस्था से धर्म निरपेक्ष मूल्य व्यवस्था में परिवर्तन के द्वारा लाया जा रहा है। सामाजिक संरचनात्मक स्तर पर अर्जित प्रस्थिति भूमिका की अपेक्षा परम्परागत प्रदत्त भूमिका व प्रस्थिति में कमी आई है।
भारत में आधुनिकीकरण की एक अनोखी विशेषता यह है कि परम्परागत संरचना में परिवर्तन अपना कर परिवर्तन लाया जा रहा है, न कि सरंचना में विखण्डन के द्वारा। यह सत्य है कि परम्परागत समाज की अधिकतर विशेषताएं आधुनिक समाज में उपयुक्त नहीं बैठती, फिर भी आधुनिकता जनता पर थोपी नहीं जा सकती। आधुनिकीकरण पेशे के अनुसार निर्देशित (professionally directed) होना चाहिए। परम्परागत संस्थाओं की विशेषताओं को विकास की प्रक्रिया में उपयुक्त समायोजन के साथ रोके रखा जा सकता है। कोई भी समाज तनाव मुक्त तभी रह सकता है जबकि यह बन्द हो तथा गतिशील समाज न हो। विकासशील समाज तनाव और प्रतिरोधो के भीतर होने के आधार पर कार्य करता है। तनाव आधुनिकता व परम्परा के बीच निहित संघर्षों के कारण बना रहता है। तनाव अतीत की धरोहर होते हैं जो कि आर्थिक विकास के दबाव के कारण बने रहते हैं। बहुधा विकास की प्रक्रिया में कुछ तनाव सुलझ जाते हैं।
आधुनिकीकरण की समस्याएं
- आधुनिकीकरण का प्रथम विरोधाभास यह है कि एक आधुनिक समाज को तुरन्त हर प्रकार से बदल जाना चाहिए, लेकिन ऐसे नियमित एवं विकास का समन्वित स्वरूप का अनुमानित नियोजन नहीं हो सकता। अत: एक प्रकार की सामाजिक हलचल हो ही जाती है। उदाहरणार्थ, जन शिक्षा व्यवस्था की मांग है कि दक्ष (trained) व्यक्तियों को उनकी ट्रेनिंग तथा उनके ज्ञान के अनुकूल व्यवसायिक भूमिका में लगा देना चाहिए। लेकिन सभी शिक्षित लोगों को काम दिलाना सदैव सम्भव नहीं होता है। इससे शिक्षित लोगों में निराशा एवं असंतोष पैदा होता है।
- दूसरी समस्या यह है कि आधुनिकीकरण की अवधि में संरचनात्मक परिवर्तन असमान होता है। उदाहरणार्थ, उद्योग आधुनिक बनाए जा सकते हैं लेकिन परिवार व्यवस्था, धर्म व्यवस्था आदि रूढ़िवादी ही बने रहते है। इस प्रकार की निवृत्तियाँ व अविच्छिन्नताएँ और परिवर्तन के स्वरूप, स्थापित सामाजिक और अन्य संरचनाओं को प्रभावित करते हैं और अन्तराल (lags) गत्यवरोध (bottlenecks) पैदा करते हैं। इसका दूसरा उदाहरण है भारत में मताधिकार की आयु 21 से कम करके 18 वर्ष कर देना। यह आधुनिकता में प्रवेश का एक कदम हो सकता है, किन्तु इसने एक संकट पैदा कर दिया है क्योंकि निर्वाचक समूह इस अनुमान पर निर्भर करता है कि उनमें नागरिकता की परिपक्व भावना होगी तथा नीतियों में भागीदारी की योग्यता होगी।
- तीसरी समस्या है कि सामाजिक व आर्थिक संस्थाओं का आधुनिकीकरण परम्परागत जीवन शैली के साथ संघर्ष पैदा करता है। उदाहरणार्थ, प्रशिक्षित डॉक्टर परम्परागत वैद्यों के लिए खतरा हो जाते है। इसी प्रकार मशीनों द्वारा निर्मित वस्तुएं घरेलू श्रमिकों को रोजी रोटी से वंचित कर देती है। इसी तरह बहुत से परम्परावादी लोग उन लोगों के विरोधी हो जाते हैं जो आधुनिकता स्वीकार करते हैं। फलत: परम्परावादी और आधुनिक तरीकों में संघर्ष असंतोष का कारण हो जाता है।
- चौथी समस्या यह है कि अक्सर लोग जो भूमिकाएं धारण करते हैं, वे आधुनिक तो होती हैं, किन्तु मूल्य परम्परात्मक रूप में जारी रहते हैं। उदाहरणार्थ, मेडिसिन और सर्जरी में ट्रेनिंग लेने के बाद भी एक डॉक्टर अपने मरीज से यही कहता है, ‘‘मैं इलाज करता हूँ, ईश्वर ठीक करता है।’’ यह दर्शाता है कि उसे अपने पर विश्वास नहीं है कि वह बीमारी का सही निदान कर सके बल्कि स्वयं पर आरोप लगाने की बजाय वह उन तरीकों की निन्दा करता है जिनमें उसका जीवन-मूल्यों को विकसित करने के लिए समाजीकरण किया गया है।
- पाँचवीं समस्या यह है कि उन साधनों के बीच जो आधुनिक बनाती हैं और उन संस्थाओं व व्यवस्थाओं में जिनको आधुनिक होना है सहयोग की कमी है। कई बार इससे सांस्कृतिक विलम्बना (cultural lag) की स्थिति पैदा होती है तथा संस्थात्मक संघर्ष होते हैं।
- अंतिम समस्या यह है कि आधुनिकीकरण लोगों की आकांक्षाओं को बढ़ाता है, लेकिन सामाजिक व्यवस्थाएं उन्हें आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए अवसर प्रदान करने में असफल रहती हैं। ये कुण्ठाएँ वंचनाएं और सामाजिक असंतोष पैदा करती हैं।