अनुक्रम
पुराणो के अनुसार गौतमीपुत्र शातकर्णि सातवाहन वंश का 23 वाँ राजा था। उसके पिता का नाम शिवस्वाति तथा माता का नाम गौतमी बलश्री था।
मौर्यो ने उत्तर भारत मे प्रथम साम्राज्य स्थातिप किया था । सम्राट अशोक की मृत्यु के बाद आन्तरिक दुर्बलताओं के कारण मौर्य साम्राज्य का विघटन हो गया ।
दक्षिण और मध्य भारत भी मौर्य साम्राज्य का एक महत्वपूर्ण अंग था । यहां मौर्यो के उत्तराधिकारी सातवाहन बने जिन्हें आंध्र भी कहा जाता है । नर्मदा नदी के दक्षिण में स्थापित इस राज्य को सबसे पुराना और महत्वपूर्ण राज्य समझा जा सकता है । यह साम्राज्य लगभग 28 ईसा पूर्व से 219 ई. तक सत्ता में रहा और इसने शासन प्रबंध परम्पराएं धरोहर रूप में छोड़ी । विस्तार की दृष्टि से यह मौर्य साम्राज्य से छोटा था परन्तु सुसंगठित था । इसलिए इसने उत्तर से किसी भी विदेशी को दक्षिण में नहीं जाने दिया ।
प्रारम्भिक सातवाहनों में सबसे महान शासक शातकर्णी प्रथम था । वह कृष्ण का उत्तराधिकारी था । उसने 13 से 32 ई. तक शासन किया । उसने सातवाहनों की सत्ता को सर्वोच्च बनाया । प्रसिद्ध नानघाट अभिलेख मे शातकर्णीशातकर्णी की सफलताओं का उल्लेख है । इसमें उसे दक्षिणपथपति (दक्षिण का स्वामी) कहा गया है । उसके समय के जो सिक्के मिले हैं उन पर श्रीशत अकिंत है ।
वाशिष्टीपुत्र की मृत्यु के बाद सातवाहनों और शंकों में कोणकण तट और मालवा को लेकर संघर्ष छिड़ गया । पश्चिमी भारत के शक शासक रूद्रदमन ने सातवाहनों को दो बार पराजित किया । तथापि उसने सातवाहन वंश को समूल नष्ट नहीं किया क्योंकि सातवाहन वंश के एक राजा से उसकी पुत्री का विवाह हुआ था । रूद्रदमन ने मालवा, दक्षिणी गुजरात, उत्तरी कोणकण और नर्मदा नदी पर महिषमति प्रदेश विजय किया । इस प्रकार कुल काल के लिए सातवाहन वंश को ग्रहण सा लग गया था ।
बाद के सातवाहन शासकों में केवल यज्ञश्री (165-194 ई.) ही एक महान् शासक हुआ । उसके काल में साम्राज्य काफी बड़ा था । उसने शकों को हटाकर उन क्षेत्रों को पुन: प्राप्त कर लिया था जो कभी सातवाहनों के हाथ से निकल गए थे । शकों के सिक्कों से मिलते-जुलते उसके सिक्के पश्चिमी भारत में पाए गए हैं । इनसे पता चलता है कि उसने शकों को पराजित किया था । यज्ञश्री के कुछ सिक्कों पर जहाज का चित्र अंकित है । इससे संकेत मिलता है कि उसे नौ-परिवहन से प्रेम था और उसका समुद्र पर भी प्रभुत्व था । उसका शासन काल शकों और सातवाहनों के बीच संघर्ष का अंतिम दौर था ।
बाद के शासक शायद इतने निर्बल थे कि वे सारे साम्राज्य पर अपना अधिकार नहीं रख पाए थे । साम्राज्य नई शक्तियों में बंट गया । पश्चिम में नासिक के आस-पास के क्षेत्र अमीरों ने अधिकार कर लिया था । कृष्णा-गन्दूर क्षेत्र पर इक्ष्वाकू स्वतंत्र राज्य बन गया था । दक्षिण-पश्चिमी भाग में चुट्टु तंश शिक्त्शाली हो गया था । उन्होंने अपना अधिकार उत्तर पूर्व में भी बढ़ा लिया था । दक्षिण पूर्वी भाग पल्लवों के अधीन था । इस प्रकार सातवाहन साम्राज्य का विघटन होने लगा और तीसरी शताब्दी ईस्वी में सातवाहनों की सत्ता समाप्त हो गई ।
सातवाहन वंश का प्रशासन
समस्त सातवाहन साम्राज्य जपनदों (प्रान्तों) और आहरों (जिलों) में बंटा हुआ था । कुछ आहरों का उत्तरदायित्व अमात्यों पर था । कहीं-कहीं आहर महामात्र के नियन्त्रण में होते थे । सातवहान काल में नगर प्रशासन का उत्तरदायित्व निगम जैसी संस्थाओं के हाथ में था । गांव का प्रबंध ग्राम पंचायत करती थी जिसकी सहायता के लिए ग्रामिक नाम का एक अधिकारी होता था। गोल्मिक नामक अधिकारी ग्रामीण क्षेत्र में शान्ति और व्यवस्था बनाए रखता था । सातवाहन काल में ब्राम्हणों और बौद्ध भिक्षुओं को कर मुक्त भूमि देने की प्रथा थी । यह भूमि राजकीय अधिकारियों के हस्तक्षेप से मुक्त थी । भू-स्वामी ही कर वसूल करते और शान्ति बनाए रखते थे । इस प्रकार अनुदान या उपहार में मिली भूमि पर ये स्वतन्त्र शासक के समान थे। भूमि अनुदान प्रथा से सातवाहन शासन काल में सामन्तवाद को प्रोत्साहन मिला । शक्तिशाली सामन्तों का उदय ही अन्य में सातवाहनों के साम्राज्य के विघटन के लिए उत्तरदायी सिद्ध हुआ। सातवाहन शासन का प्रमुख राजा था । समस्त साम्राज्य जनपदों, आहरों और ग्रामों में बंटा हुआ था । सातवाहन राजा नागरिक अधिकारियों और धार्मिक व्यक्तियों को कर मुक्त भूमि देते थे। वे अपने क्षेत्र में कर वसूल करते और व्यवस्था बनाए रखते थे । सातवाहन प्रशासन सैनिक चरित्र का था ।
सातवाहन वंश की आर्थिक दशा
सातवाहन काल में आर्थिक क्षेत्र में महत्वपूर्ण उन्नति हुई । विदेशी व्यापार और आन्तरिक अर्थव्यवस्था समृद्ध थी । अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार कृषि था । सातवाहन अभिलेखों में बहुधा गाय, भूमि और गांव उपहार रूप में देने का उल्लेख आता है । इससे पता चलता है कि भूमि और कृषि कितनी महत्वपूर्ण थी । लोहे के औजारों और धान रोपने की जानकारी ने कृषि उत्पादन बढ़ाने में बहुत योगदान दिया। चावल मुख्य भोजन था । यहां धान के अतिरिक्त गेहूं, दाल, ज्वार, बाजरा, लौंग, तिल, काली मिर्च और कपास की भी खेती की जाती थी । राजा कृषि उत्पादन का 1/6 भाग किसानों से कर के रूप में लेता था । यह ‘भाग’ कहलाता था । जो भूमि राजकीय कर्मचारियों या धार्मिक व्यक्तियों को अनुदान रूप में मिली होती थी उसका लगान भूमि-स्वामी ही लेते थे । इस लगान पर राजा का कोई अधिकार नहीं होता था। राजा ‘भोग’ नामक कर भी वसूल करता था । खानों और नमक भण्डारों पर राजा का एकाधिकार था ।
सातवाहन काल में उद्योग और शिल्प उन्नत दशा में थे । समकालीन प्रमाणों में कुम्हार (मिट्टी का काम करने वाले) तेली (तेल बनाने वाले) बढ़ई (बांस का काम करने वाले) लोहार और सुनार आदि शिल्पकारों का उल्लेख है । प्रत्येक व्यवसाय श्रेणी (गिल्ड) में संगठित था । इसका प्रमुख श्रेष्ठी या सेठी कहलाता था । श्रेणी धर्म या गिल्ड के नियमों को कानूनी दर्जा प्राप्त था । श्रेणी के सदस्यों को सुरक्षा के साथ-साथ मान-प्रतिष्ठाा भी मिलती थी । श्रेणी की मुख्य विशेषता थी बैंकों की भांति रूपये का लेन-देन करना । यह जनसाधारण से धन लेती और उन्हें ऋण देती थी । श्रेणी लोकहित के लिए मन्दिर, बाग, विश्रामगृह आदि बनवाती थी । राज्य भी प्रत्यक्ष रूप में श्रेणी के कार्यो में रूचि लेता था ।
पोरिप्लस आफ द एरिथियन सी’ नामक पुस्तक के अनुसार सारे भारत और चीन में चीजें पहले भडोच मे शातकर्णीएकत्र की जाती थीं और फिर वहां से रोम साम्राज्य को भेजी जाती थी । इसी पुस्तक के अनुसार भारत से हाथी दांत, (रेशम) सिल्क, कालीमिर्च, धागा, हीरे और मोती निर्यात किए जाते थे । रोम साम्राज्य से आयात की जाने वाली वस्तुएं थी- पुखराज, टिन, सीसा, चकमक पत्थर, शीश और सोने चांदी के सिक्के ।
सातवाहन वंश का सांस्कृतिक विकास
सातवाहन राजा कला और साहित्य के महान पोषक थे । इस काल की कला में प्रचलित धार्मिक विश्वास अभिव्यक्त किए जाते थे । सातवाहन शासकों के संरक्षण में अनेक बौद्ध बिहार और चैतय बने । नासिक और कर्ले के विहार बहुत प्रसिद्ध है । ये सुन्दर निर्माण एक ही चट्टान को काट कर तैयार किए गए थे । इस काल में अनेक स्तूप भी बनाए गए । अमरावती और नागार्जुनकोंडा के स्तूप अधिक महत्वपूर्ण है । अमरावती का स्तूप मूर्तियों से सजा है । ये मूर्तियां युद्ध के जीवन के विभिन्न दृश्य प्रदर्शित करती है जो कलाकृतियाँ स्मारकों पर दिखाई देती हैं । ये कला और मूर्तिकला के उन्नत होने का प्रमाण है ।
सातवाहन शासक प्राकृत भाषा के संरक्षक थे । मौर्यकाल की भांति सभी अभिलेख प्राकृत भाषा में रचे गए और ब्राम्हणी लिपि में लिखे गए थे । साहित्य रचनाओं में प्रसिद्ध हैं- सातवाहन राजा हाल द्वारा छद्मनाम से लिखी गई, 700 पद्यों वाली ‘गाथा सप्तशती’ और गुणाध्या द्वारा लिखित ‘वृहत् कथा’ ।
सातवाहन काल में कला और साहित्य का विकास उच्च कोटि का था । वास्तुकला के सुन्दर नमूने हैं, बौद्ध चैतय, बिहार और स्तूप जो एक ही चट्टान को काटकर बनाए गए है । साहित्य के क्षेत्र में कहा जा सकता है कि सातवाहन राजाओं न े प्राकृत भाषा को संरक्षण प्रदान किया ।
