अनुवाद प्रक्रिया एक संश्लिष्ट प्रक्रिया है। इसमें क्रिया व्यापार का स्वरूप दोहरा होता है। कृष्ण कुमार गोस्वामी के अनुसार अनुवाद प्रक्रिया से तात्पर्य अनुवाद की विधि अथवा प्रविधि से है जिसमें एक भाषा से दूसरी भाषा में संदेश और संरचना का अंतरण होता है। संदेश लक्ष्य है और संरचना माध्यम है तथा अंतरण प्रक्रिया। इन तीनों आयामों का कार्य व्यापार अनुवाद प्रक्रिया कहलाता है।
गोस्वामी को जाता है। उन्होंने पाठ को भाषिक प्रतीक रूप में देखने का प्रयास किया है। वे मानते हैं कि अनुवादक
को दो प्रकार के पाठों का सामना करना पड़ता है। अनुवादक सबसे पहले मूलकृति से टकराता है और पाठक
के रूप में मूलपाठ को पढ़ता है तथा विश्लेषण कर कथ्य अथवा मर्म को पकड़ने का प्रयास करता है। अनुवादक
केवल पाठक ही नहीं अपितु द्विभाषिक की भूमिका के रूप में वह कथ्य को लक्ष्यभाषा में बाँधने का प्रयत्न भी
करता है। इसलिए उसे भाषा तथा लक्ष्यभाषा दोनों की व्याकरणिक संरचनाओं, सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों और
अन्य विधागत शैलियों से जूझना पड़ता है। तभी वह सुपाठ्य, सुबोध और संप्रेषणीय लक्ष्यपाठ का निर्माण करता
है। इस प्रकार अनुवादक एक रचयिता की भूमिका भी निभाता है।
को प्रतीक के रूप में भी देखते हैं, और संदेश का अंतरण वास्तव में प्रतीकांतरण ही है जिसमें संकेत, संकेतित,
संकेतन और संकेतार्थ आदि उपस्थित रहते हैं। कथ्य, अर्थ-व्यापार और लक्ष्यार्थ आदि में व्यापार प्रक्रिया संपन्न
होती है। श्रीवास्तव और गोस्वामी अनुवादक द्वारा तीन भूमिकाओं के संपादन की बात करते हैं। अनुवादक
विश्लेषण के रूप में पाठक, अंतरण के स्तर पर अर्थांतरण प्रकार्य हेतु द्विभाषिक तथा संप्रेषण हेतु पुनर्रचना के
स्तर पर लेखक की भूमिका निभाता है। श्रीवास्तव और गोस्वामी ने अपने सिद्धांत को इस प्रकार आरेख में प्रस्तुत
किया है:
| प्रक्रिया | अनुवादक की भूमिका | प्रकार्य |
|---|---|---|
| विश्लेषण | पाठक (मूलपाठ) | अर्थग्रहण |
| अंतरण | द्विभाषिक | अर्थांतरण |
| पुनर्रचना | लेखक (अनूदित पाठ) | अर्थ संप्रेषण |
अनुवादक की इस स्तर पर बहु-आयामी भूमिका है। अनुवाद व्यापार के विभिन्न स्तरों पर अनुवादक द्वारा सामना
की जाने वाली समस्याएँ, यथा अर्थग्रहण, अर्थांतरण और संप्रेषण की समस्या अनुवादक की भूमिका को चुनौतीपूर्ण
बना देती हैं। इस समस्त भूमिका समस्या प्रारूप को गोस्वामी ने इस प्रकार समझाया है:
पा सकता है।
अभिव्यक्ति, वास्तव में इन दो ध्रुवों के बीच निरंतर होते रहने वाली प्रक्रिया है जो सीधी और प्रत्यक्ष न होकर परोक्ष
है। वह मध्यवर्ती स्थिति जिसके जरिए यह प्रक्रिया संपन्न होती है एक वैचारिक संज्ञानात्मक संरचना है जो मूलपाठ
के बोधन से निष्पन्न होती है तथा इसमें लक्ष्यभाषागत अभिव्यक्ति के बीज निहित रहते हैं।
भी है जिसमें विभिन्न स्तरों पर अनुवादक अलग-अलग भूमिका निभाता है और एक प्रकार से वह मूलभाषा पाठ
में अंतर्निहित संदेश को यथासंभव निकटतम और समान रूप में अभिव्यक्त होने की क्षमता निर्मित करता है, जो
कथ्य अथवा संदेश की व्याख्या करने जैसा ही है।
अनुवाद प्रक्रिया के विभिन्न प्रारूप
उनके अनुसार संरचना की दृष्टि से भाषा के दो तत्त्व होते हैं :
- तल संरचना और
- गहन संरचना
तल संरचना से तात्पर्य है भाषा की बाहरी स्वन प्रक्रिया तथा गहन संरचना से आशय है तल संरचना में निहित अर्थ तत्त्व। चॉमस्की गहन संरचना को एक नैसर्गिक अवयव मानते हुए भाषाओं के बीच अन्तर को केवल तल संरचना का अन्तर मानते हैं। चॉमस्की ने यहाँ जो आधार से गहन संरचना और पुन: गहन संरचना से तल संरचना की दोहरी गतिविधि की विवेचना की है, वह अनुवाद-प्रक्रिया में स्रोत-भाषा के विकोडीकरण तथा लक्ष्य-भाषा में उसके पुन: कोडीकरण को समझने में सहायक है। अत: ऊपर के आरेख को अनुवाद की प्रक्रिया में निम्नलिखितानुसार बदला जा सकता है :
1. नाइडा द्वारा प्रतिस्थापित अनुवाद की प्रक्रिया – नाइडा ने चॉमस्की के ‘गहन संरचना’ एवं ‘तल संरचना’ के आधार पर अनुवाद-प्रक्रिया में निम्नलिखित तीन सोपानों का उल्लेख किया है :
- विश्लेषण (Analysis)
- अन्तरण (Transference)
- पुनर्गठन (Restructuring)
नाइडा द्वारा प्रतिस्थापित अनुवाद-प्रक्रिया को निम्नलिखित आरेख के माध्यम से भलीभाँति समझा जा सकता है :
नाइडा द्वारा प्रतिस्थापित अनुवाद-प्रक्रिया का मूल आधार भाषा विश्लेषण के सिद्धान्त है। उनके मतानुसार पहले सोपान में अनुवादक मूल-पाठ या स्रोत-भाषा का विश्लेषण करता है। नाइडा मूल-पाठ के विश्लेषण के लिए एक सुनिश्चित भाषा सिद्धान्त की बात करते हैं। यह विश्लेषण भाषा के दोनों स्तर, बाह्य संरचना पक्ष तथा आभ्यन्तर अर्थपक्ष पर होता है, जिसमें मूल-पाठ का शाब्दिक अनुवाद तैयार हो जाता है। विश्लेषण से प्राप्त अर्थबोध का लक्ष्य-भाषा में अन्तरण अनुवाद का दूसरा सोपान होता है। यह अन्तरण सोपान में स्रोत-भाषा के सन्देश को लक्ष्य-भाषा की भाषिक अभिव्यक्ति में पुनर्विन्यस्त किया जाता है।
2. न्यूमार्क द्वारा प्रतिस्थापित अनुवाद की प्रक्रिया – नाइडा के अनुवाद प्रक्रिया के प्रारूप पर विचार करने के बाद अब हम न्यूमार्क द्वारा प्रस्तुत अनुवाद प्रक्रिया के प्रारूप पर विचार करेंगे। नाइडा की भाँति ही न्यूमार्क ने भी अनुवाद प्रक्रिया के कुछ सोपान सुझाए हैं। यद्यपि नाइडा एवं न्यूमार्क की दृष्टि में कालभेद के संदर्भ में कुछ अंतर है, फिर भी मूलतः उनमें काफी समानता देखने को मिलती है। चूँकि नाइडा के समय में बाइबिल के ऐसे अनुवादों की अधिकता थी जो अर्थग्रहण के उद्देश्य से भाषा की व्याकरणिक संरचना से संबंधित थे। इसलिए उनकी दृष्टि वहीं तक प्रभावित एवं सीमित रही।
(क) मूलपाठ और अनूदित पाठ का अंतरक्रमिक अनुवाद, अर्थात् शब्द-प्रति-शब्द अनुवाद, और
(ख) मूलपाठ का अर्थबोधन और अनूदित पाठ में उसका अभिव्यक्तिकरण
नाइडा ने जिस सोपान को ‘विश्लेषण’ का सोपान कहा है, न्यूमार्क ने उसे ‘बोधन’ की संज्ञा दी है। न्यूमार्क द्वारा
प्रस्तुत ‘बोधन’ की संकल्पना नाइडा की ‘विश्लेषण’ संकल्पना से इस अर्थ में ज्यादा महत्वपूर्ण हैं कि इसमें मूलपाठ के विश्लेषण से प्राप्त अर्थ के साथ-साथ अनुवादक द्वारा मूलपाठ की व्याख्या का अंश भी विद्यमान रहता है। किसी
भी भाषिक पाठ में ऐसी अनेक उक्तियाँ मौजूद होती हैं जो अनुवाद द्वारा की जाने वाली व्याख्यात्मक टिप्पणी की
माँग करती हैं। इनके अभाव में मूलपाठ का अर्थ न तो पारदर्शी बन पाता है और न ही बोधगम्य। नाइडा की
तुलना में न्यूमार्क की अनुवाद प्रक्रिया संबंधी संकल्पना आधुनिक, व्यापक एवं व्यावहारिक प्रतीत होती है। यही
कारण हैं कि उन्होंने ‘बोधन’ एवं ‘अभिव्यक्तीकरण’ जैसे सोपानों का सुझाव दिया है। यह इसलिए भी महत्वपूर्ण
है क्योंकि न्यूमार्क स्रोत भाषा और लक्ष्यभाषा के पाठों में अनुवाद संबंध स्पष्ट करना चाहते हैं जो कि तुलना एवं
व्यतिरेक के संदर्भ में संभव हो पाता है।


