प्रधानाध्यापक को विद्यालय में बड़ा ही महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। प्रधानाध्यापक के महत्व पर प्रकाश डालते हुए श्री पी.सी. रैन ने लिखा है कि विद्यालय स्वस्थ अथवा अस्वस्थ, मानसिक, नैतिक एवं भौतिक परिस्थितियों में सम्पन्न तथा पतनोन्मुख अच्छे अथवा बुरे होते हैं जबकि प्रधानाध्यापक योग्य, उत्साही एवं उच्च आदर्शपूर्ण अथवा उसके प्रतिकूल होता है। महान प्रधानाध्यापक महान विद्यालयों का निर्माण करते है तथा विद्यालय प्रसिद्धि को प्राप्त करते है अथवा अन्धकार के गर्त में विलीन हो जाते है।
प्रधानाध्यापक के कर्तव्य
प्रधानाध्यापक का कार्य विद्यालय के समस्त जीवन का संचालन करता है। विद्यालय-जीवन के संचालन हेतु उसे अनेक कार्य करने पड़ते है। इन कार्यों को हम तीन भागों में विभाजित कर सकते हैं।
- प्रशासकीय कर्तव्य
- शैक्षणिक कर्तव्य
- सम्पर्क कर्तव्य
1. प्रशासकीय कार्य – प्रधानाध्यापक को विद्यालय जीवन के प्रशासकीय सर्वोच्च अधिकारी के रूप में अनेक कार्य करने पड़ते है। इन प्रशासकीय कार्यों को पुन: दो उपविभागों में बांट सकते हैं-
- साधनों की पूर्ति करना
- छात्रों के प्रवेश एवं वर्गीकरण का कार्य करना
- विद्यालय का बजट बनाना।
- समयचक्र क निर्माण करना
- अध्यापकों अन्य कर्मचारियों में कार्य विभाजन करना
- पाठ्यपुस्तकों का चयन करना
- अनुशासन की व्यवस्था करना
- विद्यालय-प्रांगण का सौन्दर्यीकरण का ध्यान रखना।
- सहगामी एवं शारीरिक क्रियाओं की व्यवस्था करना।
(ii) निरीक्षक कार्य –एक प्रशासक के तौर पर प्रधानाध्यापक कतिपय निरीक्षण-कार्य भी करता है। जो इस प्रकार है-
- अध्यापक-कार्य का निरीक्षण
- कार्यालय अभिलेख का निरीक्षण
- छात्रावास आदि का निरीक्षण
- सामान्य निरीक्षण कार्य
2. शैक्षणिक कार्य – प्रधानाध्यापक एक प्रशासक ही नहीं अपितु एक शिक्षक भी होता है। उसके शैक्षणिक कर्तव्य है-
- शिक्षक के रूप में शिक्षण
- प्रशिक्षक के रूप में शिक्षकों को प्रशिक्षण।
3. सम्पर्क कार्य – प्रधानाध्यापक को संस्था प्रधान होने के नाते कई व्यक्तियों से सम्पर्क बनाये रखना पड़ता है। वह अग्रलिखित व्यक्तियों के साथ सम्पर्क का कार्य करता है।
- शिक्षकों के साथ सम्पर्क
- छात्रों के साथ सम्पर्क
- अधिकारियों से सम्पर्क
- अभिभावकों से सम्पर्क
- समाज के साथ सम्पर्क