अनुक्रम
श्री लाल शुक्ल का व्यक्तित्व अपने-आप में मिसाल था। सहज लेकिन विद्धान, अनुशासनप्रिय लेकिन अराजक। श्रीलाल शुक्ल ‘अंग्रेजी, उर्दू, संस्कृत और हिन्दी भाषा के विद्वान थे। श्री लाल शुक्ल संगीत के शास्त्रीय और सुगम दोनों पक्षों के रसिक सर्मज्ञ थे। कथाक्रम समारोह समिति के वह अध्यक्ष रहे। श्री लाल शुक्ल ने गरीबी झेली और संघर्श किया, मगर उसके विलाप से अपने लेखन को नहीं भरा। इन्हें नई पीढ़ी भी सबसे ज्यादा पढ़ती है। वे नयी पीढ़ी को सबसे अधिक समझने वाले साहित्यकारों में से एक रहे हैं। न पढ़ने और लिखने के लिए लोग सैद्धान्तिकी बनाते हैं। श्रीलाल शुक्ल जी का लिखना और पढ़ना रुका तो स्वास्थ्य के गंभीर कारणों के चलते।
अतरौली में उनके वंश के अनेक परिवार थे, जिनमें दो सम्पन्न परिवार के थे, बाकी के परिवार बहुत गरीब थे। शुक्ल जी का परिवार अपनी गरीबी के होते हुए भी पिछली तीन पीढ़ियों से पठन-पाठन की परम्परा से जुड़ा हुआ था। लेखक स्वयं कहते हैं- ‘‘बचपन से लेकर सन् 1948 तक जब मुझे विपन्नता के कारण एम0 ए0 और कानून की पढ़ाई छोड़नी पड़ी, गरीबी और शिक्षा तथा साहित्य के प्रति अदम्य आग्रह इन तत्वों के द्वारा मेरे व्यक्तित्व का संस्कार होता रहा।’’ गाँव में जमींदारी व्यवस्था थी। गाँव में अलग से जातियों की अपनी-अपनी परम्पराएं, अपने तौर तरीके थे। गंदी गलियों, रास्ते आदि थे और एक भी पक्का मकान नहीं था। इसी गाँव में श्री लाल शुक्ल जी का दो भाइयों तथा दो बहनों के बीच बचपन बीता।
श्री लाल शुक्ल की शिक्षा
श्री लाल शुक्ल जी ने बी0ए0 के बाद कुछ समय तक कान्यकुब्ज वोकेशनल इन्टर कालेज लखनऊ में अध्यापन कार्य किया। उसके बाद सन् 1949 में स्टेट सर्विस में नियुक्ति मिली। बाद में आई0 ए0 एस0 में पदोन्नति मिली। नौकरी करते समय ‘‘वह उन अधिकारियों में नहीं थे जो न मोटर के नीचे पैर रखना चाहते थे, न ही सड़क के नीचे उतरना। मीलों पैदल चलना हो या घंटों धूप में खड़े रहना हो सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। पद से मिलने वाले लाभों के वह गुलाम नहीं थे। परिश्रम, ईमानदारी, शीघ्र निर्णय तथा पै्रक्टिकल एप्रोच के कारण प्रशासन में नाम था, धाक थी, साख थी। हाजिरी बजाना स्वभाव में नहीं था। काम ही उनकी हाजिरी थी, वही दरबार था, वही खुशामद थी।’’
श्री लाल शुक्ल जी जब कान्यकुब्ज वोकेषनल इण्टर कालेज, लखनऊ में अध्यापन कार्य कर रहे थे, तब सन् 1948 में उनका विवाह कानपुर में सुसंस्कृत परिवार की कन्या गिरिजा जी से हुआ।
श्री लाल शुक्ल की रचनाएँ
- सूनी घाटी का सूरज (1957)
- अज्ञातवास (1962)
- राग दरबारी (1968)
- आदमी का जहर (1972)
- सीमाएँ टूटती हैं (1973)
- मकान (1976)
- पहला पड़ाव (1987)
- विश्रामपुर का संत (1998)
- बब्बरसिंह और उसकेसाथी (1999)
- राग विराग (2001)
- यह घर मेरा नहीं (1979)
- सुरक्षा और अन्य कहानियाँ (1991)
- इस उम्र में (2003)
- दस प्रतिनिधि कहानियाँ (2003)
उनकी प्रसिद्ध व्यंग्य रचनाएँ हैं-
- अंगद का पाँव (1958)
- यहाँ से वहाँ (1970)
- मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ (1979)
- उमरावनगर में कुछ दिन (1986)
- कुछ जमींन में कुछ हवा में (1990)
- आओ बैठ ले कुछ देर (1995)
- अगली शताब्दी का शहर (1996)
- जहालत के पचास साल (2003)
- खबरों की जुगाली (2005)
आलोचना
- अज्ञेय कुछ रंग और कुछ राग (1999)
निबन्ध
- भगवती वर्मा (1989)
- अमृतलाल नागर (1994)
उपन्यास
- सूनी घाटी का सूरज (1957)
- अज्ञातवास
- रागदरबारी
- आदमी का जहर
- सीमाएँ टूटती हैं
- मकान
- पहला पड़ाव
- विश्रामपुर का संत
- अंगद का पाँव
- यहाँ से वहाँ
- उमरावनगर में कुछ दिन
कहानी संग्रह
- यह घर मेरा नहीं है
- सुरक्षा तथा अन्य कहानियाँ
- इस उम्र में
श्री लाल शुक्ल की भाषा शैली
श्री लाल शुक्ल की रचनाओं का बड़ा हिस्सा गाँव के जीवन से सम्बन्ध रखता है। ग्रामीण जीवन के व्यापक अनुभव और निरंतर परिवर्तित होते परिदृष्य को उन्होंने बहुत गहराई से विश्लेषित किया है। यह भी कहा जा सकता है कि श्री लाल शुक्ल ने जड़ों तक जाकर व्यापक रूप से समाज की छानबीन कर उसकी नब्ज को पकड़ा है। इसीलिए यह ग्रामीण संसार उनके साहित्य में देखने को मिला है। उनके साहित्य की मूल पृष्ठभूमि ग्राम समाज है, परन्तु नगरीय जीवन की भी सभी छवियां उसमें देखने को मिलती हैं।
श्री लाल शुक्ल की सूक्ष्म और पैनी दृष्टि व्यवस्था की छोटी-से-छोटी विकृति को भी सहज ही देख लेती है, परख लेती है। उन्होंने अपने लेखन को सिर्फ राजनीति पर ही केन्द्रित नहीं होने दिया, शिक्षा के क्षेत्र की दुर्दशा पर भी उन्होंने व्यंग्य कसा। 1963 में प्रकाशित उनकी पहली रचना ‘धर्मयुग’ शिक्षा के क्षेत्र में व्याप्त विसंगतियों पर आधारित है। व्यंग्य संग्रह ‘अंगद का पॉव’ और उपन्यास रागदरबारी में श्रीलाल शुक्ल ने इसे विस्तार दिया है।
श्री लाल शुक्ल की निधन
ज्ञानपीठ पुरस्कार और पद्मभूशण से सम्मानित तथा रागदरबारी जैसा कालजयी व्यंग्य उपन्यास लिखने वाले मशहूर व्यंग्यकार श्री लाल शुक्ल को 16 अक्टूबर 2011 को पाकिर्ंसन बीमारी के कारण उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया था। 28 अक्टूबर 2011 को शुक्रवार सुबह 11:30 बजे सहारा अस्पताल में श्रीलाल शुक्ल का निधन हो गया। वह 86 वर्ष के थे।
- डॉ0पी0 वी0 कोटमे, श्रीलाल शुक्ल के उपन्यासों का शिल्प विधान, पृ0 20
- डॉ पी0 वी0 कोटमे, श्री लाल शुक्ल के उपन्यासों का शिल्प-विधान, पृ0 सं0 185
- डॉ0 पी0 वी0 कोटमे, श्री लाल शुक्ल के उपन्यासों का शिल्प विधान, पृ0 20
- पी0वी0 कांटमें, श्रीलाल शुक्ल के उपन्यासों का शिल्प विधान