अनुक्रम
सुरक्षा परिषद का संगठन
चार्टर की मूल व्यवस्था के अनुसार सुरक्षा परिषद् एक ग्यारह सदस्यी संस्था थी। उनमें से 5 स्थायी और 6 अस्थायी सदस्य थे। चीन, फ्रांस, सोवियत रूस, गे्रट ब्रिटेन तथा संयुक्त राज्य अमेरिका इसके स्थायी सदस्य है। और छ: अस्थायी का चुनाव महासभा करती थी। सन् सोवियत रूस के विघटन के बाद सुरक्षा परिषद् मं स्थायी सदस्य का उसका स्थान ‘रूस’ को प्रदान कर दिया गया। इस प्रकार अब सोवियत संघ का स्थान रूस ने ले लिया है। 1965 में चार्टर में संशोधन करके सुरक्षा-परिषद के संगठन में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन लाया गया।
सुरक्षा परिषद् के संगठन की सबसे आपत्तिजनक बात महाशक्तियों की स्थिति की अपरिवर्तनशीलता है। चार्टर में स्थायी सदस्यों के लिये किसी प्रकार की शर्त का उल्लेख नहीं है, केवल पांच महाशक्तियों को स्थायी सदस्यता प्रदान कर दी गई है, और उनका नामोल्लेख चार्टर में कर दिया गया है। इससे चार्टर में स्थिरता आ गई है, यह निश्चित नहीं है कि वे पांचों वास्तविक रूप से सदा के लिये महान् शक्तियां बनी रहेंगी।’ संभव है कि उनमें से कोई कलाकार से अपनी महानता खो दे अथवा किसी नये राज्य से कम महान् रह जाये ? ऐसी स्थिति में क्या उसे स्थायी सदस्या से वंचित किया जा सकता है ? परन्तु हम जानते हैं कि कोई भी संशोधन बिना महान शक्तियों की सहमति के प्रभावकारी नहीं हो सकता। इसलिये सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता में परिवर्तन असंभव सा है, भले ही नामांकित स्थायी सदस्यों की शक्ति में Ðास हो जाय।
सुरक्षा परिषद की बैठक
सामान्यत: सुरक्षा परिषद की बैठक प्रत्येक पखवाड़े होती है। इसका संगठन इस प्रकार बनाया गया है कि वह लगातार काम करती रहे। इसलिये प्रत्येक देश सुरक्षा परिषद में अपना एक स्थायी सदस्य भेजता है। वह सदस्य स्थायी रूप से न्यूयार्क में रहता है, जिससे आवश्यकतानुसार तुरन्त बैठक बुलाई जा सके। यह व्यवस्था राष्ट्रसंघ के विधान की उस व्यवस्था से भिन्न है जिसमें परिषद की बैठक वर्ष में एक बार होने का विधान था, हालांकि व्यवहार में उसकी बैठकें वर्ष में तीन बार होती थीं। इसके विपरीत सुरक्षा परिषद का अधिवेशन अनवरत ढंग से चालू रहता है, इसके सदस्य सदैव मुख्यालय में उपस्थित रहते हैं।
परिषद के सदस्य देशों के प्रतिनिधि तो उसकी बैठक में भाग लेते ही हैं, उन देशों के प्रतिनिधि भी जो उसके सदस्य नहीं हैं, कुछ खास परिस्थितियों में उसकी बैठकों में भाग ले सकते हैं। धारा 31 के अनुसार यदि सुरक्षा परिषद यह विचार करे कि संयुक्त राष्ट्रसंघ के किसी ऐसे सदस्य का हित विशेष रूप से प्रभावित हो रहा हो जो उसका सदस्य नहीं है तो वह बैठक में भाग ले सकता है। पर, ऐसे सदस्य-राज्य को मत देने का अधिकार नहीं होता। राष्ट्रसंघ के अन्तर्गत ऐसे आमंत्रित सदस्य को मतदान का अधिकार था। सुरक्षा परिषद ही यह निर्धारित करती है कि किसी सदस्य के हित कब प्रभावित होते हैं।
सुरक्षा परिषद का अध्यक्ष
सुरक्षा परिषद का एक अध्यक्ष होता है। यह परिषद की बैठक का संचालन करता है। इस पद पर परिषद के सदस्य बारी-बारी से एक-एक महीने के लिये अपने देश के नाम के प्रथम अक्षर (अंग्रेजी वर्णमाला के) के क्रमानुसार आसीन होते हैं। अध्यक्ष सभा की कार्रवाइयों को संचालित करता है, किसी मामले को परिषद को समिति में विचारार्थ भेजता है तथा आदेश जारी करता है। यद्यपि अध्यक्ष का पद विशेष महत्व का नहीं होता किन्तु मतदान के पूर्व सदस्य राज्यों तथा विवादग्रस्त पक्षों से अनौपचारिक वार्ताओं में उसकी महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। कभी-कभी उसे राजनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण भूमिका निभाने का अवसर प्राप्त हो जाता है।
सुरक्षा परिषद की मतदान-प्रणाली
सुरक्षा परिषद् की मतदान-व्यवस्था बड़ी महत्वपूर्ण है। चार्टर का 27वां अनुच्छेद इस व्यवस्था से सम्बन्धित है। इसके अनुसार सुरक्षा परिषेद् के प्रत्येक सदस्य को एक मत देने का अधिकार है। पर स्थिति इतनी साधारण नहीं है। परिषद् के कार्यक्रम को दो भागों में बांटा गया है-प्रक्रिया सम्बन्धी (Procedural) तथा अन्य महत्वपूर्ण (Substantive)। प्रक्रिया-सम्बन्धी बातों में परिषद् के किन्हीं नो सदस्यों के स्वीकारात्मक मत (Affirmative Vote) आनें से प्रस्ताव स्वीकृत समझा जाता है। अन्य सभी मामलों में कम-से-कम नो सदस्यों के स्वीकारात्मक वोटों में पांच स्थायी सदस्यों का स्वीकारात्मक वोट अनिवार्य है। इन पांच स्थायी सदस्यों में से यदि कोई भी अपनी असहमति प्रकट करे और अपना वोट प्रस्ताव के विरुद्ध दे दे तो वह प्रस्ताव अस्वीकृत समझा जायेगा।
सुरक्षा परिषद् की मतदान-प्रणाली से निष्कर्ष यही निकलता है कि किसी भी महत्वपूर्ण कार्य को सफल बनाने के लिये स्थायी सदस्यों का मत आवश्यक है और यही महाशक्तियों की सर्वसम्मति का सिद्धांत है। आई0पी0 चेज का मत है : “सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्यों की स्थिति अनोखी है। इससे परिषद् की राजनीतिक समस्याओं की महत्ता का पला चलता है। सुरक्षा परिषद् की मतदान-व्यवस्था इसका सबसे अद्भुत लक्षण है। निषेधाधिकार का प्रश्न संयुक्त राष्ट्रसंघ का सबसे कठिन प्रश्न है।”
सुरक्षा परिषद के सहायक अंग
सुरक्षा परिषद एक छोटी संस्था है इसलिये यह समिति और आयोगों की सलाह कम लेती है। समिति पद्धति इसके लिये उपयोगी नहीं है। आमतौर से यह अपना कार्य स्वयं करती है। फिर भी इसकी दो स्थायी समितियां हैं-विशेषज्ञों की समिति तथा नये सदस्यों के प्रवेश का कार्य देखने वाली समिति। विशेषज्ञ समिति जिसकी स्थापना जनवरी, 1956 में हुई थी, कार्यविधि की नियमावली के सम्बन्ध में अध्ययन तथा परामर्श देती है। यह ऐसे अन्य मामलों पर भी विचार करती है जो परिषद के द्वारा उसके पास भेजे जाते हैं। नये सदस्यों के प्रवेश का कार्य देखने वाली समिति की स्थापना मई, 1946 में हुई थी। परिषद द्वारा विचारार्थ प्रस्तुत किये जाने पर यह संघ की सदस्यता के लिये अभ्यर्थी राज्यों के प्रतिवेदन की जांच करती है।
सन् 1946 में महासभा ने एक अनुशक्ति आयोग स्थापित किया। यह आयोग सुरक्षा परिषद् को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करता था। शांति और सुरक्षा सम्बन्धी विषयों के लिये यह आयोग सुरक्षा परिषद् के प्रति उत्तरदायी था। फरवरी, 1847 में सुरक्षा परिषद् ने परम्परागत शस्त्र-सम्बन्धी आयोग की स्थापना की। इस आयोग ने सुरक्षा परिषद् के सब सदस्य रहते थे। शस्त्रों के नियंत्रण, कम करने की व्यवस्था और अन्य अनेक कार्य इस समिति के द्वारा किये जाते थे। सन् 1952 में इन दोनों आयोगों की जगह पर निरस्त्रीकरण आयोग और उसकी उपसमिति की स्थापना की गयी।
सुरक्षा परिषद् द्वारा कुछ और आयोग और समितियां गठित की गयी हैं। इण्डोनेशिया के लिये इसने एक सत्प्रयास समिति (Good Office Committee) स्थापित की। जनवरी 1949 में इस समिति के स्थान पर इण्डोनेशिया के लिये संयुक्त राष्ट्र आयोग स्थापित किया गया। इस आयोग ने हालैण्ड और इंडोनेशिया के बीच मध्यस्थता का काम किया। सुरक्षा परिषद् ने समय-समय पर कुछ अन्य आयोगों की भी रचना की। उनमें प्रमुख हैं-भारत-पाकिस्तान आयोग, पैलेस्टाईन के लिये युद्ध-विश्रान्ति आयोग आदि। काश्मीर और पैलेस्टाईन की समस्या को सुलझाने के लिए इसने मध्यस्थ नियुक्त किये।
सुरक्षा परिषद का मूल्यांकन
सुरक्षा परिषद् के संगठन और कार्यों के अध्ययन के बाद यह बात पूर्णतया स्पष्ट हो जाती है कि विश्व-संस्था के संस्थापकों ने इसे विश्व समुदाय की शांति और सुव्यवस्था बनाये रखने का एक प्रभावी साधन बनाना चाहा था। इसलिये संघ के कार्यकारी और सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंग के रूप में परिषद् की रचना की गई तथा अन्तर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा बनाये रखने का मुख्य दायित्व परिषद् पर ही डाला गया। यह विश्व-समुदाय के लिए एक सजग प्रहरी के रूप में काम कर सके, इसके लिये इसे आरक्षी दायित्व से सम्पन्न किया गया।
संयुक्त राष्ट्रसंघ में सुरक्षा परिषद् की भूमिका को निरूपित करने के लिये विगत वर्षों में उसके द्वारा सम्पन्न कार्यों पर गौर करना होगा। पिछले 39 वर्षों में बीसियों अन्तर्राज्य विवाद सुरक्षा परिषदृ के समक्ष लाये गये हैं। उनमें से कुछ तो परिषद् की विभिन्न कार्यवाइयों के फलस्वरूप सुलझाए जा सके। सुरक्षा परिषद् के प्रयास से ही इंडोनेशिया की समस्या का समाधान संभव हो सका। फिलिस्तीन-समस्या के प्रारम्भिक दिनों में भी सुरक्षा के विवादों में परिषद् को कुछ सफलता मिली थी। कश्मीर में दो बार युद्ध-विराम लाने में, कांगो, साइप्रस तथा पश्चिम एशिया के विवादों में परिषद् का योगदान महत्वपूर्ण रहा है। अन्तर्राज्य विवादों के शांतिपूर्ण समाधान में परिषद् का सबसे महत्वपूर्ण योगदान यह रहा है कि यह विवादग्रस्त पक्षों के परस्वर विरोधी एवं संकीर्ण हितों पर अन्तर्राष्टऋ्रीय शांति एवं सुरक्षा के विस्तृत संदर्भ में विचार करने का अवसर प्रदान करती है।
फिर भी इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि शांति और सुव्यवस्था के क्षेत्र में सुरक्षा परिषद् की भूमिका उत्साहपूर्वक नहीं रही है। शक्ति-राजनीति के कारण अधिकांश मामलों में वह पंगु साबित हुई है। निषेधाधिकार उसे ज्यादातर गतिरोध की स्थिति में रखता है। पिछले पचास वर्षों में एक बार कोरिया के संदर्भ में सुरक्षा परिषद् द्वारा सैनिक कार्रवाई की गयी या की जा सकी वह भी ऐसी विशेष परिस्थिति में जो संयुक्त राष्ट्र के संस्थापकों की इच्छा से सर्वथा भिन्न थी। उस समय सोवियत रूस की अनुपस्थिति के कारण ही परिषद् सैनिक हस्तक्षेप का निर्णय ले सकी। फिर खाड़ी संकट के समय (1990-91) इराक के खिलाफ परिषद् ने सैनिक कार्रवाई की। परन्तु अन्य मामलों में यह कोई कारगर कार्यवाही नहीं कर सकी। चेकोस्लोवाकिया के विवाद तथा बर्लिन की नाकेबन्दी के मामले में सोवियत संघ द्वारा निषेधाधिकार के प्रयोग के कारण वह कुछ भी नहीं कर सकी। उसी तरह हंगरी तथा स्वेज संकट के समय भी इसकी भूमिका बिल्कुल नगण्य रही। अगस्त 1968 में चेकोस्लोवाकिया में सोवियत हस्तक्षेप के विरुद्ध जब निन्दा प्रस्ताव पेश किया गया तो सोवियत संघ ने उसके विरुद्ध निषेधाधिकार का प्रयोग किया। परिणामस्वरूप निन्दा का प्रस्ताव भी पारित नहीं किया जा सका। सुरक्षा परिषद् के होते हुये भी पश्चिम एशिया में तनाव का वातावरण बना रहा। संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रेक्षकों के बावजूद युद्ध-विराम का उल्लंघन एक आम बात हो गई। सुरक्षा परिषद् द्वारा पारित प्रस्तावों को इजरायल ने खुले तौर पर अवहेलना की।
अब प्रश्न उठता है कि सुरक्षा परिषद् की महान विफलता इस अल्पावधि में क्यों और कैसे हुई, इसका एक ही उत्तर है- सोवियत गुट और अमरीकी गुट का मतभेद। इसके साथ ही परिषद् को अनेक सीमाओं के अन्तर्गत कार्य करना पड़ता है। सर्वप्रथम, सुरक्षा परिषद् अपनी स्थायी तथा महान् शक्तियों के विरुद्ध कुछ भी कार्रवाई करने में असमर्थ है। न केवल स्थायी सदस्य वरन् उनके पिछलग्गू राज्यों के विरुद्ध भी कोई कार्रवाई नहीं की जा सकती क्योंकि बड़े राष्ट्र अपने विशेषाधिकार के द्वारा उसे ऐसा करने से रोक देते हैं। वास्तव में जैसा कि निकोलास ने लिखा है कि सुरक्षा परिषद् की स्थापना अपने पांच स्थायी सदस्यों को बाध्य करने वाले अभिकरण के रूप में नहीं की गयी है। परिषद् इन स्थायी तथा महान् सदस्यों की कृति है। ये इसके हिमायती और महान संरक्षक हैं। अत: अपने महान् संरक्षकों के विरुद्ध आदेश देने की शक्ति उसके पास कैसे रहती?
द्वितीयत: सुरक्षा परिषद् का संगठन दोषपूर्ण है। इसके स्थायी सदस्यों का नामोल्लेख चार्टर में कर दिया गया है। इसका अर्थ यह है कि वेसे महान् राज्य की महानता की श्रेणी से नीचे आ गये हों, वे हमेशा स्थायी सदस्य बने रहेंगे। यह व्यवस्था सुरक्षा परिषद् को प्रतिक्रियावादी संस्था बना देगी। अत: चार्टर में ऐसी व्यवस्था होनी चाहिये जिसके आधार पर मान्यता प्राप्त महान् शक्तियों की श्रेणी से नीचे आने वाले राज्यों को स्थायी सदस्यता से वंचित कर उसके स्थान पर जनसंख्या, औद्योगिक एवं सामरिक शक्ति के आधार पर जो देश महान् शक्तियों की श्रेणी में आवें, उन्हें स्थायी सदस्याता प्रदान की जाये। गिनी के विदेशमंत्री वी0बी0 लंसाना ने महासभा के 18वें अिधेवेशन में बोलते हुए कहा कि चार्टर में संशोधन करते समय यह ध्यान रखना चाहिये कि अफ्रीका को सुरक्षा परिषद् में एक स्थायी स्थान प्रदान किया जाये।
तृतीयत:, संयुक्त राष्ट्रसंघ के घोषणा-पत्र में सभी राज्यों की संप्रभु समानता का उद्घोष किया गया है। परन्तु सुरक्षा परिषद् में पांच राज्यों को निषेधाधिकार के रूप में विशेष दर्जा प्रदान किया गया है। अन्य राज्यों पर वे कार्रवाई कर सकते हैं, पर शेष सभी राज्य मिलकर भी निर्णय करें, तब भी उनमें से एक के विरुद्ध भी उंगली नहीं उठा सकते। उनकी सहमति के साथ ही उनके विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं की जा सकती है। परन्तु कोई भी अपने विरुद्ध स्वयं ही कोई कार्रवाई करने की अनुमति कैसे देगा ? अत: सुरक्षा परिषद् के संगठन में संप्रभु समानता की बात कहाँ रहीं ?
चतुर्थत: सुरक्षा परिषद् में महाशक्तियों को मिली निषेधाधिकार की शक्ति संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा की जाने वाली सुरक्षा की कार्रवाई के मार्ग में सबसे बड़ी रुकावट है। इसके कारण सुरक्षा परिषद् शांति और सुरक्षा की व्यवस्था के अपने उत्तरदायित्व को पूरा करने में असमर्थ हो गई है। जब कभी भी वे कोई महत्वपूर्ण निर्ण लेने बैठती है, निषेधाधिकार के प्रयोग के द्वारा उसे ऐसा करने से रोका जाता है। इसके सामने अभी तक बीसियों विवाद आये हैं, परन्तु उनमें से अधिकांश को सुलझाने में यह असफल रही है क्योंकि इसके स्थायी सदस्यों में से कोई-न-कोई निषेधाधिकार का प्रयोग कर देता है। फलस्वरूप सुरक्षा परिषद् की प्रतिष्ठा में काफी ह्रास हुआ है।
परन्तु बहुत से लेखकों की राय में सुरक्षा परिषद् की असफलता का मुख्य कारण इसके स्थायी सदस्यों के बीच एकता का अभाव रहा है। युद्धोतर अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में जब शीत युद्ध का समावेश हुआ और दुनिया दो खेमों में बंट गई तब इनका असर सुरक्षा परिषद् पर भी पड़ना शुरु हुआ। यह भी दो भागों में विभाजित हो गई। इसका प्रभाव छोटे-बड़े विवादों पर पड़ा। फलस्वरूप सुरक्षा परिषद् सौम्यीकरण का माध्यम न रहकर महान् शक्तियों के विभेदों को प्रकाश में लाने का साधन हो गई। यह सिर्फ ऐसे संघर्षों का निदान कर सकती है जो शीतयुद्ध से अलग हों। क्लॉड का विचार है कि सुरक्षा परिक्षद् केवल ‘No mans land of the cold war’ में ही सफल हो सकती है, वैसे विवादों में नहीं हो शक्ति गुटों के संघर्षों से सम्बन्ध हो।
पंचम:, संयुक्त राष्ट्रसंघ की दंड-व्यवस्था भी पूर्णतया दोषमुक्त नहीं है। महाशक्तियों की इच्छा के विरुद्ध न तो इसे लागू किया जा सकता है और न उसे सफल ही बनाया जा सकता है। उदाहरणार्थ, सदस्य-राज्यों के असहयोग के कारण रोडेशिया के विरुद्ध लगाया गया आर्थिक प्रतिबन्ध सफल नहीं हो सका। सैनिक प्रतिबन्ध की संभावना तो अब और भी क्षीण हो गई है। चार्टर के अनुसार सुरक्षा परिषद् को सदस्य-राज्यों के असहयोग के साथ सैनिक दंड-व्यवस्था लागू करने के लिये समझौता करने का अधिकार दिया गया है। परन्तु सोंवियत संघ एवं पाश्चात्य राज्यों के आपसी मतभेद के कारण सुरक्षा परिषद् एवं अन्य राज्यों के बीच कोई समझौता नहीं हो सका। परिणामस्वरूप सुरक्षा परिषद् के लिये स्थायी या अस्थायी किसी भी तरह की सेना की व्यवस्था नहीं हो सकी है।
षष्ठ:, सुरक्षा परिषद् में निषेधाधिकार के बार-बार प्रयोग होने से तथा वर्तमान अन्तर्राष्ट्रीय वैमनस्य के परिप्रेक्ष्य पर परिषद् में उत्पन्न होने वाले गतिरोध के कारण सुरक्षा परिषद् की तुलना में महासभा के महत्व एवं प्रभाव में वृद्धि हुई है। ‘शांति के लिये एकता प्रस्ताव’ ने महासभा की स्थिति को सुरक्षा परिषद् से अधिक महत्वपूर्ण बना दिया है। इस प्रस्ताव के अनुसार यदि कभी शांति के लिये संकट पैदा हो अथवा शांति भंग हो अथवा आक्रमण हो जाए और सुरक्षा परिषद् अपने स्थायी सदस्यों द्वारा निषेधाधिकार प्रयोग किये जाने के कारण कोई कार्रवाई नहीं कर सके तो महासभा उस विवाद को अपना संकटकालीन अधिवेशन बुला कर तुरन्त अपने हाथ में ले सकती है और स्थिति का मुकाबला करने के लिये सामूहिक कार्रवाई का सुझाव दे सकती है, जिसमें शांति भंग होने या आक्रमण की स्थिति में सशस्त्र सेना के उपयोग का सुझाव भी शामिल है।
उपर्युक्त कारणों के चलते शांति और सुरक्षा के मामले में सुरक्षा परिषद् का कीर्तिमान बिल्कुल उत्साहवर्द्धक नहीं रहा है। कुछ मामलों में प्रभावशाली भूमिका अदा करते हुए भी कुल मिलाकर इसका इतिहास इसके निर्माताओं की आशा के अनुकूल नहीं रहा है। व्यवहार में यह महाशक्तियों के हाथों का खिलौना बनकर रह गयी है। अधिकांश मामलों में उसी नीति तथा कार्य-प्रणाली बहुरंगी, दुमुँही और शिथिल रही है। चाहे कश्मीर का प्रश्न हो या अरब इजरायल का, चाहे दक्षिण रोडेशिया का प्रश्न हो या हंगरी का, विगत वर्षों में यह किसी भी समस्या के स्थायी समाधान में सफल नहीं हुई है। प्रत्येक बड़े संघर्ष के बाद इसने मात्र युद्ध-विराम कराने की भूमिका ही निभायी है। जुडवाँ बच्ची की तरह उलझी हुई वियतनाम की समस्या में तो यह उस भूमिका को भी नहीं निभा सकी। इसके रहते हुये अनेक अवसरों पर तो दुर्बल पक्ष को निम्नतम न्याय भी नहीं मिल सका है।