अनुक्रम
शीत युद्ध 1985 ई. के बाद समाप्त होती दिखाई देने लगा, द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद दो महाशक्तियों के बीच तनाव का जो वातावरण था, वह शांति के वातावरण में बदलता प्रतीत होने लगा। शीत युद्ध में 1970 में भी कमी आई थी लेकिन 1979 में अफगानिस्तान संकट ने इसके स्थाई अंत की सम्भावनाओं को धराशायी कर दिया और एक नए प्रकार के शीत युद्ध को जन्म देकर विश्व को फिर से नए विश्वयुद्ध के कगार पर खड़ा कर दिया था। लेकिन अपरिहार्य कारणों से अमेरिका और सोवियत संघ तथा इनके सहयोगी राष्ट्र अब विश्व में स्थायी शान्ति के प्रयास करने पर सहमत दिखाई देने लगे और अन्त में वे अपने इस उद्देश्य में सफल हो गए तथा शीत युद्ध का विश्व से सफाया होना अवश्यम्भावी हो गया।
शीत युद्ध के अंत के प्रयास
1985 से अमेरिका, सोवियत संघ तथा कुछ अन्य राष्ट्रों ने शीत युद्ध को समाप्त करने की दिशा में ठोस कदम उठाने शुरू कर दिये और उन्होंने आपसी विश्वास की भावना कायम करके अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में नए युग की शुरुआत की।
- दोनों महाशक्तियों में नवम्बर, 1985 में जेनेवा में एक बैठक हुई जिसमें परमाणु अप्रसार पर जोर दिया गया तथा दोनों देशों में सांस्कृतिक, शैक्षिक, वैज्ञानिक तथा आर्थिक सम्बन्धों को बढ़ावा देने पर विचार किया गया। शीतयुद्ध को कम करने का यह सर्वप्रथम प्रयास था जो स्थायी शान्ति की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम सिद्ध हुआ।
- 11 अक्तूबर, 1986 में राष्ट्रपति रीगन तथा मिखाइल गोर्बाच्योव के बीच आइसलैंड में वार्ता हुई। इसमें सामरिक हथियारों में 50 प्रतिशत तक कटौती करने, यूरोप तथा एशिया में मध्यम दूरी के प्रक्षेपास्त्रों की संख्या कम करने तथा स्टारवार्स कार्यक्रम (अन्तरिक्ष कार्यक्रम) दस वर्ष तक रोकने पर विचार हुआ। लेकिन राष्ट्रपति गोर्बाच्योव ने स्टारवार्स कार्यक्रम स्थगित करने पर असहमति जताई जिससे शान्ति के इस प्रयास को धक्का लगा।
- 9 दिसम्बर, 1987 को अमेरिकी राष्ट्रपति रीगन तथा सोवियत राष्ट्रपति मिखाईल गोर्बाव्योव के बीच आई.एन.एफ. सन्धि हुई, जिसके अनुसार 1139 परमाणु हथियारों को नष्ट करने पर दोनों देश सहमत हो गए। यह दोनों देशों की तरफ से निरस्त्रीकरण का प्रथम और महत्वपूर्ण प्रयास था। इस सन्धि के अनुसार दोनों देश परस्पर निरीक्षण पर सहमत हो गए। इस सन्धि ने दोनों देशों में लम्बे समय से चले आ रहे तनाव के वातावरण में कुछ कमी की।
- 1 जून 1988 को दोनों देशों के बीच भूमिगत परमाणु विस्फोटों, अंतरामहाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइल कार्यक्रम की सूचना एक दूसरे को देने की बात पर सहमति हुई। इसमें पारस्परिक सांस्कृतिक आदान-प्रदान को भी सहमति दी गई। 5. 8 दिसम्बर, 1988 को संयुक्त राष्ट्र संघ की बैठक में सोवियत राष्ट्रपति गोर्बाच्योव ने पूर्वी यूरोप के देशों से अपने 5 लाख सैनिक वापिस बुलाने की घोषणा की। इससे सोवियत संघ की विदेश नीति में अमेरिका के प्रति आए बदलाव के स्पष्ट लक्षण दिखाई देने लगे। इससे विश्व शान्ति का आधार मजबूत हुआ।
- 2 दिसम्बर, 1989 को अमेरिका के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश तथा सोवियत संघ के राष्ट्रपति गोर्बाच्योव के मध्य भूमध्यसागर में एक वार्ता हुई। इसमें अमेरिकन राष्ट्रपति ने सोवियत राष्ट्रपति को अमेरिका आने का निमंत्रण दिया। इसमें आपसी बातचीत के कार्यक्रम को जारी रखने पर सहमति हुई।
- 9 नवम्बर, 1989 को बर्लिन दीवार को तोड़ दिया गया और दोनों देशों ने इस पर अपनी सहमति जता दी।
- 1 जुलाई, 1990 को जर्मनी का एकीकरण हो गया और दोनों देशों ने इस अपनी सहमति की मुहर लगा दी। इससे लम्बे समय से दोनों देशों में चला आ रहा पारस्परिक तनाव भी खत्म हो गया।
- 8 सितम्बर, 1990 को राष्ट्रपति बुश व गोर्बाच्योव के बीच हेलसिंकी में आपसी वार्ता हुई। दोनों ने ईराक द्वारा कुवैत पर आक्रमण की निन्दी की और संयुक्त राष्ट्र संघ को मजबूत बनाने पर सहमति जताई।
- 9 नवम्बर 1990 को जर्मनी तथा सोवियत संघ ने परस्पर तनाव कम करने के लिए एक अनाक्रमण समझौता किया, इससे यूरोप में नई शान्ति की शुरुआत हुई।
- सोवियत संघ ने 1 जुलाई, 1991 को अपने सैनिक गठबन्धन ‘वारसा पैक्ट’ की समाप्ति की घोषणा कर दी।
- 31 जुलाई, 1991 में दोनों देशों में मास्को में एक बैठक हुई जिसमें सर्वाधिक खतरनाक व विनाशकारी हथियारों में कटौती के लिए स्टार्ट सन्धि पर हस्ताक्षर किए गए।
- अक्तूबर, 1991 में नाटो सदस्य देशों ने अपने परमाणु हथियारों में 80 प्रतिशत कटौती करने की घोषणा की। 14. 12 सितम्बर, 1991 को मास्को में दोनों महाशक्तियों ने अफगानिस्तान में शान्ति बहाल करने की बात पर एक समझौता किया।
शीत युद्ध के अंत के कारण
विश्व में लगभग तीन दशक तक आतंक का संतुलन काम रखने वाली शीत युद्ध की अवधारणा आखिरकार 1991 को अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों से लुप्त हो गई। इसकी समाप्ति के कारण हैं-
इस प्रकार सोवियत संघ के अवसान (Disintegration), गोर्बाच्योव की उदारवादी नीतियां, सोवियत संघ का आर्थिक दिवालियापन, लोगों का लोकतंत्र के प्रति बढ़ता रुझान आदि ने शीत युद्ध को समाप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। वारसा पैक्ट समाप्त कर दिया गया और अमेरिका के साथ सहयोग व शान्तिपूर्ण सह अस्तित्व की भावना में वृद्धि होने लगी। लम्बे समय से चला आ रहा तनाव समाप्त हो गया और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में एक नए अध्याय की शुरुआत हुई।
शीत युद्ध के अंत का अंतर्राष्ट्रीय संबंधों पर प्रभाव
1945 के बाद से अमेरिका और सोवियत संघ के मध्य चला आ रहा शीत युद्ध सोवियत संघ की सुप्रीम सोवियत द्वारा सोवियत संघ की समाप्ति का प्रस्ताव पारित होने के साथ ही समाप्त हो गया। इसके विश्व सम्बन्धों पर प्रभाव पड़े-
- इससे विश्वशान्ति का आधार मजबूत हुआ और दोनों देशों में लम्बे समय से चलते आ रहे तनाव का अन्त हो गया।
- इससे विश्व में आतंक के संतुलन के स्थान पर हितों का संतुलन स्थापित हुआ। इसने तृतीय विश्व युद्ध की सम्भावना को समाप्त कर दिया।
- विश्व में अब सुरक्षा और विचारधारा के स्थान पर व्यापार और पूंजी निवेश के मुद्दों का विकास होने लगा।
- सोवियत संघ तथा पश्चिमी राष्ट्रों में पारस्परिक सहयोग की भावना में वृद्धि हुई। अपने आर्थिक पुननिर्माण के लिए सोवियत संघ को ळ.7 के देशों व अन्य पश्चिमी राष्ट्रों से आर्थिक सहायता मिलने लगी।
- सोवियत संघ को अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष तथा विश्व बैंक की सदस्यता प्रदान की गई।
- इससे निरस्त्रीकरण के प्रयासों में वृद्धि हुई।
- सोवियत संघ तथा अन्य साम्यवादी देशों में लोकतन्त्रीय सिद्धान्तों का विकास हुआ।
- इससे संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका में वृद्धि हुई।
- विश्व में अमेरिका एक प्रमुख शक्ति बन गया।
शीत युद्ध के अन्त ने अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों को नए ढंग से निर्धारित करने के लिए विवश कर दिया। इससे अंतर्राष्ट्रीय जगत में अमेरिकन दादागिरी को बढ़ावा मिला। उसका प्रमुख प्रतिद्वन्द्वी सोवियत संघ अब इस स्थिति में नहीं रहा कि वह अपनी शत्रुता जारी रख सके। लेकिन उसकी दादागिरी अधिक लम्बे समय तक नहीं चल सकती। आज अनेक देश आर्थिक व सैनिक शक्ति के रूप में उभर रहे हैं।

