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समायोजन को सामंजस्य, व्यवस्थापन या अनुकूलन भी कहते हैं। व्यक्ति को सफल जीवन व्यतीत करने के लिए अपने वातावरण और परिस्थितियों के साथ समायोजन स्थापित करना आवश्यक हो जाता है। व्यक्ति के जीवन में अनेक प्रकार की अनुकूल एवं प्रतिकूल परिस्थितियाँ आती रहती हैं, जिनका उसे समय-समय पर सामना करना पड़ता है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी अलग-अलग क्षमता के अनुसार समायोजन करने का प्रयत्न करते हैं कुछ व्यक्ति प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करने में सफल होते हैं तो कुछ व्यक्ति हार मानकर अपना मानसिक संतुलन खो बैठते हैं। इस प्रकार के व्यक्ति तनाव का शिकार बने रहते है। ये बातें शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करती है।
समायोजन का अर्थ
समायोजन की परिभाषा
1. बोरिंग, लैंगफील्ड एवं वैल्ड के अनुसार, ‘’समायोजन वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं और इन आवश्यकताओं की पूर्ति को प्रभावित करने वाली परिस्थितियों में संतुलन बनाए रखता है।’’
समायोजन की आवश्यकता
- मानसिक कष्ट और व्याधियों से अपने को दूर रखने के लिए।
- अपने मन और मस्तिष्क को व्यर्थ के चिंतन सें दूर रखने के लिए।
- ध्यान की एकाग्रता बनाये रखने के लिए ।
- विभिन्न गतिविधियों और कार्यकलापों में सक्रिय और उत्साहपूर्वक भाग लेने के लिए।
- पलायन करना, चुनौती देना जैसी कुप्रवृत्तियों को न पनपने देने के लिए।
- जीवन में शौक पैदा करने के लिए।
- अपने काम के प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण विकसित करने के लिए।
- जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अधिकतम उपलब्धि प्राप्त करने के लिए।
समायोजन का विकास
मन के अनुसार, ‘‘निरंतर रहने वाली चिंता शारीरिक और मानसिक रूप से कष्टदायी होती है, यहाँ पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि किसी भी प्रकार की असफलता विद्यार्थियों में निराशा उत्पन्न करती है निराशा के द्वारा मानसिक संघर्ष उत्पन्न होता है और मानसिक संघर्ष की निरंतरता तनाव को उत्पन्न कर देती है।’’ अत: समायोजन अषान्ति उत्पन्न हो सकती है।
- किसी प्रकार की समस्या का सामना करने के लिए प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।
- निराशा और असफलताओं का सामना करने के लिए प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।
- विशेष शिक्षा एवं दीक्षा का प्रबंध होना चाहिए।
- मार्गदर्शन की व्यवस्था हो ताकि वे वैयक्तिक, शैक्षिक, व्यावसायिक चिंताओं का सही समाधान कर सकें।
- वातावरण में आपसी तनाव को प्रेम तथा सौहार्द के साथ दूर करना चाहिए।
- जीवन का उद्देश्य और वे भविष्य में क्या बनेंगे, बता देना चाहिए ताकि उनके मन से असुरक्षा की भावना निकल सके।
- माता-पिता को बच्चों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, इसका ज्ञान समय-समय पर अध्यापक संरक्षण गोष्ठी के माध्यम से समझना चाहिए ताकि बालकों के प्रति स्वयं के कर्तव्य को वे अधिक अच्छे तरीके से समझ सकें।
समायोजन प्रक्रिया
‘‘तनाव तथा आवश्यकताओं के साथ व्यवहार करने के व्यक्तिगत प्रयासों का परिणाम समायोजन है तथा समायोजन एक प्रक्रिया है, जिसमें कोई व्यक्ति तनाव अंदरूनी विरोधों के साथ व्यवहार करने का प्रयास करता है तथा अपनी आवश्यकताओं को पूरा करता है, इस प्रक्रिया में वह अपने वातावरण के साथ सहयोगी संबंध बनाने का प्रयत्न भी करता है।’’
समायोजन की विशेषताएं
समायोजन करने वाले व्यक्ति में विभिन्न विशेषताएं होती हैं। इन्हीं विशेषताओं का अध्ययन इस प्रकार से किया गया है :
- ये पूर्णतया संतुलित रहते हैं। इनके स्पष्ट उद्देश्य होते हैं।
- ये अपनी समस्या का समाधान स्वयं कर लेते हैं।
- इन्हें हमेशा परिस्थिति का ज्ञान होता हैं।
- ये अपनी उपलब्धियों से संतुष्ट एवं सुखी रहने वाले होते हैं।
- ऐसे व्यक्ति समाज के प्रत्येक व्यक्ति का ध्यान रखने वाले होते हैं।
- ये संवेगात्मक रूप से स्थिर होते है।
- ये व्यक्ति अपनी योग्यता के अनुसार कार्य करते हैं।
- ऐसे व्यक्ति अपनी गल्तियों का दोषारोपण दूसरों पर नहीं करते।
समायोजन के प्रकार
दूसरे वर्गीकरण के अनुसार समायोजन चार प्रकार के होते हैं। इन्हें निम्न प्रकार से बतलाया गया है :
समायोजन की विधियाँ या तरीके
- प्रत्यक्ष विधि (Direct Method), एवं
- अप्रत्यक्ष विधि (Indirect Method)।
1. प्रत्यक्ष तरीके – समायोजन की प्रत्यक्ष विधि में तीन सह-विधियाँ शामिल हैं जो कि आक्रमण, समझौता, परिस्थितियों से दूर भाग जाना। व्यक्ति किसी समस्या को सुलझाने में क्रोध या परिस्थितियों से समझौता का सहारा लेता है। यदि व्यक्ति उद्देश्य प्राप्ति के मार्ग में आ रही बाधाओं को दोनों तरीकों से दूर नहीं कर पाता है तो वह परिस्थितियों से पृथक हो जाता है और वह इस प्रकार से कुंठा या तनाव को दूर करता है।
- दमन (Suppression) : दमन एक ऐसी रक्षायुक्ति है जिसके द्वारा व्यक्ति अपने कष्टपूर्ण अनुभवों, विचारों आदि का अचेतन रूप में दमन करता है। इस रक्षायुक्ति द्वारा अनगिनत इच्छाएँ, घटनाएँ व दुखद अनुभव स्वत: ही व्यक्ति के चेतना क्षेत्र से निकलकर अचेतन क्षेत्र में चले जाते हैं, इसके कारण व्यक्ति की संघर्षपूण स्थिति का समाधान हो जाता है।
- प्रतिगमन (Regression) : इससे व्यक्ति अपने अतीतकालीन सफल प्रयासों की ओर लौटता है दबावयुक्त परिस्थितियों का सामना करने में असमर्थ होने पर व्यक्ति कम परिपक्व व्यवहार प्रदर्शित करता है, जैसे-प्रौढ़ व्यक्ति कभी-कभी हाथ पैर पटकने लगता है।
- शोधन/उदात्तीकरण (Sublimation) : इसमें व्यक्ति अपने क्षेत्र में अपने संवेग को अन्य किसी कार्य से सम्बद्ध कर लेता है। इस युक्ति के माध्यम से अवांछित इच्छाओं को स्थान्तरित कर दिया जाता है, जैसे- व्यक्ति की काम प्रवृित्त कला या संगीत की ओर मुड़ जाती है।
- प्रक्षेपण (Projection) : इसमें व्यक्ति अपनी असफलता के लिए दूसरों को दोषी ठहराकर अपने मानसिक तनाव को कम करता है, जैसे-परीक्षा में असफल होने पर परीक्षाथ्र्ाी कहते हैं कि प्रश्नपत्र कठिन था।
- तादात्म्य स्थापित करना (Identification) : तादात्मीकरण की प्रवृित्त्ा लगभग सभी व्यक्तियों में पायी जाती है। व्यक्ति अपनी कमजोरियों को छिपाने के लिए किसी बड़े व्यक्ति या नेता या अध्यापक की भूमिका का निर्वाह करता है और उनके साथ एक हो जाने की चेष्टा करता है।
- औचित्य स्थापना (Rationalisation) : इसे युक्तिकरण के नाम से जाना जाता है। इस मानसिक प्रक्रिया में व्यक्ति अपनी असफलता के लिए वास्तविक कारणों के स्थान पर झूठे कारण बताता है। यह युक्ति ‘‘लोमड़ी को अंगूर न मिलने पर खट्टा’’ बताना कहावत पर आधारित है।
- क्षतिपूर्ति (Compensation) : इसमें व्यक्ति एक क्षेत्र में अपनी किसी कमी की क्षतिपूर्ति किसी दूसरे क्षेत्र में करता है उदाहरण के लिए, पढ़ाई में कमजोर छात्र खेलकूद या कला के क्षेत्र में परिश्रम कर अपनी कमी को पूरा करता है।
- विस्थापन (Displacement) : इस रक्षायुक्ति में किसी विचार, वस्तु या व्यक्ति से संबंधित संवेग किसी अन्य विचार वस्तु या व्यक्ति पर स्थानांतरित हो जाता है।
- पलायन (Withdrawal) : जब व्यक्ति किसी समस्या या परिस्थिति से अपने को दूर कर लेता है या फिर इस प्रकार किसी समस्या का समाधान करने के स्थान पर उस समस्या से ही दूर भाग जाना पलायन कहलाता है।
- दिवा-स्वप्न (Day Dreaming) : यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें कोई व्यक्ति वर्तमान के सुखों को न भाोगकर काल्पनिक संसार में विचरण करने लगता है। दिवा स्वप्नों के माध्यम से व्यक्ति अपनी असफलता को सफलता के रूप में देखने की कल्पना करता है। इससे उसे कुछ संतोष एवं सुख की प्राप्ति होती है और उसके मानसिक तनाव में कुछ कमी आती है।
सुसमायोजित व्यक्ति के लक्षण
समायोजन की परिभाषाओं के आधार पर तथा व्यवहारों के निरीक्षण से सुसमायोजित व्यक्ति में अग्रलिखित लक्षण दिखाई पड़ते हैं-
- सुसमायोजित व्यक्ति पर्यावरण और परिस्थितियों का ज्ञान और नियंत्रण रखने वाला तथा उन्हीं के अनुकूल आचरण करने वाला होता है।
- वह स्वयं तथा पर्यावरण के बीच संतुलन बनाये रखता है।
- वह अपनी आवश्यकता एवं इच्छा के अनुसार पर्यावरण एवं वस्तुओं का लाभ उठाता है।
- अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए समाज के अन्य लोगों को बाधा नहीं पहुँचाता है।
- साधारण परिस्थितियों में भी सन्तुष्ट और सुखी रहकर अपनी कार्य-कुशलता को बनाये रखता है।
- सामाजिकता की भावना से युक्त, आदर्श चरित्रा वाला, संवेगात्मक रूप से संतुलित और उत्तरदायित्व स्वीकार करने वाला होता है।
- वह स्पष्ट उद्देश्य वाला तथा साहसपूर्ण व ठीक ढंग से कठिनाइयों तथा समस्याओं का सामना करने वाला होता है।
इसी प्रकार गेट्स एवं अन्य विद्वानों ने लिखा है कि संक्षेप में, सुसमायोजित व्यक्ति वह है जिसकी आवश्यकताएँ एवं तृप्ति सामाजिक दृष्टिकोण तथा सामाजिक उत्तरदायित्व की स्वीकृति के साथ संगठित हों।
कुसमायोजित व्यक्ति के लक्षण
कुसमायोजित व्यक्ति को निम्नलिखित लक्षणों द्वारा पहचाना जा सकता है-
- कुसमायोजित व्यक्ति अपने को पर्यावरण के अनुकूल बनाने में असमर्थ होता है।
- वह अनिश्चित मन वाला, अस्थिर बुद्धि वाला, संवेगात्मक रूप से असंतुलित, अनिर्दिष्ट उद्देश्य वाला, घृणा, द्वेष और बदले की भावना वाला होता है।
- वह असामाजिक, स्वार्थी और सर्वथा दुःखी होता है।
- वह साधारण-सी बाधा एवं समस्या उत्पन्न होने पर मानसिक संतुलन खो देने वाला होता है।
- स्नायु रोगों से पीडि़त, मानसिक द्वन्द्व एवं कुण्ठा से ग्रस्त तथा तनावयुक्त होता है।
उपर्युक्त लक्षणों से हमने देखा है कि कुसमायोजित व्यक्ति मानसिक द्वन्द्व एवं कुण्ठा से युक्त होता है। वास्तव में यह दोनों ही व्यक्ति के समायोजन में अधिक बाधक होते हैं। अतः संक्षेप में, इन दोनों का अर्थ, कारण और इनके दुष्परिणामों को समझ लेना श्रेयस्कर है।
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