अनुक्रम
जिस प्रकार शरीर की व्यवस्थता की जाँच डॉक्टर से कराना आवश्यक है, उसी प्रकार लेख-पुस्तकों की जाँच अंकेक्षण से कराना आवश्यक है। डॉक्टर शरीर जाँच के बाद यह प्रमाणित करता है कि शरीर में दोष है या नहीं; यदि है तो किस प्रकार का है, ऐसा रिपोर्ट में लिख देता है। उसी प्रकार लेखा पुस्तकों का डॉक्टर (अंकेक्षण) भी उनके दोषी होने या दोषी ना होने का एक रिपोर्ट देता है। अंकेक्षण से तात्पर्य किसी संस्था की लेखा-पुस्तकों की विशिष्ट एवं आलोचनात्मक जाँच से है जो एक योग्य एवं निष्पक्ष युक्ति के द्वारा प्रमाणकों, प्रपत्रों सूचना तथा स्पष्टीकरणों की सहायता से की जाती है।
अंकेक्षण की उत्पत्ति
अंग्रेजी भाषा का शब्द आडिटिंग (Auditing), जिसका हिन्दी अनुवाद ‘अंकेक्षण’ है, लेटिन भाषा के शब्द आडायर (Audire) से बना है, जिसका अर्थ है सुनना (To hear)। प्राचीन समय में हिसाब-किताब रखने वाले व्यक्ति, अर्थात् लेखपाल, लेखा पुस्तकों को लेकर एक निष्पक्ष व्यक्ति के पास जाते थे तथा हिसाब-किताब उसे सुनाते थे। ये निष्पक्ष व्यक्ति प्राय: न्यायाधीश होते थे तो हिसाब-किताब को सुनकर अपना निर्णय देते थे। इस सुनने की प्रक्रिया को अंकेक्षण (Auditing) तथा सुनने वाले निष्पक्ष व्यक्ति को अंकेक्षक (Auditor) कहा जाने लगा।
- लेखा-पुस्तकें-अंकेक्षक संस्था के हिसाब-किताब की पुस्तकें जिनमें समस्त सौदों का लेखा किया गया है, इनकी प्रविष्टियों की जाँच करके ही अपनी रिपोर्ट देता है।
- योग्य एवं निष्पक्ष व्यक्ति- जाँच का यह कार्य ऐसे निष्पक्ष व्यक्ति द्वारा किया जाए, जो इसके लिए सर्वथा योग्य हो।
- जाँच- लेखा-पुस्तकों में किए गए लेखों की गणितीय शुद्धता नहीं देखी जाती बल्कि ऐसी विशिष्ट एवं आलोचानात्मक जाँच की जाती है जिसके परिणामस्वरूप इन लेखों की वास्तविकता, पूर्णता तथा सत्यता का पता चल सके।
- संस्था-पहले केवल व्यापारिक संस्थाओं को ही अंकेक्षण के दृष्टिकोण से संस्था माना जाता था, जैसा कि ‘स्पाइ एवं पैगलर’ द्वारा दी गई परिभाषा से स्पष्ट है। परन्तु आजकल अंकेक्षण का क्षेत्रा काफी विस्तृत हो गया है अब ऐसी संस्थाओं का अंकेक्षण भी कराया जाने लगा है जो व्यापार नहीं करती जैसे-क्लब, कालेज आदि।
- निश्चित अवधि- अंकेक्षक का कार्य किसी निश्चित अवधि के लेखों के सम्बन्ध में जाँच-पड़ताल करके रिपोर्ट प्रस्तुत करना है। व्यापारिक संस्थाओं में यह अवधि प्राय: एक वर्ष होती है। इस अवधि के सम्बन्ध में बनाये गए लाभ-हानि खाते की जाँच करके यह पता लगाना कि इसमें दर्शाया गया लाभ-हानि खाते की जाँच करके यह पता लगाना कि इसमें दर्शाया गया लाभ-हानि सही है अथवा नहीं।
- प्रमाणक एवं प्रपत्र- अंकेक्षक उन प्रमाण कों को देखता है, जिनके आधार पर लेखा-पुस्तकों में लेखे किए गए हैं। इसके अतिरिक्त वह संस्था का उद्देश्य पत्र-व्यवहार, मिनट-बुक, अन्तर्नियम तथा अन्य कोई भी प्रपत्रा, जो वह जाँच के सम्बन्ध में निरीक्षण, मिलान, परीक्षण, पुनर्निरीक्षण आदि करने हेतु आवश्यक समझता है, देख सकता है।
- सूचना एवं स्पष्टीकरण- यदि अंकेक्षण प्रमाणक या अन्य प्रपत्रा से संतुष्ट नहीं हो सका तो वह अपनी पूर्ण जानकारी हेतु आवश्यक सूचना माँग सकता है तथा अस्पष्ट बातों का स्पष्टीकरण प्राप्त कर सकता है।
- नियमानुकूल- संस्था से सम्बन्धित विशेष अधिनियम तथा देश के विधान के नियमानुकूल संस्था का हिसाब-किताब रखा गया है या नहीं, अंकेक्षण को अपनी रिपोर्ट में इस बात का प्रमाण-पत्रा देना पड़ता है।
- सही एवं वास्तविक आर्थिक स्थिति- निश्चित अवधि के अन्तिम दिन संस्था के चिट्ठे में जो सम्पत्तियाँ एवं दायित्व दिखलाये गए हैं, उनका धन सही है या नहीं। अर्थात उक्त तिथि को संस्था का चिट्ठा संस्था की सही एवं वास्तविक आर्थिक स्थिति दिखलाता है या नहीं।
अंकेक्षण की आवश्यकता
अंकेक्षण, लेखांकन सम्बन्धी प्रपत्रों की जाँच करना है ताकि इनकी सत्यता, पूर्णता एवं नियमानुकूलता का ज्ञान प्राप्त किया जा सके। यह जाँच उस समय और भी अधिक आवश्यक हो जाती है जबकि लेखांकन स्वामी की ओर से अन्य व्यक्तियों द्वारा किया जाता है। आज बैंकिंग सुविधाओं में वृद्धि तथा संवादवाहन के नए-नए साधनों ने विनियोजन तथा व्यवसाय के क्षेत्र को बढ़ा दिया है। स्वाभाविक है कि विनियोजक (Investor) अपने विनियोजन की सुरक्षा चाहेगा। इस उद्देश्य पूर्ति के लिए खातों की विधिवत् जाँच होनी आवश्यक है।
अंकेक्षण के उद्देश्य
अंकेक्षण का प्रमुख उद्देश्य यह पता लगाना है कि किसी संस्था विशेष के लेखे उसकी आर्थिक स्थिति तथा लाभ-हानि का सच्चा तथा उचित प्रदर्शन करते हैं या नहीं।
अंकेक्षण का मुख्य उद्देश्य –
अंकेक्षण के सहायक उद्देश्य –
- भूल की अशुद्धियाँ (Errors of Omision): जब कोई लेन-देन प्रारम्भिक लेखों की पुस्तकों में लिखने से बिल्कुल ही छूट जाता है, तो उसे छूट की अशुद्धि (Errors of Omision) कहते हैं ।
- लेख की अशुद्धियाँ (Errors of Commission): ये त्रुटियाँ लेखा पुस्तकों में गलत लेखा करने से होती हैं। इसके अन्तर्गत गलत लेखा करना, जोड़ लगाना, खतियाना, गणना करना तथा एक पृष्ठ से दूसरे पृष्ठ पर जोड़ या शेष का गलत ले जाना आदि हैं, जैसे-4,1000 रूपयें से लिखा जाए, लेखे की पुस्तकों का जोड़ गलत लगना आदि सम्मिलित हैं। प्राय: ये गलतियाँ तलपट के द्वारा प्रकट हो जाती हैं।
- क्षतिपूरक अशुद्धियाँ (Compensating Errors): ये ऐसी अशुद्धियाँ हैं जो किसी खाते की ओर हो जाती हैं। परन्तु उतनी ही रकम की किसी दूसरे खाते की दूसरी ओर एक ही या कई एक अशुद्धियाँ के हो जाने से उनका प्रभाव समाप्त हो जाता है।
- सैद्धान्तिक अशुद्धियाँ (Errors of Principle): ये वे अशुद्धियाँ हैं जो दोहरा लेखा प्रणाली का ठीक ज्ञान न होने तथा ठीक न समझने के कारण हो जाती है। उदाहरणत: एक व्यक्तिगत खाते की रकम व्यक्तिगत खाते में लिखने की बजाय वास्तविक खाते में लिखने की बजाय अवास्तविक खातें में या अवास्तविक खातें मे लिखने की बजाय किसी अन्य खाते में लिखी जाए।
- दुबारा लिखी जाने वाली त्रुटियाँ (Errors of Duplication): ये त्रुटियाँ प्राय: उस समय उदय होती है जब कोई लेनदेन प्रारम्भिक पुस्तकों में दोबारा लिखा जाता है तथा खाता बही में भी दो बार खाता दिया जाता है। जैसे मान लो राम से 300 रूपये प्राप्त हुए और इसे पुस्तकों में दो बार लिख दिया जाए और दो ही बाद राम के खाते में खता दिया जाए, ऐसी त्रुटि असावधानी के कारण हो जाया करती है।
2. छल-कपट को ढूँढना – अंकेक्षक को इस बात का ज्ञान होना आवश्यक है कि छल-कपट कितने प्रकार का हो सकता है। तभी वह इन सभी संभावित छल-कपटों को ध्यान में रखते हुए अंकेक्षण करेगा। छल-कपट निम्नलिखित प्रकार का होता है-
1. वाणिज्य सम्बन्धी कपट – कपट कई प्रकार से किए जा सकते हैं किन्तु जो कपट व्यवसाय के सम्बन्ध में किये जाते हैं वे वाणिज्य सम्बन्धी कपट कहलाते हैं। ये कपट दो प्रकार के हो सकते हैं-
- मालिक की राय से किए जाने वाले कपट-इसके अन्तर्गत हिसाब-किताब में गड़बड़ की जाती है।
- बिना मालिक की राय के किए जाने वाले कपट, जैसे रोकड़ का गबन और माल का गबन आदि।
3. त्रुटियों तथा छल-कपट को रोकना – अंकेक्षण त्रुटियों तथा छल-कपट को पूर्णतया रोक नहीं सकता है, परन्तु उसकी जाँच के भय के कारण इनमें कमी अवश्य हो जाती है। अत: यह आवश्यक है कि अंकेक्षक उन समस्त बेईमानियों एवं गड़बड़ियों को ध्यान में रखें, जिनके कारण खाते अशुद्ध कर दिये जाते हैं। उसे तर्कपूर्ण प्रश्न करने चाहिए और खातों का अन्वेषण उचित रूप से करना चाहिए। त्रुटियों एवं कपट को कम करने के लिए आन्तरिक निरीक्षण की प्रथा अत्यंत लाभदायक हो सकती है।
अंकेक्षण के अन्य उद्देश्य
इस उद्देश्य के अन्तर्गत अंकेक्षण के उद्देश्य आते हैं जो वास्तव में परोक्ष होते हैं। कभी-कभी मालिक अपने यहाँ कर्मचारियों में सुधार की दृष्टि से भी अंकेक्षण कराता है। इस प्रकार के उद्देश्यों की सुविधा की दृष्टि से अन्य उद्देश्यो के शीर्षकों में रखा जाता है। श्रेणी में आने वाले उद्देश्यों का वर्णन है-
- कर्मचारियों पर नैतिक प्रभाव डालना (Moral Effects on Employees): अंकेक्षक का एक उद्देश्य यह भी है कि अंकेक्षण के आने से कर्मचारियों पर नैतिक प्रभाव पड़ेगा, जिसके फलस्वरूप त्रुटियाँ और कपट कम होगें तथा कर्मचारियों में सत्यता एवं ईमानदारी से कार्य करने की आदत पड़ेगी और इस प्रकार भविष्य में कार्य सुचारू रूप से और सरलतापूर्वक चलाया जा सकेगा।
- सरकारी अधिकारियों को संतुष्ट करना (Satisfaction to the Government Official): अंकेक्षक अपनी रिपोर्ट में कोई भी विपरीत बात न लिखते हुए यह प्रमाणित कर देता है कि संस्था का लाभ-हानि खाता सम्बन्धित अवधि के सम्बन्ध में ठीक है तथा चिट्ठा उक्त अवधि की अन्तिम तिथि की संस्था की सही एवं वास्तविक आर्थिक स्थिति प्रकट करता है, तो किसी भी सरकारी विभाग का अधिकारी उस हिसाब-किताब पर शीघ्रतापूर्वक विश्वास कर लेता है और छान-बीन करने का प्रयत्न नहीं करता क्योंकि अंकेक्षण को एक योग्य, निष्पक्ष तथा ईमानदार व्यक्ति समझा जाता है।
- वैधानिक आवश्यकताओं को पूरा करना (To fulfill the Legal Requirement): कम्पनी अधिनियम द्वारा कम्पनियों के लेखाकर्म का अंकेक्षण कराना आवश्यक कर दिया गया है। अत: कम्पनी के लखाकर्म के लेखाकर्म के अंकेक्षण का उद्देश्य कम्पनी अधिनियम की अंकेक्षण सम्बन्धि व्यवस्थाओं का पालन करना भी है। आजकल तो साझेदारी फर्म तथा सरकारी संस्थाएं भी अपनी आर्थिक स्थिति ज्ञात कराने के लिए अंकेक्षण कराती है।
अंकेक्षण का क्षेत्र
अंकेक्षण हिसाब-किताब की पुस्तकों की गहन जाँच है। पुस्तकों की जाँच करने वाले एक निष्पक्ष अंकेक्षक को हिसाब-किताब तैयार करने में की गई अशुद्धियो का पता चलाना होता है और आर्थिक एवं वित्तीय लेखों की सत्यता को प्रमाणित करना होता है यह निश्चित है कि यदि सत्यापन ठीक प्रकार से न किया जाए तो लेखों के परिणामों पर विश्वास नहीं किया जा सकता है। इसी कारण नियमित अंकेक्षण की विधि उत्तम कही जाती है। हिसाब-किताब की अनियमिततायें एवं अशुद्धियाँ विभिन्न प्रकार की हो सकती है तथा उनके सम्पन्न होने के कारण भी बहुत से हो सकते हैं। कुछ भी हो, अंकेक्षक का यह उत्तरदायित्व हो जाता है कि वह इन अनियमितताओं को प्रकाश में लाये। प्राचीनकाल में अंकेक्षक का क्षेत्रा रोकड़ बही की जाँच तक ही सीमित था, क्योंकि सौदे तथा लेन-देन प्राय: नकद हुआ करते थे। परन्तु वर्तमानकाल में सौदे बहुत बढ़ गये हैं, उधार में लेन-देन होने लगा है, व्यापार तथा यातायात में पर्याप्त उन्नति हुई है, श्रम विभाजन तथा विशिष्टीकरण का अधिकाधिक प्रयोग होने लगा है और उद्योग-धन्धे एकाकी व्यापारी तथा साझेदारी के साथ-साथ बड़ी-बड़ी कम्पनियों द्वारा भी चलाये जा रहे हैं। अत: अंकेक्षक का क्षेत्रा बहुत विस्तृत हो गया है।
अंकेक्षक के लाभ
कम्पनी विधान के अन्तर्गत कम्पनियों के अंकेक्षण को अनिवार्य बना दिया गया है इससे स्पष्ट है कि अंकेक्षण का महत्व केवल कम्पनी के लिए नहीं हैं बल्कि प्रत्येक व्यवसाय के लिए इसका महत्व है। व्यवहार में देखा जाता है कि ऐसे व्यवसायी भी जिनके लिए अंकेक्षण कराना अनिवार्य नहीं है अपने खातों का अंकेक्षण कराते हैं। अंकेक्षण के अंकेक्षण के प्रमुख लाभ तो वही है जो उद्देश्यों से बताए गए हैं। इसके अतिरिक्त इस के सामान्य लाभ है:-
- उचित एवं विश्वसनीय लेखों का होना: अंकेक्षक के द्वारा हिसाब-किताब को लेखाकंन के सिठ्ठान्तों के अनुसार रखा जाता है तथा अंकेक्षण के डर से लेखा पुस्तकें उचित व ठीक ढंग से रखी जाती हैं।
- व्यापार की सही स्थिति का ज्ञान: अंकेक्षण द्वारा सामान्यत त्रुटियाँ व कपट पकड़ जाते हैं जिससे संस्था का लाभ-हानि खाता व चिट्ठा संस्था की सही दशा का चित्रण करता है।
- अनुशासन बनाए रखना: समय-समय पर अंकेक्षक होने से कर्मचारी अनुशासन बनाए रखते हैं और प्रत्येक कार्य को विधिपूर्वक करते हैं जिससे कि अंकेक्षक उन के कार्यों में दोष न निकाल सके।
- व्यापार के विक्रय में सहायक: व्यापार के विक्रय के समय अंकेक्षण खातों द्वारा विक्रय मूल्य निकालना बड़ा ही विश्वसनीय व आसान होता है और क्रेता को क्रय करने में कोई हिचक नहीं होती।
- भ्रष्टाचार समाप्त करना: पैसा भ्रष्टाचार को बढ़ावा देता है। यदि अंकेक्षण न हो तो कर्मचारी पैसे व माल का अधिक गबन कर सकते हैं किन्तु अंकक्षेण के डर से हिम्मत नहीं होती कि वे गबन करने का साहस कर सकें। इस प्रकार भ्रष्टाचार समाप्त होता है।
- लेखों में सुधार के सुझाव देना: समय-समय पर अंकेक्षण अपने नियोक्ता को पुस्तपालन व लेखांकन के सम्बन्ध में सुझाव देता रहता है जिससे कि त्रुटियाँ व गबन न हो सके। इसके अतिरिक्त अंकेक्षक आर्थिक व अन्य मामलों पर भी सलाह देता रहता है।
- कर्मचारियों व प्रबन्धकों को सावधान करना: अंकेक्षण के डर से कर्मचारी व प्रबन्धक सावधान रहते हैं और कोई भी गलत कार्य या लापरवाही करने का साहस नहीं कर पाते। इससे कर्मचारियों की कार्यक्षमता में वृठ्ठि होती है। 8ण् ख्याति का बढ़ना: जो संस्थाएँ अपने लेखों का अंकेक्षण कराती है उनक लेखों पर जनता को विश्वास होता है जिससे संस्था की ख्याति बढ़ जाती है। ख्याति बढ़ने से संस्था को ऋण आदि प्राप्त करने में बहुत सुविधा रहती है।
- सच्चाई एवं ईमानदारी का प्रमाण-पत्र: अंकेक्षक एक सच्चा व ईमानदार व्यक्ति होता है। यह अपनी रिपोर्ट द्वारा दूसरे व्यक्तियों को यह विश्वास दिलाता है कि संस्था के लेखे सही एवं उचित हैं। अंकेक्षक संस्था के लेखों की सच्चाई व ईमानदारी का प्रमाण-पत्रा देकर उसकी साख को बढ़ाता है।
अंकेक्षण के प्रकार
ऐच्छिक अंकेक्षण
ऐच्छिक अंकेक्षण से तात्पर्य एक ऐसे अंकेक्षण से है जो पूर्णत: विनियोक्ता की इचछा पर निर्भर करता है तथा जिसे करवाने के लिए वह किसी विधान द्वारा बाध्य नहीं है। ऐसे अंकेक्षण को निजी अंकेक्षण के नाम से भी पुकारते है। उदाहरण के लिए एकाकी व्यापार, साझेदारी तथा अन्य व्यक्ति व संस्थाएँ।
वैधानिक अंकेक्षण
जिस संस्था के हिसाब-किताब का अंकेक्षण अनिवार्यत: किसी विधान के अन्तर्गत कराया जाता है उसे वैधानिक अंकेक्षण कहते हैं जैसे कम्पनी, सार्वजनिक ट्रस्ट, बैंक आदि का अंकेक्षण। इस प्रकार के अंकेक्षण में अंकेक्षण का कार्यक्षेत्र अंकेक्षण की योग्यता व अयोग्यता, अंकेक्षण के अधिकार एवं कर्त्तव्य विधान द्वारा निश्चित किए जाते है जिन्हें आपसी समझौते द्वारा बढ़ाया तो जा सकता है किन्तु कम नहीं किया जा सकता।
सरकारी अंकेक्षण
सरकार अपने विभागों तथा अपने द्वारा संचालित अन्य संस्थाओं के हिसाब-किताब की जाँच करवाती है। इसे सरकारी अंकेक्षण कहते है। भारत में राष्ट्रपति द्वारा कम्प्ट्रोलर एण्ड आडिटर जनरल (Comptroller and Auditor General) की नियुक्ति की जाती है, जो अपने कर्मचारियों द्वारा केन्द्र सरकार के विभिन्न विभागों तथा संस्था के लेखों की जाँच कराता है। अंकेक्षक की भाँति जाँच के बाद सरकार के समझ रिपोर्ट प्रस्तुत की जाती है। इसके अतिक्ति राज्य सरकारों के भी अपने अंकेक्षण विभाग होते है, जो सम्बनिधत राज्य सरकार के विभागों तथा संस्थाओं के लेखों की जाँच करके राज्य सरकार को रिपोर्ट देते है। भारत के राष्ट्रपति ने 28 मार्च 1958 को एक विशेष आदेश निकालकर भारत के कम्प्ट्रोलर और आडीटर जनरल की सीमा को कश्मीर तक बढ़ा दिया है, अर्थात् अब कश्मीर भी कम्प्ट्रोलर और आडीटर के कार्यक्षेत्र (Jurisdiction) में आ गया है।
व्यावहारिक अंकेक्षण
व्यावहारिक अंकेक्षण को सुविधा की दृष्टि से दो भागों में बाँटा जा सकता है-(अ) आन्तरिक अंकेक्षण (ब) बाहर अंकेक्षण।
आतरिक अंकेक्षण
बाहर अंकेक्षण
- पूर्ण अंकेक्षण : यह वह अंकेक्षण होता है जिसके अन्दर समस्त लेखा पुस्तकें, प्रमाण-पत्र खाते जोड़ घटाना आदि सभी व्यवहारों का परिक्षण किया जाता है। इस प्रकार का अंकेक्षण केवल ऐसी संस्थाओं में ही हो सकता है जो छोटी हों। बड़े पैमाने के व्यवसायों में इस प्रकार का अंकेक्षण सम्भव नहीं है। किन्तु ऐसे व्यपारों में भी पूर्ण अंकेक्षण आवश्यक है जिनका अभी तक अंकेक्षण न हुआ हों।
- आंशिक अंकेक्षण : यदि नियोक्ता सम्पूर्ण खातों की जाँच न करवाकर केवल किसी विशेष भाग का ही अंकेक्षण करवाता है तो इस प्रकार के अंकेक्षण को आंशिक कहते है। जैसे-कवल क्रय-विक्रय बही का अंकेक्षण कराना। इस प्रकार के अंकेक्षण की रिपोर्ट देते समय अंकेक्षक इस बात को स्पष्ट कर देता है यह रिपोर्ट केवल एक निश्चित भाग के सम्बन्ध में है। यदि अंकेक्षक ऐसा नहीं लिखता तो जो भी व्यक्ति अंकेक्षक की रिपोर्ट पर संस्था से अनुबन्ध करता है उसके लिए अंकेक्षक उत्तदायी होता है।
- समयानुसार आंशिक अंकेक्षण-पूरे व्यापारिक वर्ष की अपेक्षा तीन मास छ: मास आदि के हिसाब का अंकेक्षण कराया जाना, समयानुसार आंशिक अंकेक्षण कहलाता है।
- कार्योनुसार आंशिक अंकेक्षण- जब समस्त लेखा-पुस्तकों की बजाय केवल रोकड़ बही या अन्य किसी लेखा-पुस्तक का अंकेक्षण कराया जाये, यह कार्योनुसार आंशिक अंकेक्षण कहलाता है।
चालू अंकेक्षण –
- अधिक मात्रा में सौदे-जिन संस्थाओं में व्यापारिक सौदे बड़ी मात्रा में होते है वहाँ पर साथ-साथ इनकी जाँच कराते रहने से अशुद्धि तथा छल-कपट की सम्भावनाएँ कम हो जाती हैं।
- अपर्याप्त आन्तरिक निरीक्षण-यदि संस्था की आन्तरिक निरीक्षण प्रणाली संतोषप्रद नहीं है, तो चालू अंकेक्षण के द्वारा जाँच कार्य साथ-साथ होता रहता है।
- अन्तिम खाते शीघ्र बनाना- बैक, कम्पनी तथा बिजली कम्पनी आदि में अन्तिम खातों को तैयार करके शीघ्र प्रस्तुत करना पड़ता है। चालू अंकेक्षण से यह सम्भव हो जाता है।
- गहन जाँच की आवश्यकता- यदि किसी कारणवश गहन जाँच करवानी आवश्यक हो, चालू अंकेक्षण अपनाकर करवाई की जा सकती है।
समायिक अंकेक्षण –
निपुणता/प्रबन्ध अंकेक्षण –
रोकड़ अंकेक्षण
लागत अंकेक्षण
विस्तृत अंकेक्षण
प्रमाणित अंकेक्षण
मध्य अंकेक्षण या अन्तरिम अंकेक्षण
अंकेक्षण की सीमाएँ
अंकेक्षक की नियुक्ति हिसाब-किताब की जाँच करके उसके सम्बन्ध में यह प्रमाणित करने के लिए की जाती है कि संस्था के लेखे नियमानुसार बनाए गए हैं तथा लाभ हानि खाता और चिट्ठा संस्था की सही एवं वास्तविक आर्थिक स्थिति प्रकट करते है। अंकेक्षक अपनी पूरी योग्यता, चतुराई तथा उचित सावधानी से अपना कार्य करता है। यदि उसे अंकेक्षण के दौरान किसी विपरित बात का पता नहीं चलता, तो वह लोखों, लाभ-हानि खाना तथा चिट्ठे की सत्यता एवं औचित्यता को प्रमाणित कर देता है।
पूरी कुशलता से जाँच करने के बाद अंकेक्षित हिसाब-किताब में अशुद्धियाँ तथा छल-कपट सामने आने से छूट सकते हैं। अत: अंकेक्षित हिसाब-किताब पर विश्वास करके निर्णय लेने वालों को चाहिए कि अंकेक्षण की सीमाओं को ध्यान में रखें, जो हैं-
- अंकेक्षण शत-प्रतिशत शुद्धता की गारन्टी नहीं है- साधारणतया अंकेक्षण कार्य बड़ी संस्थाओं के द्वारा ही कराया जाता है, जिनमें काफी अधिक संख्या में व्यवहार होते है। इन समस्त व्यवहारों की गहन जाँच करना अंकेक्षण के लिए सम्भव नहीं है और न ही समय तथा धन के व्यय के दृष्टिकोण से व्यावहारिक है। अत: अंकेक्षण जाँच का सहारा लेता है। परीक्षण जाँच में अशुद्धियाँ तथा कपट सामने जाने से छूट सकते है।
- अंकेक्षण से सभी छल-कपट प्रकट होना आवश्यक नहीं हौ- अंकेक्षक अपनी योगतानुसार उचित सावधानी, चतुराई एवं ईमानदारी से अंकेक्षण करता है। यदि कोई कपट उसके सामने नहीं आता, तो वह लेखों को सत्य प्रमाणित कर देता है। संस्था के उच्च प्रबन्धकों अथवा विश्यासपात्रा उच्च कर्मचारियों द्वारा जान बूझकर योजनाबठ्ठ तरीके से किए गए छल-कपट अंकेक्षक की पकड़ में आने से छूट जाते हैं।
- अंकेक्षण संस्था के कर्मचारियों की ईमानदारी का प्रमाण नहीं है- यदि संस्था में आन्तरिक निरिक्षण प्रणाली आपनाई गई है तो एक कर्मचारी द्वारा किए गए कार्य की जाँच दूसरे कर्मचारी द्वारा की जाती है। अंकेक्षक परिक्ष्ण-जाँच का सहारा लेकर, लेखें के सत्य प्रमाणित कर देता है। आन्तरिक निरिक्षण प्रणानी में भी दो या अधिक कर्मचारी मिलकर कपटकर सकते हैं, जो अंकेक्षण के दौरान सामने नहीं आ पाता। अत: अंकेक्षण हो जाने का यह अर्थ नहीं है कि संस्था के कर्मचारियों ने उस अवधि में ईमानदारी से कार्य किया ही है।
- अंकेक्षक छोटी बातों पर ध्यान नहीं देता- अंकेक्षक अत्यन्त छोटे व्यवहारों अथवा संस्था के निम्न श्रेणी के कर्मचारियों ,ारा किए एग व्यवहारों पर विशेष ध्यान नहीं देता। वह केवल लाभ-हानी खते तथा चिट्ठे से सम्बान्धित व्यसहारों पर ही पूर्ण ध्यान देता है। अत: यह सम्भव है कि कुछ छोटी-छोटी अनियमितताएँ अंकेक्षण के बावजूद रह जाएँ।
- अंकेक्षक व्यवआरें के व्यापारिक औजित्य को नहीं समझाता- अंकेक्षक व्यवहारों के वैधनिक औचित्य की जाँच करता है। अर्थात व्यवहार वास्तव में हुए हैं, व्यापार से सम्बान्धित हैं, अधिकृत हैं तथा उचित लेखे किए गऎ। अंकेक्षक व्यवहारों के व्यापारिक औचित्य को नहीं समझ पाता क्योंकि वह विभिन्न प्रकार के कार्य करने पाली संस्थाओं के लेखें की जाँच करता है और उन सब व्यपारों के व्याहारें के प्रकृति का ज्ञान उसे होता आवश्यक नहीं है। अर्थात अंकेक्षक वह प्रमाणित नहीं कर सकता कि व्यवहार व्यामारिक दृष्टिकोण से उचित है या नहीं।
- अंकेक्षक की राय इेश्वरीय घेषणा नहीं होती- संस्था के हिसाव-किताब के बारे में अंकेक्षक केवल अपनी राय प्रकट करता है। उसके द्वारा लाभ-हानि खाता तथा चिट्ठे के बारे में सही होने की राय देने का यह अर्थ नहीं हो कि यह सक अन्तिम घोषणा है और इस घेषणा के होने पर लेखों में गड़बड़ी नहीं हो सकती।
- भारत में अंकेक्षक को व्यावहारिक स्वतंत्रता नहीं है- वैसे तो अंकेक्षक के अधिकार, कर्त्तव्य तथा दायित्व कम्पनी विधन के द्वारा निश्चित होते है और इनके अनुसार अंकेक्षक को एक स्वतन्त्रा व्यक्ति माना गया है। परन्तु व्यवहार में कम्पनी का प्रबन्ध करने वाले व्यक्ति अपने आदपियों को ही कम्पनी का अंकेक्षक नियूक्त कराते है। अत: अंकेक्षक कम्पनी के प्रबन्धकों के प्रभाव में रहता है तथा पूर्णरूप से निष्पक्ष जाँच नहीं कर पता।