अनुक्रम
संयुक्त राष्ट्रसंघ के प्रमुख अंगों में सबसे बड़ा तथा सबसे अधिक लोकप्रिय अंग महासभा है। यह संयुक्त राष्ट्रसंघ का केन्द्रीय निकाय है। जैसा कि ई0पी0चेज ने लिखा है : “महासभा संयुक्त राष्ट्रसंघ का केन्द्र बिन्दु है। यह न तो अपना स्थान त्याग सकती है और न अपनी महत्वपूर्ण स्थिति के लिए किसी दूसरे अंग को भागीदार बना सकती है। (“The General Assembly is the centre of the United Nations. It can neither abdicate nor share its position” – E.P. Chase)। वह महासभा को संयुक्त राष्ट्रसंघ की संसद कहता है।
अन्य विचारकों ने भी इसकी तुलना किसी देश के विधानमण्डल अथवा संसद से की है। अन्तर केवल इतना है कि इसके निर्णय बाध्यकारी नहीं होते। सिनेटर बेन्डेनबर्ग ने इसे ‘संसार की नगर सभा’ (The town meeting of the World) कहा है। कारण यह कि महासभा ऐसा स्थल है जहाँ विश्व के विभिन्न राज्य विश्व-शांति और सुव्यवस्था से सम्बद्ध प्रश्न पर विचार-विमर्श करते हैं। यह एक ऐसा मंच है जहाँ विश्व के राजनयिकों को एकत्रित होने, विचार-विमर्श करने तथा अन्तर्राष्ट्रीय शांति और सुव्यवस्था कायम रखने के लिए सुझाव देने का अवसर प्राप्त होता है।
गुड्सपीड ने ठीक ही लिखा है : “इसके समक्ष प्रस्तुत होने वाली समस्याओं का रूप चाहे जो भी हो, महासभा एक वह स्थान है जहाँ छोटे-बड़े सभी सदस्य अपनी आलोचना तथा विचार व्यक्त कर सकते हैं तथा किसी विषय पर वाद-विवाद कर सकते हैं।” इसलिए महासभा को ‘कान का खुला अन्त:करण’ कहा गया है।
संयुक्त राष्ट्र महासभा का संगठन
महासभा संयुक्त राष्ट्रसंघ का प्रतिनिध्यात्मक अंग है। संघ के सभी सदस्य-राज्य इसके सदस्य होते हैं। इस प्रकार यह संयुक्त राष्ट्रसंघ का अकेला अंग है जिसमें संघ के सभी सदस्य-राज्यों का प्रतिनिधित्व प्राप्त है। प्रत्येक सदस्य-राज्य 5 प्रतिनिधि और 5 वैकल्पिक प्रतिनिधि के अलावा सलाहकारों एवं विशेषज्ञों को आवश्यकता के अनुसार नियुक्त किया जाता है। इस सम्बन्ध में चार्टर में यह व्यवस्था है कि “किसी सदस्य-राज्य का प्रतिनिधि मंडल 5 प्रतिनिधियों तथा उतने ही सलाहकार एवं विशेषज्ञों को मिलाकर गठित होगा जितना प्रतिनिधि-मण्डल के लिए आवश्यक हो।” जब संघ के र्चाटर पर सेन फ्रांसिस्को सम्मेलन में विचार हो रहा था, उस समय कुछ लोगों ने यह सुझाव दिया था कि महासभा में प्रत्येक सदस्य-राज्य को सिर्फ एक-एक प्रतिनिधि भेजने का अधिकार हो क्योंकि इससे दो फायदे होंगे। एक ओर तो इससे महासभा का आकार असंतुलित होने से बच जायेगा और दूसरी ओर उन छोटे-छोटे राज्यों को भी भाग मिल जायेगा जो बड़ा प्रतिनिधित्व भेजने में असमर्थ हैं। परन्तु यह सुझाव स्वीकार नहीं किया गया। और, प्रत्येक सदस्य के लिए 5 प्रतिनिधि, तथा आवश्यकतानुसार सलाहकारों एवं विशेषज्ञों पर सहमति हुई। प्रतिनिधियों की नियुक्ति उनकी सरकार द्वारा होती है। उनकी योग्यताओं तथा आवश्यक शर्तों का निर्धारण उनकी सरकार द्वारा ही किया जाता है। प्रतिनिधिगण अपने राज्य के प्रधान अथवा विदेश मंत्री से प्रमाण-पत्र ग्रहण करते हैं। प्रतिनिधि मण्डल के सदस्यों की सूची तथा उनका प्रमाण-पत्र महासभा के अधिवेशन प्रारम्भ होने के पहले ही महासचिव के पास जमा करना पड़ता है। महासभा की प्रमाण-पत्र समिति प्रतिनिधियों के प्रमाण-पत्रों की जाँच करती है।
संयुक्त राष्ट्र महासभा का अधिवेशन
संयुक्त राष्ट्रसंघ के चार्टर में यह विधान है कि महासभा की बैठक वर्ष में कम-से-कम एक बार अवश्य होगी। आमतौर से यह अधिवेशन सितम्बर के महीने में न्यूयार्क में होता है। अधिवेशन किसी अन्य स्थान पर भी हो सकता है यदि इस तरह की प्रार्थना अधिवेशन होने के एक सौ बीस दिन दिन पहले की गई हो तथा उस पर बहुमत सदस्यों की स्वीकृति प्राप्त हो। इसके अधिवेशन पेरिस में भी हो चुके हैं। प्राय: यह अधिवेशन सितम्बर महीने के तीरे मंगीवार का प्रारम्भ होता है और करीब दो महीने तक चलता है। अगर, जैसा अब आमतौर पर होता है, लगभग दिसम्बर के तीसरे सप्ताह तक काम समाप्त नहीं होता, तो आगमी बसंत में बैठक फिर होती है।
आवश्यकता पड़ने पर महासभा के विशेष अधिवेशन भी बुलाये जा सकते हैं। विशेष अधिवेशन सुरक्षा परिषद् अथवा संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्यों के बहुमत या अधिकतर सदस्यों की सहमति से एक सदस्य की प्रार्थना पर बुलाया जा सकता है। असाधारण परिस्थितियों में सुरक्षा परिषद् अथवा बहुमत सदस्यों के बहुमत या अधिकतर सदस्यों की सहमति से एक सदस्य की प्रार्थना पर बुलाया जा सकता है। असाधारण परिस्थितियों में सुरक्षा परिषद् अथवा बहुमत सदस्यों के अनुरोध पर 24 घंटे के भीतर महासचिव के द्वारा सभा का संकटकालीन अधिवेशन भी बुलाया जा सकता है। ऐसे अधिवेशनों में सभा केवल उन्हीं विषयों पर विचार करती है जिनके लिए अधिवेशन बुलाने की माँग की गई हो। अभी तक कई विशेष अधिवेशन ट्यूनिशिया की स्थिति पर विचार करने के लिए 21 अगस्त, 1961 में हुआ था।
संयुक्त राष्ट्र महासभा के सभापति
अपने कार्यों को सुचारु रूप से चलाने के लिए महासभा एक अध्यक्ष का चुनाव करती है। उसका चुनाव महासभा के प्रत्येक अधिवेशन के लिए किया जाता है जो अधिवेशन के अन्त तक सभा की कार्रवाई का संचालन करता है। इस प्रकार उसका कार्यकाल उस अधिवेशन तक ही सीमित रहता है जिसमें उसका निर्वाचन होता है। राष्ट्रसंघ की सभा की भांति महासभा का अध्यक्ष भी छोटे राष्ट्रों में से चुना जाता है। यह परम्परा स्थापित हो चुकी है कि महासभा का अध्यक्ष किसी बड़ी शक्ति का प्रतिनिधि नहीं होगा। परन्तु इससे पद की गरिमा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। इस पद को कुछ ऐसे लोगों ने सुशोभित किया है जो अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र के ख्याति-प्राप्त व्यक्ति रहे हैं।
अध्यक्ष के अतिरिक्त आठ उपाध्यक्षों की भी नियुक्ति की जाती थी। इनमें से पाँच आवश्यक रूप से पाँच स्थायी सदस्यों के प्रतिनिधि होते थे। सन् 1953 में उपाध्यक्षों की संख्या अट्ठारह कर दी गयी। इन उपाध्यक्षों का विभाजन इस प्रकार किया गया है-
- सात एशियाई-अफ्रीकी राज्यों से,
- एक पूर्व यूरोप के राज्यों से,
- तीन लैटिन अमरीकी राज्यों से,
- दो पश्चिमी यूरोप एवं अन्य देशों से,
- पाँच सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्यों से।
सभी उपाध्यक्षों का चुनाव भी प्रत्येक अधिवेशन के लिए ही किया जाता है।
समितियाँ
महासभा एक बड़ी संस्था है। इसके लिए उन सभी विषयों पर विस्तार से विचार-विमर्श कर सकना मुश्किल है जो इसके समक्ष प्रस्तुत किये जाते हैं। अत: राष्ट्रीय विधायिका सभाओं की भाँति महासभा भी अपने कार्यों के सम्पादन के लिए समितियों का प्रयोग करती है। कार्य-सूची के अधिकांश सादृभूत प्रश्नों पर, जिन पर बहस और निर्णय की आवश्यकता होती है, पहले किसी-न-किसी समिति में कार्य-पद्धति पूर्ण अधिवेशन की अपेक्षा कम औपचारिक होती है। प्रतिनिधि सामने किसी मंच पर खड़े होकर बोलने की बजाय अपने स्थानों पर बैठे हुए ही बोलते हैं और मतदान में निर्णय सामान्य बहुमत से होता है। समितियों द्वारा स्वीकृत सभी सिफारिशों पर बाद में पूर्ण अधिवेशन में विचार होता है जहाँ महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर निर्णय करने के लिए दो-तिहाई बहुमत की आवश्यकता होती है।
महासभा को अपने कार्य-संचालन के लिए आवश्यकतानुसार समितियों तथा सहायक अंगों का गठन करने का अधिकार है। इस अधिकार के अन्तर्गत महासभा ने चर प्रकार की समितियों की स्थापना की है। पहली श्रेणी में सभा की मुख्य समितियाँ आती हैं जिनका कार्य महत्वपूर्ण मामलों पर विचार करना होता है। दूसरे और तीसरे वर्ग में क्रमश: प्रक्रिया-समितियाँ आती हैं। इनके अलावा तदर्थ समितियाँ होती हैं जिनकी नियुक्ति समय-समय पर कुछ विशिष्ट विषयों पर विचार करने के लिए होती है।
महासभा अपना कार्य छह मुख्य समितियों द्वारा चलाती हैं। ये समितियां हैं-(i) राजनीति एवं सुरक्षा समिति (Political and Security Committee), (ii) आर्थिक और वित्तीय समिति (Economic and Financial Committee), (iii) सामाजिक, मानवीय और सांस्कृतिक समिति (Social , Humanitarian and Cultural Committee), (iv) न्यास समिति (Trusteeship Committee), (v) प्रशासकीय एवं बजट समिति (Administrative and Budgetary Committee) तथा (vi) विधि-समिति। राजनीतिक और सुरक्षा समिति राजनीति और सुरक्षा-सम्बन्धी मामलों पर विचार करती है, जैसे संघ के सदस्यों का प्रवेश, निलम्बन और निष्कासन, शस्त्रों का नियमन, विवादों का शान्तिपूर्ण समाधान आदि। आर्थिक और वित्तीय समिति संयुक्त राष्ट्रसंघ के चार्टर के क्षेत्र के अन्तर्गत आने वाले आर्थिक और वित्तीय विषयों पर विचार करती है।
महासभा के कार्य-संचालन में सहायता देने हेतु दो प्रक्रिया समितियाँ नियुक्त की जाती हैं। ये हैं साधारण समिति और परिचय-पत्र समिति। साधारण समिति में महासभा का अध्यक्ष, सातों उपाध्यक्ष तथा छह मुख्य समितियों के अध्यक्ष रहते हैं। इस समिति का कार्य यह देखना है कि महासभा के अधिवेशन-काल में उनका कार्य सुचारु रूप से चल रहा है अथवा नहीं। प्रक्रिया सम्बन्धी दूसरी समिति हैं-प्रमाण पत्र समिति। प्रत्येक अधिवेशन में अध्यक्ष एक प्रमाण-पत्र समिति नियुक्त करता है जो प्रतिनिधियों के प्रमाण-पत्र की पुष्टि करती है। महासभा की सहायता के लिए दो स्थायी समितियाँ भी हैं-एक प्रबन्ध और बजट सम्बन्धी प्रश्नों के लिए परामर्शदात्री समिति और परिचय-पत्र समिति और दूसरी अनुदान समिति।
महासभा की सहायता के लिए दो स्थायी समितियाँ भी है-एक प्रबन्ध और बजट सम्बन्धी प्रश्नों के लिए परामर्शदात्री समिति और दूसरी अनुदान समिति। प्रबन्ध और बजट समिति में 9 और अनुदान समिति में 10 सदस्य होते हैं। इन समितियों के सदस्य महासभा द्वारा तीन साल के लिए व्यक्तिगत योग्यताओं और भौगोलिक स्थिति के आधार पर चुने जाते हैं। महासभा अपने सहायता के लिये आवश्यकतानुसार तदर्थ समितियों का भी गठन करती है। इसकी संख्या आवश्यकतानुसार घटती-बढ़ती रहती है। महासभ के कुछ अधिवेशनों में राजनीतिक और सुरक्षा-सम्बन्धी समिति का कार्यभार अधिक हो गया था, इसलिए एक तदर्थ राजनीतिक समिति स्थापित की गयी जो प्रथम समिति के काम में हाथ बँटाती है। इस समिति को विशेष राजनीतिक समिति या 7वीं समिति कहते हैं। सभी समितियाँ अपना सुझाव या सिफारिशें महासभा के खुले अधिवेशन में भेजती हैं। साधारणत: महासभा समितियों की सिफारिशों को स्वीकार कर लेती है। परन्तु ऐसा करना अनिवार्य नहीं है।
अन्तरिम समिति अथवा छोटी सभा
नवम्बर, 1949 में महासभा ने एक सर्वथा नवीन एवं महत्वपूर्ण समिति की स्थापना की जो अन्तरिक समिति अथवा छोटी सभी के नाम से विख्यात हुई। अस समिति की स्थापना का अपना अलग इतिहास है। द्वितीय महायुद्ध के बाद महाशक्तियों के बीच जो शीतयुद्ध प्रारम्भ हुआ उसका प्रभाव संयुक्त राष्ट्रसंघ पर पड़े बिना नहीं रह सका। शीघ्र ही यह स्पष्ट होने लगा कि महाशक्तियाँ किसी भी महत्वपूर्ण प्रश्न पर एकमत नहीं हो सकती। अब यह आशंका की जाने लगी कि निषेधाधिकार के प्रयोग और महाशक्तियों की आपसी खींचातानी के फलस्वरूप सुरक्षा परिषद् आक्रमण को रोकने अथवा शांति के शत्रुओं के विरुद्ध कोई कार्रवाई करने में समर्थ नही हो सकती। अत: उसकी जगह किसी नयी व्यवस्था की आवश्यकता महसूस की गयी। अन्तरिक समिति की स्थापना इसी अनुभूति का परिणाम थी। इस समिति की स्थापना 13 नवम्बर, 1947 को महासभा द्वारा की गयी।
यह समिति सदा अधिवेशन में रहने वाली संस्था थी। इसका यह उत्तरदायित्व था कि महासभा के अधिवेशन न होने के समय वह शांति और सुरक्षा के प्रश्न पर अपना सुझाव प्रस्तुत करेगी। अपने कार्यों के समुचित निर्वहन के लिए इसे जाँच-पड़ताल आयोग नियुक्त करने, आवश्यक खोज-बीन करने तथा महासचिव को महासभा का विशेष अधिवेशन बुलाने की सिफारिश करने का अधिकार था। इस प्रकार इसकी स्थिति महासभा की स्थायी समिति के समान थी। यह सभा के अधिवेशनों के अन्तराल में भी कार्य करती थी और शांति और सुरक्षा सम्बन्धी विषयों पर अपनी दृष्टि रखती थी। यह सर्वप्रथम शांति एवं सुरक्षा से सम्बद्ध समस्याओं को स्वयं सुलझाने का प्रयास कर सकती थी लेकिन यदि इस कार्य में सफलता नहीं मिली तो वह महासभा की शीघ्र बैठक बुलाने की सिफारिश कर सकती थी। इस प्रकार इस समिति को प्रभावी रूप से वे ही अधिकार प्राप्त थे जो चार्टर के द्वारा सुरक्षा परिषद् को प्रदान किये गये थे। महासभा की भाँति इस समिति के सभी सदस्य-राज्यों को प्रतिनिधित्य प्राप्त था। प्रत्येक सदस्य-राज्य को एक-एक प्रतिनिधि भेजने का अधिकार था। इस दृष्टि से यह समिति महासभा का लघु संस्करण थी। निर्माण के समय इससे यह आशा की गयी थी कि यह स्थायी संस्था महासभा के कार्यों और दायित्वों को अधिक गतिशील और प्रभावी बना सकती थी। प्रारम्भ में इसका निर्माण एक वर्ष के लिए किया गया। बाद में इसका कार्यकाल एक वर्ष के लिये बढ़ा दिया गया।
कार्य-सूची
अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की बैठकों में भाग लेने के लिए जब प्रतिनिधिगण एकत्रित होते हैं तो उनके लिए प्रारम्भ में यह निर्णय करना आवश्यक हो जाता है कि वे किन-किन विषयों पर विचार करेंगे। ऐसे विषयों के योग को कार्य-सूची कहा जाता है। महासभा के समक्ष आने वाले विषय से सम्बन्धित कागज, सूचनाएँ और आँकड़े एंष कार्य सचिवालय तैयार करता है। महासभा के अधिवेशन के लिए कार्य-सूची तैयार करना अपने आप में जटिल एवं कठिन काम है। इसके लिए एक अंतरिम कार्य-सूची (Provisional agenda) महासचिव तैयार करता है। इसमें साधारणत: इन क्रम में विषय रखे जाते हैं :-
- संयुक्त राष्ट्रसंघ के कार्यों के सम्बन्ध में महासचिव की वार्षिक रिपोर्ट,
- सदस्यों द्वारा प्रकाशित विषय,
- आगामी वित्तवर्ष का बजट तथा पिछले वित्तवर्ष की लेखा-रिपोर्ट, एवं
- महासचिव द्वारा प्रस्तुत विविध आवश्यक विषय।
बैठक प्रारम्भ होने से कम-से-कम साठ दिन पूर्व यह अनतरिक सूची सभी सदस्यों में वितरित कर दी जाती है। सदस्यों की ओर से कार्य-सूची में कोई नया विषय जोड़ने की सूचना बैठक के कम-से-कम 25 दिन पूर्व तक दी जा सकती है। बैठक आहूत हो जाने के बाद भी कार्य-सूची में नये विषयों को जोड़ा जा सकता है यदि बहुमत सदस्य उन पर अपनी सहमति प्रदान कर देते हैं। महासभा के परिनियमों के अनुसार कार्यसूची में शामिल किये जाने के बाद किसी भी नये विषय पर सात दिनों तक वाद-विवाद नहीं हो सकता जब तक दो-तिहाई सदस्य इस तरह का निर्णय नहीं लेते। महासभा की कार्य-सूची का आकार प्रत्येक वर्ष बढ़ता चला जाता है। सिडनी डी0 बैली के मतानुसार “सदस्य संख्या में वृद्धि तथा नये सदस्यों के विविध हितों के कारा अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं की संख्या तथा जटिलता में वृद्धि हुई है और महासभा को उन पर विचार-विमर्श करके होता है।
संयुक्त राष्ट्र महासभा की मतदान-प्रणाली एवं समूह
महासभा की मतदान प्रणाली चार्टर की धारा 18 से विनियमित होती है। इस धारा के अनुसार महासभा में प्रत्येक सदस्य-राज्य को एक ही मत प्राप्त है। इसमें छोटे-छोटे या प्रतिनिधि-मंडल के सदस्यों की संख्या से कोई फर्क नहीं होता। अमरीका हो या क्यूबा, चीन हो या हाइटी, सभी को एक ही मत देना है। महासभा की बैठकों मे प्रत्येक वषिय पर मतदान करने का तरीका एक ही नहीं है। कुछ विषयों पर दो-तिहाई बहुमत की आवश्यकता होती है। महत्वपूर्ण विषय कौन से हैं, इसका उल्लेख कर दिया गया है। ये विषय हैं-विश्वशांति एवं सुरक्षा सम्बन्धी अनुशंसाएं, सुरक्षापरिषद्, आर्थिक-सामाजिक परिषद् तथा संरक्षण परिषद् के लिए सदस्यों का निर्वाचन, किसी राज्य को संयुक्त राष्ट्रसंघ का न्यास सदस्य बनाने के लिए मतदान, किसी सदस्य के अधिकारों एवं सुविधाओं को निलम्बित करना, न्यास व्यवस्था सम्बन्धी समस्याएं और बजट-सम्बन्धी विषय। अन्य विषयों पर बैठक में उपस्थित बहुमत से प्रस्ताव पारित होते हैं। परन्तु, महासभा सामान्य बहुमत से किसी विषय को महत्त्वपूर्ण घोषित करके उसे पारित होने के लिए दो-तिहाई बहुमत आवश्यक कर दे सकती है।
महासभा में मतदान के लिए धारा 18 महत्वपूर्ण और गैर-महत्वपूर्ण विषयों में विभेद करती है। आलोचकों के अनुसार इस तरह काविभेद उचित नहीं है। जैसा कि कैल्सन ने लिखा है, “धारा 18 की शब्दावली दुर्भाग्यपूर्ण है। किसी भी विषय को जिस पर महासभा में विचार किया जा रहा हो, उसे गैर-महत्वपूर्ण कैसे कहा जा सकता है ?”
धारा 19 में यह व्यवस्था है कि उस सदस्य को, जिसने संयुक्त राष्ट्रसंघ को अपना वित्तीय अनुदान अदा किया हो, महासभा में मतदान का अधिकार नहीं रह जाता। किन्तु महासभा किसी ऐसे सदस्य को मत देने की अनुमति प्रदान कर सकती है। जिसकी तरफ से उसको संतोष हो गया है कि चन्दे का भुगततान करना सदस्य-राष्ट्र के नियंत्रण से बहार है।
महासभा की मतदान-प्रणाली पर विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि वह राष्ट्रसंघ की सभा की मतदान-प्रणाली से अधिक उदार है। वैन्डेनबोश तथा होयन इसे राष्ट्रसंघ की पद्धति से अधिक सुधरी हुई तथा प्रगतिशील बतलाते हैं। राष्ट्रसंघ की सभा में निर्णय के लिए सर्वसम्मत आवश्यक था यानी उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यो का एकमत होना। इसका अर्थ यह था कि सभा कोई ाी सदस्य अपने निषेधाधिकार के बल पर उसके निर्णय को रोक सकता था। संयुक्त राष्ट्रसंघ की महासभा में निर्णय लेने के लिए सर्वसम्मत प्रणाली उठा दी गयी है। उसकी जगह कुछ विषय पर दो-तिहाई तथा कुछ पर सामान्य बहुमत से निर्णय लेने की व्यवस्था है। जिस प्रकार राष्ट्र के अन्दर अधिक व्यापक लक्ष्यों के लिए इकट्ठे होकर काम करने के लिए जब व्यक्तियों ने छोटे-छोटे मतभेद भुला दिये तो उससे राजनीतिक दलों का जन्म हुआ, उसी प्रकार राष्ट्र भी अपने सामान्य जितों की प्रापित के लिए इकट्ठा होकर अलग-अलग गु्रप अथवा समूह बना लेते हैं।
संयुक्त राष्ट्र महासभा के कार्य एवं शक्तियां
महासभा संयुक्त राष्ट्रसंघ का एक प्रमुख एवं प्रभावशाली अंग है। संघ के चार्टर में संयुक्त राष्ट्रसंघ के प्रमुख अंगों में इसको प्रथम स्थान प्रदान किया गया है। इसके अधिकार तथा कार्य काफी व्यापक तथा विस्तृत है। चार्टर की धारा 10 से 17 तक इसके अधिकारों तथा कार्यों का उल्लेख है। धारा 10 उसके सामान्य अधिकारों से सम्बद्ध है। इसके अनुसार महासभा को चार्टर के अन्तर्गत आने वाले सबअ विषयों पर विचार-विमर्श करने का अधिकार है। चार्टर में दिये गये अन्य अंगों से सम्बन्धित विषयों पर भी यह सभा वाद-विवाद कर सकती है। विश्व-शान्ति और सुव्यवस्था बनाए रखने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग के तत्कालिक प्रयोग एवं परम्परा बनाने के हेतु हर सम्भव प्रयत्न करना इसका प्रयत्न करना इसका सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं सर्वप्रथम दायित्व है।
- संयुक्त राष्ट्र महासभा विचारात्मक कार्य,
- संयुक्त राष्ट्र महासभा निरीक्षणात्मक कार्य,
- संयुक्त राष्ट्र महासभा वित्तीय कार्य,
- संयुक्त राष्ट्र महासभा संगठनात्मक कार्य,
- संयुक्त राष्ट्र महासभा संशोधन सम्बन्धी कार्य,
- संयुक्त राष्ट्र महासभा विविध कार्य।
संयुक्त राष्ट्र महासभा विचारात्मक कार्य
संयुक्त राष्ट्रसंघ के निर्माताओं का उद्देश्य महासभा के रूप में एक ऐसी संस्था का निर्माण करना था जहाँ विश्व-शांति से सम्बद्ध किसी भी विषय पर विचार किया जा सके। जैसा कि केल्सन ने लिखा है, “उनकी मंशा महासभा को विश्व की नगर सभा’ या ‘मानव का उन्मुक्त अन्त:करण’ बनाने की थी अर्थात् वे उसे आलोचना एवं विचार-विमर्श करने वाला अंग बनाना चाहते थंे।” इसलिए चार्टर के अन्तर्गत उसे विश्व-शांति से सम्बद्ध किसी भी विषय पर विचार-विमर्श करने के विस्तृत अधिकार प्राप्त हैं।
शांति और सुव्यवस्था के मामले में आम सभा को व्यापक विचारात्मक अधिकार प्राप्त हैं। यद्यपि इस क्षेत्र में प्राथमिक जिम्मेदारी सुरक्षा परिषद् को प्रदान की गयी है लेकिन महासभा को यह अधिकार है कि वह शांति और सुरक्षा बनाये रखने के लिए सहयोग के सामान्य सिद्धान्त पर विचार कर सकती है तथा निर्णय लेकर संयुक्त राष्ट्रसंघ के सदस्यों अथवा सुरक्षा परिषद् के सदस्यों अथवा दोनों के पास ही िसाफारिश कर सकती है। अनुच्छेद 11 में महासभा के इस अधिकार की चर्चा की गयी है। इस अनुच्छेद के अनुसार महासभा विश्वशांति और सुरक्षा को स्थापित करने के सिद्धान्तों पर विचार कर सकती है। यह निरस्त्रीकरण और शस्त्रों के नियंत्रण पर भी विचार कर सकती है।
इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि चार्टर के अन्तर्गत महासभा को निरोधात्मक या दंडात्मक कार्रवाई करने का अधिकार नहीं प्राप्त है। उसका काम है, विचार-विमर्श करना और उससे सम्बन्धित सिफारिश करना। अधिक-से-अधिक वह किसी समस्या की ओर सुरक्षा परिषद् का ध्यान आकृष्ट कर सकती है, यदि उससे शांति भंग हुई हो अथवा होने का भय हो परन्तु यहाँ आकर उसका काम समाप्त हो जाता है।
महासभा ने सन् 1950 में एक प्रस्ताव द्वारा अपने अधिकारों को बढ़ाने की चेष्टा की। यह प्रस्ताव ‘शांति के लिए एकता’ (Unity for Peace) के नाम से प्रसिद्ध है। इस प्रस्ताव के अनुसार शांति को खतरा, शांति-भंग अथवा आक्रमण की विभीषिका के सम्बन्ध में स्थायी सदस्यों के एकमत न होने के कारण यदि सुरक्षा परिषद् कार्य-संचालन में असफल रहे तो महासभा तूरन्त ही उस पर विवाद करा सकती है और सामूहिक कदम उठाने के लिए उचित सिफारिशें कर सकती है ताकि अन्तर्रश्ट्रीय शांति और सुरक्षा कायम रहे।” प्रस्ताव के अनुसार यदि महासभा का अधिवेशन न हो रहा हो तो सुरक्षा परिषद् के किन्हीं 9 सदस्यों के साधारण बहुमत से अथवा संघ के सदस्यों के बहुमत से 24 घंटे के अन्दर महासभा का संकटकालीन अधिवेशन बुलाया जा सकता है।
इस प्रकार ‘शांति के लिए एकता प्रस्ताव’ से महासभा की स्थिति अधिक महत्वपूर्ण हो गयी। इससे यह भी स्पष्ट हो गया कि यदि सुरक्षा परिषद् में निषेधाधिकार के कारण गतिरोध पैदा हो जाता है तो इस रिक्तता को महासभा अवश्य पूरी करे। इसका तात्पर्य यह हुआ कि यदि महासभा जैसा आवश्यक समझे तो सैनिक अथवा सशस्त्र कार्रवाई करने के लिए भी सिफारिश कर सकती है। स्पष्ट है कि इस प्रस्ताव से संघ के स्वरूप में क्रांतिकारी परिवर्तन आया है। हॉफमैन के अनुसार “यह प्रस्ताव चार्टर में क्रांतिकारी तथ्यत: परिवर्तन का सूचक है और सामूहिक कार्रवाई के रास्ते को फिर से खोलने का प्रयास करता है।” व्यवहार में भी ऐसा देखा गया है कि शांति और सुरक्षा के क्षेत्र में विचार-विमर्श और अनुशंसा करने वाली संस्था के रूप में महासभा को जो अधिकार प्रदान किये गये हैं, उसने उनका व्यापक प्रयोग किया है।
यहाँ इस बात का उल्लेख कर देना आवश्यक है कि विश्व संसद नहीं होने के कारण महासभा के निर्णय तथा प्रस्ताव आदेशात्मक नहीं होते। फिर भी इसके निर्णय कभी-कभी सदस्य-राज्यों पर काफी प्रभावकारी रहे हैं। सन् 1956 में स्वेज नही संकट के समय महासभा की भूमिका से यह बात स्पष्ट हो जायेगी। 7 नवम्बर, 1956 को संयुक्त राष्ट्रसंघ की महासभा ने एशियाई-अफ्रीकी देशों द्वारा प्रस्तुत यह प्रस्ताव पारित किया कि ब्रिटिश, फ्रांसीसी और इजरायली सेनाएँ मिò से हटा ली जायें और स्वेज नहर-क्षेत्र में अन्तर्राष्ट्रीय पुलिस की व्यवस्था की जाए। जब आक्रमणकारियों ने अपनी सेनाएं हटाने में देर की तो महासभा ने 24 नवम्बर को एक दूसरा प्रस्ताव पास कर आक्रमणकारियों को यह आदेश दिया कि वे यथाशीघ्र अपनी सेनायें वापस बुला लें। ब्रिटेन और फ्रांस ने शीघ्र ही सभा के आदेश का पालन किया पर इजरायल हटने का नाम नहीं लेता था। इस पर सभा ने एक और प्रस्ताव पास कर सदस्य-राज्यों को आदेश दिया कि वे इजरायल को किसी प्रकार की आर्थिक और सैथ्नक सहायता न दें। इस पर इजरायल को भी हटना पड़ा। इसी प्रकार कोरिया युद्ध के समय में महासभा के प्रस्तावों ने अमेरिका की कोरिया-सम्बन्धी नीति पर अवरोधक प्रभाव डाला था। फिर भी यह स्वीकार करना पड़ेगा कि महासभा के निर्णयों को कोई कानूनी बाध्यता नहीं प्राप्त है। इसीलिए इसकी सिफारिशों की अनेक अवसरों पर अवहेलना भी की गयी है।
संयुक्त राष्ट्र महासभा निरीक्षणात्मक कार्य
महासभा संयुक्त राष्ट्रसंघ की केन्द्रीय संस्था है, अत: चार्टर के द्वारा इसके कुछ निरीक्षणात्मक कार्य प्रदान किये गये हैं। इस कार्य के अन्तर्गत सहासभा को सुरक्षा परिषद् तथा संयुक्त राष्ट्रसंघ के अन्य विभागों से रिपोर्ट प्राप्त करने एवं उस पर विचार कर अपना मत प्रकट करने का अधिकार प्राप्त है। चार्टर के 15वें अनुच्छेद में महासभा को संघ के दूसरे अंगों से प्रतिवेदन प्राप्त करेगी और उस पर विचार करने के लिए अधिकृत करता है। विद्वानों से महासभा के इस कार्य को काफी महत्व प्रदान किया है।
महासभा के समक्ष आने वाले प्रतिवेदनों में महत्व की दृष्टि से महासचिव का वार्षिक प्रतिवेदन उल्लेखनीय है। इसने सम्पूर्ण संघ की कार्रवाइयों एवं समान्य हित के विषयों का विवरण रहता है। इसके अलावा अनुच्छेद 15 और 24 के अन्तर्गत सुरक्षा परिषद् को महासभा के समझा अपना वार्षिक प्रतिवेदन पेश करना होता है। इसमें सुरक्षा परिषद् की साल भर तो कार्रवाई का विवरण होता है। चार्टर में इस बात को स्पष्ट करने का प्रयास नहीं किया गया है कि सुरक्षा परिषद् कब अपना प्रतिवेदन पेश करेगी। ऐसा लगता है कि चार्टर के निर्माताओं ने इस सम्बन्ध में सुरक्षा परिषद् को काफी स्वतंत्रता देनी चाही थी। संघ के दूसरें अगों के भी महासभा का प्रतिवेदन प्राप्त करने का अधिकार है। इन प्रतिवेदनों पर महासभा में खुलकर वाद-विवाद तथा आलोचना अथवा अभिस्तवन किया जाता है। महासभा सुरक्षा परिषद् या सम्बद्ध सदस्य-देशों को अपने विचार एवं अनुशंसा से अवगत करा सकती है।
चार्टर के अनुच्छेद 13 के अनुसार राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सोंस्कृतिक, शैक्षणिक और स्वास्थ्य सम्बन्धी क्षेत्रों में अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग को प्रोत्साहन देने के लिए महासभा प्रारम्भिक अध्ययन द्वारा जांच-पड़ताल की व्यवस्था कर सकती है तथा इस विषय में अपनी सिफारिशें भी प्रस्तुत कर सकती है।
संयुक्त राष्ट्र महासभा वित्तीय कार्य
महासभा का एक अन्य महत्वपूर्ण कार्य संयुक्त राष्ट्रसंघ की वित्तीय व्यवस्था से सम्बद्ध है। यह कार्य राष्ट्रीस व्यवस्थापिका के पारम्परागत धन-सम्बन्धी कार्यों से मिलता-जुलता है। साधारण तथा सरकार में वित्त पर नियन्त्रण रखने का अधिकार प्रतिनिधि सभा को प्रदान किया जाता है। अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों में भी लगभग ऐसी ही व्यवस्था पायी जाती है। उदाहरणार्थ, राष्ट्रसंघ में यह कार्य असेम्बली के द्वारा सम्पादित किया जाता था। प्रारम्भ में जिस समिति को बजट पर नियंत्रण रखने का अधिकार दिया गया था, उसकी संरचना राष्ट्रसंघ की कौंसिल करती थी। परन्तु बाद में सन् 1928 में यह अधिकार सभा ने अपने हाथों में ले लिया। तब से राष्ट्रसंघ के बजट पर असेम्बली का अधिकार हो गया। संयुक्त राष्ट्रसंघ के चार्टर में भी यह अधिकार महासभा को प्रदान किया गया।
तात्पर्य यह है कि विश्व-संस्था की वित्तीय व्यवस्था पर निर्णायक अधिकार होने से महासभा का महत्त्व सर्वाधिक होना स्वाभाविक है। गुड्सपीड के अनुसार, “ये उपबन्ध, जो संघ के बजट तथा वित्त पर नियन्त्रण का अधिकार महासभा को प्रदान करते हैं, सम्पूर्ण संगठन पर उसके नियंत्रण को और भी दृढ़ बना देते हैं।” वेन्डेनबोश तथा होगन के शब्दों में “अपने इस अधिकार के चलते सम्पूर्ण संगठन के प्रशासन में महासभा की स्थिति अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हो जाती है।” वास्तव में इन कथनों में बहुत कुछ सच्चाई है। कहा भी जाता है कि जिसके पास वित्तीय होती है, वास्तविक शक्ति उसी के पास होती है।
संयुक्त राष्ट्र महासभा संगठनात्मक कार्य
महासभा को कुछ संगठनात्मक कार्य भी सम्पादित करने होते हैं। इस कार्य के अन्तर्गत वह दोहरे निर्वाचन-सम्बन्धी अधिकार को प्रयोग करती है। सर्वप्रथम, महासभा सुरक्षा परिषद् की सलाह पर संघ में नये सदस्यों को सदस्यता प्रदान करती है। परन्तु संघ में महासभा की अनुमति पर अब तक प्रवेश सम्भव नहीं है। जब तक सुरक्षा परिषद् का समर्थन नहीं प्राप्त हो जाता। इस दृष्टिकोण से यदि देखा जाये तो महासभा की शक्ति राष्ट्रसंघ की असेम्बली से भी कम है। असेम्बली को दो-तिहाई बहुमत से बिना परिषद् की सिफारिश के ही नये सदस्यों के प्रवेश की पुष्टि कर देने का अधिकार था। चार्टर के सिद्धान्तों की अवहेलना करने पर सुरक्षा परिषद् के किसी भी सदस्य को निष्कासित भी कर सकती है। अनुच्छेद 5 में यह भी कहा गया है कि संयुक्त राष्ट्रसंघ के वैसे किसी भी सदस्य, जिनके विरुद्ध बाध्यकारी कदम उठाये जा चुके हैं, सदस्यता की सुविधा एवं अपने अधिकारों के उपयोग करने से महासभा अथवा सुरक्षा परिषद् द्वारा वंचित किये जा सकते हैं।
महासभा का दूसरा संगठनात्मक कार्य-संघ के अंगों के निर्वाचित सदस्यों के चयन से सम्बन्धित है। महासभा सुरक्षा परिषदृ के उस अस्थायी सदस्यों का चुनाव करती है। निर्वाचन महासभा के दो-तिहाई मतों से होता है। कुछ विद्वानों की दृष्टि से सुरक्षा परिषद् के अस्थायी सदस्यों के निर्वाचन करने का अधिकार महासभा को शांति एवं सुरक्षा के कार्यों में महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान करता है। इससे महासभा को परिषद् पर किंचित अप्रत्यक्ष रूप से ही सही, नियंत्रण-सूत्र मिल जाता है। महासभा आर्थिक और सामाजिक परिषद् के गठन में महासभा का पूरा हाथ होता है। न्यास परिषद् के कुछ सदस्यों का चुनाव भी महासभा के द्वारा ही होता है। न्यास परिषद् के कुछ सदस्यों का चुनाव भी महासभा के द्वारा ही होता है। इसके अलावा सुरक्षा परिषद् की अनुशंसा अथवा उससे मिलकर वह कुछ सर्वोच्च पदाधिकारियों की नियुक्ति या निर्वाचन भी करती है।
4. संयुक्त राष्ट्र महासभा संशोधन सम्बन्धी कार्य –
अनुच्छेद 108 के अनुसार महासभा को चार्टर में संशोधन लाने की शक्ति प्रदान की गयी है। इसके अनुसार महासभा को सुरक्षा परिषद् के साथ मिलकर चार्टर पर विचार करने के लिए सामान्य सम्मेलन बुलाने का अधिकार प्रदान किया गया है। इस सम्मेलन द्वारा लाया गया कोई भी संशोधन दो-तिहाई सदस्यों द्वारा संविधानिक प्रक्रिया से पारित होने पर लागू हो जाता है। चार्टर में यह भी व्यवस्था की गयी है कि यदि महासभा के दसवें वार्षिक अधिवेशन के पहले ऐसा सम्मेलन नहीं होता तो सम्मेलन करने का प्रस्ताव महासभा के उसी अधिवेशन की कार्यावली पर रखा जायेगा और यदि महासभा के बहुमत से और सुरक्षा परिक्षद् में किन्हीं 9 सदस्यों के मत से यह स्वीकार कर लिया जाता है तो ऐसा सम्मेलन होगा। परन्तु अभी तक इस तरह का कोई सम्मेलन नहीं हो पाया है। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि चार्टर में कोई दूसरी विधि से संशोधन नहीं हो सकता। महासभा को अपनी दो-तिहाई बहुमत से चार्टर में संशोधन लाने की सिफारिश करने का अधिकार है। परन्त इस तरह का संशोधन तब तक लागू नहीं होगा जब तक उस पर संयुक्त राष्ट्रसंघ के दो-तिहाई सदस्यों, जिनमें सुरक्षा परिषद् की पाँच महाशक्तियों का एक मत शामिल हो, का समर्थ प्राप्त नहीं हो जाता।
संयुक्त राष्ट्र महासभा विविध कार्य
उपर्युक्त कार्यों के अतिरिक्त महासभा को कुछ अन्य कार्य भी करने पड़ते हैं। वह अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में सुधार लाने के हेतु अनेक प्रकार की अनुशंसा कर सकती है। इसमें मौजूदा संधियों में उपर्युक्त परिवर्तन करने की अनुशंसा भी शामिल है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जो संधियाँ हुई हैं, उनमें परिवर्तन करने की अनुशंसा महासभा कर सकती है। अन्य अन्तर्राज्य समझौतों में उपर्युक्त परिवर्तन अथवा उन्हें खत्म करने की सिफारिश कर सकती है। राज्यों के वर्तमान सीमांतों में भी परिवर्तन करने की अनुशंसा महासभा के कार्य-क्षेत्र के अन्तर्गत है। महासभा का एक महत्वपूर्ण कार्य अन्तर्राष्ट्रीय कानून का विकास तथा संहिताकरण करना तथा मानव अधिकारों और आधारभूत स्वतन्त्रताओं की रक्षा करना है। अपनी इस भूमिका के निर्वाह में महासभा अनेक ऐसे प्रस्ताव पारित करती है। (जैसे जातिबद्ध समझौता) जिनके द्वारा राष्ट्रीय जातीय अथवा धार्मिक समूहों की सामूहिक हत्या को अवैध करार दिया जाता है और जो सदस्य राज्यों द्वारा अनुसमर्थित किये जाने के बाद अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में एक कानून की भांति प्रभावी हो जाता है। अन्तर्राष्ट्रीय कानून के क्रमिक विकास और संहिताकरण के क्षेत्र में इसका एक महत्वपूर्ण कार्य यह है कि वह इस बात का अध्ययन करती रहती है कि ऐसे कौन से कानून हो सकते हैं जिन्हें सभी राष्ट्रों द्वारा स्वीकृति प्राप्त हो जायेगी। यह महासभा का अन्वेषणात्मक कार्य कहा जा सकता है।
संयुक्त राष्ट्र महासभा के कार्यों का मूल्यांकन तथा उसका बढ़ता हुआ महत्व
महासभा के विभिन्न कार्यों तथा अधिकारों का अध्ययन करने के बाद हम पाते हैं कि इसके अधिकार काफी व्यापक हैं पर चार्टर के द्वारा इन अधिकारों को काफी सीमित कर दिया गया है। वास्तव में संयुक्त राष्ट्र संघ के निर्माताओं का विचार था कि सुरक्षा परिषद् संयुक्त राष्ट्र का प्रधान कार्यकारी अंग होगी और महासभा एक वाद-विवाद के मंच के रूप में कार्य करेगी। इसीलिये सुरक्षा परिषद् को बाध्यकारी शक्ति प्रदान की गई जबकि महासभा को केवल सिफारिशें करने का अधिकार दिया गया। अमरीकी सचिव स्टेटीनिब्स ने ने कहा था, “महासभा का कार्य केवल विचारात्मक है तथा यह प्रस्ताव पारित करने वाली संस्था है। परन्तु सुरक्षा परिषद् अन्तर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा कायम करने के लिए कार्य करती है।” चार्टर के निर्माण हेतु बुलाये गये डम्बार्टन ओक्स तथा सेन फ्रांसिस्को सम्मेलन में छोटे राज्यों ने महासभा को शक्तिशाली बनाने का प्रयास किया था किन्तु उनका यह प्रयास सफल नहीं हो सका। बड़े देश महासभा को सौतेले की तरह उपेक्षा भरी नजर से देख रहे थे। चूँकि उनका इसमें बहुमत नहीं था। अत: वे इसे न तो प्रभावकारी अंग बनाना चाहते थे और न ऐसा अंग ही जो सुरक्षा-समस्याओं से सम्बन्धित हो।
लेकिन कालान्तर में परिस्थितियों के चलते यह स्थिति बदल गई और महासभा का महत्व निरन्तर बढ़ता गया। इसके विपरीत सुरक्षा परिषद् का प्रभाव घटा। विगत वर्षों में संयुक्त राष्ट्रसंघ के कार्य-करण के अवलोकन से यह बात स्पष्ट हो जाती है। शुरु-शुरु में – सन् 1946 में सुरक्षा परिषद् ने आठ राजनीतिक प्रश्नों पर विचार किया था। वहाँ सभा ने केवल दो प्रश्नों पर। इस प्रकार परिषद् ने राजनीतिक कार्रवाई करने वाले प्रमुख अंग के रूप में अपना जीवन शुरु किया। किन्तु बाद में स्थिति बदल गयी। जून, 1952 से जून, 1953 तक बारह महीनों में महासभा ने 11 मामलों पर विचार किया जबकि सुरक्षा परिषद् ने सिर्फ पांच पर। सुरक्षा परिषद् के घटते हुए प्रभाव का पता हमें उसी बैठकों की घटती हुई संख्या से भी लगता है। 16 जुलाई, 1947 से लेकर 15 जुलाई, 1949 तक जहाँ सुरक्षा परिषद् की 180 बैठकें हुई। वहाँ 1952.53 में सिर्फ 26 ही। ऐसा लगता है कि 1948 के बाद सुरक्षा परिषद् की जगह महासभा ने ले ली। यद्धपि यह सत्य है कि महासभा कालान्तर में यह सुरक्षा परिषद् के निर्णयों के विरुद्ध एक अपीलीय संस्था के रूप में परिणत हो गयी।
सारांश यह है कि संयुक्त राष्ट्रसंघ के निर्माताओं की इच्छा के विपरीत महासभा की प्रतिष्ठा में निरन्तर वृद्धि होती रही है । इसके कारण हैं :-
(i) महासभा में विश्व के प्राय: सभी देशों का प्रतिनिधित्व होता है और इस प्रकार लोकतंत्र के युग में यह विश्व लोकमत का प्रतीक बन गई है यहाँ पर लिये गये निर्णयों का कोई भी राष्ट्र सामान्यत: उपेक्षा नहीं कर सकता।
(iii) महासभा की प्रतिष्ठा की वृद्धि में अफ्रीकी-एशियाई देशों का भी सक्रिय योगदान है। आज संयुक्त राष्ट्रसंघ के सदस्योंं का सबसे बड़ा समूह अफ्रीकी-एशियाई समूह है जिसके सदस्यों की संख्या आधी शर्तों से भी अधिक बढ़ गई हैं। इसमें से केवल ग्यारह संयुक्त राष्ट्रसंघ के संस्थापक सदस्य हैं। ये नवोदित तथा विकासशील देश महासभा के सदस्य होने के नाते इसकी ओर अधिक भरोसे के साथ देखते हैं। उनके लिए महासभा ही संघ का ऐसा अंग है जहाँ वे अपनी संख्या के बहुमत के बल पर अपने पक्ष को बड़ी शक्तियों के विरुद्ध दृढ़ता के साथ प्रस्तुत कर सकते हैं तथा निर्णय ले सकते हैं। अत: संयुक्त राष्टसंघ में महासभा को सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं उचित भूमिका दिलाने के लिए वे प्रयत्नशील रहे हैं।
(iv) एक अन्य महत्वपूर्ण कारण है – सस्थायी सदस्यों में मतभेद और उनके निषेधाधिकार के प्रयोग के कारण सुरक्षा परिषद् की क्षमता में निरन्तर कमी। निषेधाधिकार के अनुचित और अधिक प्रयोग के कारण सुरक्षा परिषद् अधिक लाभकारी नहीं रही है। यह कोई भी निर्णय नहीं ले पाती और न किसी झगड़े को सुलझा पाती है। अत: संकटकालीन स्थिति में सदस्य राज्य इस पर पूरा भरोसा नहीं कर सकते। ऐसी स्थिति में उनके लिए यह आवश्यक था कि वे संघ के किसी अंग को शक्तिशाली बनावें जिससे कि वह सुरक्षा-परिषद् में निषेधाधिकार के कारण गतिरोध पैदा हो जाने पर उस रिक्तता को पूरा कर सके। इसी स्थिति में 3 नवम्बर, 1950 को ‘शांति के लिए एकता प्रस्ताव’ को जन्म दिया। इस प्रस्ताव ने महासभा की शक्तियों में महत्वपूर्ण परिवर्तन ला दिया।
(v) संयुक्त राष्ट्र संघ में छोटे राज्यों की बहुलता ने भी महासभा को एक शक्तिशाली संस्था बनाने में योगदान किया है। इन राज्यों के पास सैन्य या आर्थिक शक्ति अधिक नहीं है। उनकी अर्थ-व्यवस्था में अधिकांश का आधार मात्र जीवन-यापन करने योग्य खेती है। उनका निर्यात-व्यापार कभी-कभी एक ही वस्तु तक सीमित होता है। शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधाएं अपर्याप्त हैं। इन देशों के लिए जो अपनी भौतिक दुर्बलता के प्रति सचेत हैं, महासभा एक ऐसा मंच हे, जहाँ दुर्बलता से कोई विशेष हानि नहीं होती। महासभा ही एक ऐसा अंग है जहाँ वे अपनी बहुमत के आधार पर संयुक्त राष्ट्रसंघ के कार्यान्वयन को प्रभावित कर सकते हैं और अपने हित में निर्णय कराने में सफल हो सकते हैं। यही कारण है कि महासभा ऐसे राज्यों में अधिक लोकप्रिय है। उन्होंने सेन फ्रांसिस्को सम्मेलन में ही महासभा की शक्तिशाली बनाने का प्रयास किया था। परन्तु वहाँ सफल नहीं हो सके। बाद की घटनाओं ने उसका साथ दिया। महाशक्तियों के मतभेद तथा निषेधाधिकार के प्रयोग के कारण सुरक्षा-परिषद् बिल्कुल नाकामयाब साबित हुई। छोटे राज्यों ने परिषद् की कमजोरियों से लाभ उठाया और महासभा के प्रभाव में वृद्धि के लिए निरन्तर दबाव डालना शुरु किया। यही संस्था उनकी बड़ी उम्मीदों और महासभा के रूप में है। उनके प्रयास से शक्ति का हस्तान्तरण परिषद् से सभा के हाथों में हुआ।
उपर्युक्त कारणों के चलते अपने संस्थापकों की इच्छा के विपरीत महासभा एक बड़ा अंग बन गयी, और इसकी कोई संभावना नहीं कि उसकी यह स्थिति कभी बदल भी पायेगी। व्यवहार में भी महासभा ने केवल विश्व-मंच के रूप में ही कार्य किया है, वरन् महत्वपूर्ण प्रश्नों पर विचार कर निर्णय भी लिया है। इसने नकारात्मक और सकारात्मक दोनों दिशाओं में कार्य किया है। नकारात्मक कार्य के द्वारा इसने राजनीतिक आग बुझाने में मदद की है तथा सकारात्मक कार्यों के द्वारा इसने आग लगने की गुजाइश कम की है। कुछ इने-गिने यूरोपीय राज्यों से शुरु होने वाली यह संस्था आज ‘विश्वजीत’ कहलाने का दावा करने लगी है। यहाँ अणुबम से लेकर मानवीय कल्याण, भोजन, कपड़ों, आवास तक की सभी समस्याओं पर विचार होता है, अत: इसे विश्व का उन्मुक्त अन्त:करण ठीक ही कहा जाता है।
