अनुक्रम
शेरशाह सूरी की विजय यात्रा
सम्राट बनने के बाद शेरशाह सूरी ने 1541 ई. में हुमायूं के भाई कामरान को हराया तथा उससे पंजाब छीन लिया । 1542 ई. में मालवा तथा 1543 ई. में रायसेन का किला ले लिया । उसी वर्ष मुलतान तथा सिंध भी उसके अधिकार क्षेत्र में आ गए । चारों ओर से निश्चिंत होकर उसने राजपूतों को अपना लक्ष्य बनाया । 1544 ई. में उसने मारवाड़ पर चढ़ाई की । राजपूतों ने वीरता के साथ उसका सामना किया ।
शेरशाह सूरी का शासन प्रबंध
शेरशाह सूरी का राज्यकाल शासन- प्रबन्ध की दृष्टि से भारत के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखता है । उसने कोई मौलिक सुधार तो नहीं किये, अपने प्रशासन में पुरानी संस्थाओं को जो नया स्वरूप प्रदान किया तथा उसे लोक कल्याण का साधन बनाया, वह उसकी महान देन है । शेरशाह के शासन प्रबंध की प्रमुख विशेषताएं हैं-
1. केन्द्रीय शासन
शासन की सुविधा के लिये उसने सल्तनतकालीन व्यवस्था के आधार पर ही अनेक विभागों की स्थापना की तथा मंत्रियों को इन विभागों का उत्तरदायित्व सौंपा । फिर भी शासन की नीति का निर्धारण एव उसमें किसी पक्रार के परिवर्तन का अधिकार उसके पास सुरक्षित था। शेरशाह ने शासन की सुविधा के लिए केन्द्रीय शासन को पांच भागों में विभाजित कर दिया था-
- दीवान-ए-वजारत- इस विभाग का प्रमुख वजीर होता था, जो साम्राज्य के वित्त संबंधी कार्यो की देखभाल करता था । (
- दीवान-ए-आरिज- यह सैन्य विभाग का प्रमुख होता था । इसका कार्य सैनिकों की भर्ती, संगठन नियंत्रण एवं उनका वेतन वितरण करना था ।
- दीवान-ए-रसातल- यह विदेश मंत्री होता था, जो विदेशों से संबंधित कार्यो को सम्पादित करता था ।
- दीवान-ए-इशा- यह शाही घोषणाएं करता था तथा शाही पत्रों का हिसाब रखता था ।
- दीवान-ए-कजा- इस विभाग का मंत्री प्रधान काजी होता था, जो न्याय व्यवस्था के दायित्व का निर्वहन करता था । दिवाने-वरीद डाक व गुप्तचर व्यवस्था करता था । इन व्यवस्थाओं के बाद भी शेरशाह सूरी स्वयं भी प्रशासनिक व्यवस्था का निरन्तर निरीक्षण करते रहता था । यही उसकी सफलता का रहस्य था ।
2. प्रान्तीय शासन
- प्रान्त- शेरशाह ने सामा्रज्य को प्रान्तों में विभाजित किया था। प्रान्त को इक्ता कहा जाता था । इसके अधिकारी को हाकिम या फौजदार कहते थे । इक्ता का अधिकारी नागरिक तथा सैनिक दोनों प्रकार के अधिकारों का प्रयोग करता था ।
- सरकार या जिला- डॉं. ईश्वरी प्रसाद के अनुसार, ‘‘शेरशाह ने अपने साम्राज्य को 47 सरकारों में विभाजित किया था । प्रत्येक सरकार में दो प्रमुख अधिकारी होते थे ।’’ दोनों अधिकारी मुख्य शिकदार तथा मुख्य मुन्सिफ कहलाते थे, जो सरकार में शान्ति तथा कानून व्यवस्था बनाये रखते थे । वे सरकार की देख-रेख के साथ चलते-फिरते न्याय करते थे। इसका उद्देश्य त्वरित न्याय प्रदान करना था
- परगना- शेरशाह ने सरकार को शासन व्यवस्था की दृष्टि से परगनों में विभाजित किया प्रत्येग परगने में एक शिकदार तथा एक मुन्सिफ और दो अधिकारी होते थे । इनके अतिरिक्त एक खजांची, दो कारकून तथा एक लेखाकार होता था । खजांची, खजाने का अधिकारी होता था। लेखाकार भूमि तथा भूमिकर के आंकड़े रखता था ।
- गांव- प्रत्येक परगने में अनेक गांव होते थे । प्रत्येक गांव में एक ग्राम पचायत होती थी । पंचायत गांव की सुरक्षा, शिक्षा तथा सफाई आदि का प्रबन्ध करती थी । पंचायत के सहयोग के लिए चौकीदार तथा पटवारी तोते थे ।
3. आर्थिक व्यवस्था
इस काल में भू-राजस्व राज्य की आय का प्रमुख स्रोत था । शेरशाह सूरी ने भूमि सुधार पर विशेष ध्यान दिया । उत्पादन के आधार पर भूमि कर लिया जाता था, पर हमेशा उत्पादन समान नहीं होता था । अतएव कर-व्यवस्था ठीक नहीं थी, शेरशाह सूरी ने इस व्यवस्था में सुधार किया । शेरशाह ने कृषि योग्य भूमि को बीघों में नपवाया, इसे ‘टोडरमल’ या ‘जाब्ता’ प्रणाली भी कहते थे । उसने जमींदारी प्रथा को समाप्त कर किसान तथा सरकार के बीच सीधा संबंध स्थापित किया था । उपज के आधार पर भूमि को तीन भागों में विभक्त किया गया । भूमि का उत्पादन का 1/3 से लेकर 1/4 तक निश्चित किया गया । कर, अनाज या नकद के रूप में लिया जाता था । किसान स्वयं खजाने में लगान जमा करते थे, वसूली सख्ती से की जाती थी । युद्ध के समय किसानों तथा उनके खेतों का ध्यान रखा जाता था । अकाल के समय किसान राजकोष से सहायता पाते थे । भू-कर छोड़कर खम्स, चुगी, जजिया, उपहार तथा सरकारी टकसाल भी आय के स्त्रोत थे । वह गरीबों की अपेक्षा अमीरों से अधिक कर लेने का पक्षपाती था ।
4. सैन्य व्यवस्था
सम्राट बनने के पूर्व शेरशाह सूरी के पास काइेर् स्थायी सेना नहीं थी । जागीरदारों के पास सेनाएं होती थीं । वे स्वाभाविक रूप से राजा के प्रति विश्वासपात्र न होकर जागीरदारों के प्रति होते थे । कभी-कभी जागीरदार भी सम्राट के विरोध में उठ खड़े होते थे । उक्त बुराइयों के नाम पर शेरशाह सूरी ने अपनी एक स्थायी सेना तैयार की, जिसमें 1,50,000 घुड़सवार, 25,000 पैदल तथा 300 जंगी हाथी तथा तोपखाना होता था । शेरशाह सूरी स्वयं अच्छे सैनिकों की भर्ती करता था । ग्वालियर, रायसेन, बयाना, रोहिताष जैसे सामरिक महत्व के स्थलों में शेरशाह सूरी ने प्रशिक्षित सैनिकों की टुकड़ी रख छोड़ी थी । सैनिकों को वेतन और पदोन्नति दी जाती थी । घोड़े तथा सैनिकों का परिचय पत्र बनाया गया था । घोड़े को दागने की प्रथा थी, सैनिकों के प्रशिक्षण की व्यवस्था थी । वैसे शेरशाह सबकी सुविधाओं का ध्यान रखता था, पर अनुशासनहीनता पर कठोर दण्ड देता था । सैन्य शक्ति को सुदृढ़ करने के लिए उसने अनेक छावनियां तथा किले बनवाये थे । उसकी सैन्य व्यवस्था उन्नत, सुधरी हुई तथा उस काल के अनुकूल थी ।
5. न्याय व्यवस्था
शेरशाह सूरी हर बुधवार केा मुकदमें सुनता था। प्रत्येक जिला या सरकार की अदालत को ‘दारूल्ल अदालत’ कहते थे । वह सबके साथ समान व्यवहार करता था । दण्ड की कठोर व्यवस्था थी । छोटे अपराधों के लिए भी वह मृत्युदण्ड देने में हिचकता न था । अपराधमुक्त समाज उसे दण्ड विधान का सिद्धान्त था । सरकारों में छोटे न्यायालय थे । वे अपनी सीमा में न्याय करते थे । ग्राम पंचायत भी ग्राम सीमा में न्याय करती थी । शेरशाह सूरी के दण्ड का इतना डर था ।’’ शेरशाह सूरी स्वयं अपीलें सुनता था । न्याय विभाग का दूसरा बड़ा अधिकारी काजी था । मुन्सिफ तथा अमीन सरकार तथा परगना के न्याय कार्य की देख-रेख करते थे । फौजदारी मुकदमें मुख्य शिकदार तथा दीवानी मुकदमें मुख्य मुन्सिफ सुना करते थे। पुलिस व्यवस्था- शेरशाह ने पुलिस व्यवस्था में अनके नये सुधार किए । पुलिस विभाग पर शान्ति स्थापना तथा कानून-व्यवस्था का भार था । शिकदार मुख्य पुलिस अधिकारी था ।
6. धार्मिक नीति-
शेरशाह सूरी कट्टर सुन्नी मुसलमान हाते हुए भी हिन्दूओं एव गैर मुस्लिमों के प्रति उदारता की नीति अपनाए । शासन में धर्मान्धता और कट्टरता की नीति नहीं अपनाई, फिर जी जजिया कर वसूल किया जाता था । हिन्दुओं को योग्यता के आधार पर ऊँचे पदों पर नियुक्त करता था । राजा टोरमल और विक्रमादित्य गौंड उसके बड़े कृपा पात्र थे, गोवध पर प्रतिबन्ध नहीं था । किसी को बलात मुसलमान नहीं बनाया उसके सरकारी कागजातों में फारसी के साथ हिन्दी (देवनागरी) लिपि का उपयोग किया । सिक्कों पर देवनागरी लिपि अंकित करवाय ।
7. गुप्तचर विभाग-
शेरशाह सूरी के गुप्तचर देश के चारों आरे फैले थे । गुप्तचर राज्य की व्यवस्था पर नजर रखे हुए थे । सरकारी कर्मचारियों के कार्यो पर निगरानी रखते थे । भ्रष्ट कर्मचारियों पर नियंत्रण रखते थे व सूचनाएं सम्राट तक पहुंचाया । इससे षडयंत्र की संभावना कम रहती थी ।
शेरशाह सूरी के जनकल्याण के कार्य
1. व्यापार- शरेशाह ने व्यापार को विकसित करने के लिए सड़कें बनवाई तथा लेन-देन की सुविधा के लिए सिक्कों का प्रचलन किया था । व्यापारी सिर्फ दो प्रकार के कर देते थे –
- माल का राज्य की सीमा में आने पर कर तथा
- बिक्री कर व्यापारियों को अनेक सुविधाएं प्राप्त थीं ।
अधिकारियों को भी उनके साथ ठीक व्यवहार करने के निर्देश थे । मानक भार तथा मापों का प्रचलन था ताकि लेन-देन में बेईमानी के कम अवसर रहें ।
- ग्रांड ट्रंक रोड– यह सड़क दिल्ली, आगरा से बंगाल के सुनार गावं तक जाती थी ।
- आगरा-बुरहानपुुर- यह सड़क आगरा से बुरहानपरु तक जाती थी ।
- आगरा-चित्तौड-जोधपुुर- यह सड़क आगरा से जोधपुर तक जाती थी ।
- लाहौर-मुलतान- यह सडक़ लाहारै से मुलतान तक जाती थी ।
- वाराणसी से मुंगेर तक- सड़क परिवहन के लिए शेरशाह ने ही बनवाया था ।
सड़कों के दोनों ओर छायादार वृक्ष लगाए गए थे । दो-दो कोस की दूरी पर सरायें बनी हुई थीं । सरायों में हिन्दू व मुसलमान के लिए भोजन की व्यवस्था थी । इन सड़कों के बन जाने से व्यापार की बड़ी उन्नति हुई । सैनिक सुविधा भी मिली । सेना सड़कों के माध्यम से बहुत कम समय मे एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंच सकती थी । प्रशासन को नियंत्रित करने में भी सड़कों की उपयोगिता अपना महत्व रखती थी ।
7 शेरशाह का भूमि-कर संबंधी व्यवस्था और सुधार- सुधारक के रूप में शेरशाह की प्रसिद्धि बहुत कुछ उसके भूमिकर सुधारों पर निर्भर है। हिन्दुस्तान के मुसलमान बादशाहों में सबसे पहला शासक था। जिसने अनुभव किया कि भूमिकर प्राप्त करने की आदर्श विधि वह है जो न्याय पर आधारित हो और न्यायसंगत बात यही है कि प्रत्येक व्यक्ति पर भूमिकर, उसकी योग्यता और शक्ति के अनुसार लगाया जाये। जब वह अभी युवक ही था और सहस्रराम में अपने पिता की जागीर का प्रबंध करता था तभी उसने अनुभव किया कि भूमिकर प्राप्त करने का प्रचलित ढ़ंग न्यायसंगत नहीं था और न ही किसी सिद्धांत पर आधारित था। वेचारे निर्धन कृषक पर उनकी सामर्थ को ध्यान में न रखते हुए मनमाने ढ़ंग से राज्य कर लगा दिया जाता था जिसे वह दे नहीं सकता था।