महमूद गजनवी और मुहम्मद गोरी के आक्रमणों के उद्देश्य
महमूद गजनबी की अपेक्षा मुहम्मद गोरी की राजनीतिक सफलताएं महान है । मुहम्मद गोरी की भारत में तुर्की राज्य की स्थापना का श्रेय है । उसका विजय श्रेय व्यापक है । उसने आकसन से यमुना नदी तक का श्रेय विजय किया था, अन्हिलवाड़ा और तराइन के युद्ध में पराजित होने पर भी मुहम्मद गोरी अपने दृढ़ संकल्प के कारण भारत में अपना राज्य स्थापित करने के उद्देश्य में सफल रहा । मुहम्मद गोरी की मृत्यु यह प्रमाणित नहीं करती है कि उसका भारत में प ्रभाव समाप्त हो गया था । उसका दृढ़ संकल्प था कि वह भारत के विजित प्रदेशों को अपनी अधीन रखे, इसी उद्देश्य पूर्ति के लिए कुतुबुद्दीन ऐबक नामक अपने दास को भारत में अपने प्रतिनिधि (वायसराय) के रूप में छोड़ गया था । आप पहले ही पढ़ चुके है कि कुतुबुद्दीन ऐबक और अल्तमश ने मुहम्मद गोरी की भारत विजय का अधूरा कार्य पूरा किया था । उन्होंने ही उत्तर भारत में दिल्ली सल्तनत की नींव रखी थी ।
महमूद गजनबी के सैनिक अभियानों का स्वरूप वार्षिक आक्रमण का था, इसलिए इनका कोई स्थायी प्रभाव नहीं हुआ । निर्विवाद है कि उसका पंजाब और मुल्तान पर अधिकार हो गया था जो बाद में लगभग 1050 ई. तक उसके उत्तराधिकारियों के अधीन रहे । उसने कन्नौज पर आक्रमण तो किया परन्तु गंगा घाटी पर इसका प्रभाव नहीं पड़ा । महमूद गजनबी का उद्देश्य भारत विजय को स्थायी बनाना नहीं था दरसल उसने विजय प्रदेशें को संगठित करने का प्रयास नहीं किया । यही कारण है कि उसके आक्रमणों का भारतीय गांव और प्रशासन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा तथापि यह याद रखना चाहिए कि महमूद गजनबी की पंजाब विजय से मुहम्मद गोरी की विजय के लिए मार्ग खुल गया था ।
महमूद गजनबी का उद्देश्य य भारत में राज्य स्थापित करना नहीं था । उसका मुख्य उद्देश्य भारत से धन लूट कर गजनी ले जाना था । मुहम्मद गोरी का मुख्य उद्देश्य और उसकी सफलता भारत में तुर्की राज्य स्थापना था ।
तुर्को की उत्तर भारत में विजय और राजपूतों के प्रतिरोध करने की असफलता के कारण तुर्को की सफलता और राजपूतों के प्रतिरोध न कर सकने के कारण भारत की सामाजिक, राजनीतिक शिथिलता और आर्थिक तथा सैनिक पिछड़े पन निहित थे । राजपूत राज्यों के राजनीतिक ढांचे में कुछ विशेष कमियॉं थी । ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी में उत्तर भारत छोटे-छोटे राज्यों में बंटा हुआ था । इसके शासक राजपूत थे जो परस्पर युद्ध में व्यस्त रहते और सदा ही एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिए सोचते रहते थे । इन युद्धों के कारण प्रत्येक राज्य की शक्ति घटी और धन की हानि हुई । इन युद्धों का कारण साम्राज्य विस्तार या महत्वाकांक्षा ही नहीं था वरन् पारिवारिक छोटी-छोटी बातें भी थे। वास्तव में युद्ध लड़ना राजपूतों में शक्ति प्रदर्शन करने के साथ-साथ एक शौक भी था। सामन्ती प्रणाली के विकसित होने से राजपूत राज्यों की निर्बलता और भी बढ़ी इसके साथ ही राजा की सत्ता में भी कमी आई । राजा सैनिक और वित्तीय मामलों में सामन्तों पर निर्भर हो गए । राजा का अपनी प्रजा से सीधा संपर्क समाप्त हो गया । इसके फलस्वरूप प्रजा की स्वामीभक्ति भी सामन्तों के प्रति हो गई । सामन्तों की अपनी सेनाएं थी जिसका प्रयोग वह राजा की अवहेलना करने के लिए कर सकते थे । बढ़ते उप-सामन्तवाद का अर्थ था कि भूमि से प्राप्त आय में उप सामन्त भी भागीदार होंगे । इस प्रकार आय में और भी कमी होने से राजाओं की स्थिति पहले से भी खराब हो गई । तुर्को से युद्ध में पराजय का महत्वपूर्ण कारण केन्द्रीय सत्ता का पतन और स्थानीय शक्ति का बढ़ना था ।
सैनिक दृष्टि से तुर्की सेना राजपूत सेना से कई गुना अच्छी थी । तुर्की घुड़सवारों को मध्य-एशिया से अच्छी नस्ल के तेज दौड़ने वाले घोडे उपलब्ध थे । भारतीय सेना में अच्छी नस्ल के घोड़ों की कमी थी जिससे वे सफलता पूर्वक शत्रु का पीछा नहीं कर पाते थे । दसवीं शताब्दी में मध्य-एशिया के अश्वारोहियों और तीरन्दाजों ने रणनीति और युद्ध के दांव पेच में आमूल परिवर्तन ला दिया था । तुर्क युद्ध की इस नई नीति को अपना चुके थे- इस प्रणाली में तेज दोडने वाले घोड़ों और हल्के साज-समान पर बल दिया जाता था । इसके विपरीत राजपूत राणनीति में मन्दगति से चलने वाले विशालकाय हाथियों पर बल दिया जाता था । इसीलिए राजपूत अभी भी हाथियों और पैदल सैनिकों पर निर्भर थे जो मध्य-एशिया के तेज दोड़ने वाले घोड़ों का सामना नहीं कर सकते थे ।
इसके अतिरिक्त तुर्की सेना लूट में मिलने वाले अपार धन के लालच में भारत में उत्साह पूर्वक लड़ी थी । राजपूत सैनिकों के सामने ऐसा कोई आदर्श नहीं था । राजपूत सैनिक आन्तरिक युद्धों के कारण थक भी चुके थे ।
भारतीय शासक उत्तर-पश्चिमी दरों की सुरक्षा के प्रति उदासीन रहे । उन्होंने महमूद गजनबी के आक्रमणों से उत्तर भारत पर आक्रमण करने के लिए खोले गए मार्ग से भी दरों के महत्व को नहीं समझा । यह इस बात से समझा जा सकता है कि शताब्दियों से पंजाब, मध् य-एशिया और अफगानिस्तान की राजनीति में उलझा रहा । आपको याद होगा कि शकों, कुषाणों और हूणों ने इसी ओर से भारत पर आक्रमण किए थे । वे भारत में बसे और कालान्तर में भारतीय समाज में मिल गए । भारत के लोगो ंने तुर्को को भी उन जैसा ही समझा । भारतीय शासक भूल गए कि पंजाब पर नियन्त्रण करने वाले तुर्क भारत के आन्तरिक भागों में भी फैल सकते थे । राजपूत राज्यों ने तुर्को के विरूद्ध एक संघ बनाया था परन्तु संघ ने राष्ट्रीय स्तर पर तुर्को का सामना करने का कोई लक्ष्य नहीं रखा था । इनका लक्ष्य केवल राजाओं के अपने हितों के लिए सहयोग देना था । मुहम्मद गोरी और कुतुबुद्दीन ऐबक 1193 और 1203 ई. अपने आप को भारत में असुरक्षित अनुभव कर रहे थे । यही अवसर था कि राजपूत संगठित रूप में प्रतिरोध कर उन्हें भारत से उखाड़ सकते थे, परन्तु राजपूतों ने यह अवसर खो दिया ।
राजपूतों की हार का एक महत्वपूर्ण कारण सामाजिक तंत्र और जातीयता था । जातीयता और भेदभाव के कारण देश में सामाजिक और राजनीतिक एकता को भुला दिया गया था । जाति प्रथा का राजपूत राज्यों की सैनिक कुशलता पर बुरा प्रभाव पड़ा । युद्ध में भाग लेना विशेष जातियों का एकाधिकार समझा जाता था । इसलिए अन्य जाति के लोगों ने सैनिक कार्य नहीं किया । जाति प्रथा ने भारतवासियों में राष्ट्रीयता की भावना जागृत करने में अवरोध किया । अधिकांश जनता को राजवंश से कोई लगाव न था । विदेशी आक्रमण केवल एक और राजवंश का परिवर्तन था जिसका जनता के जीवन पर कोई गहरा प्रभाव नहीं होता था ।
ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी में उत्तर भारत के सामाजिक जीवन की विशेषता थी कि शिक्षित वर्ग एकाकी और रूढ़िवादी था जिसके कारण भारत पिछड़ा हुआ था। ब्राम्हणों को अपने प्राचीन ज्ञान पर गर्व था। भारत के लोग विश्व में वैज्ञानिक, सांस्कृतिक और रणनीति में होने वाले सुधारों के प्रति उदासीन रहे । मध्य-एशिया का प्रसिद्ध विद्वान अल्बरूनी ग्यारहवीं शताब्दी के प्रारंभिक काल में 10 वर्ष तक भारत म ें रहा । उसके लख्े ाों में इसका स्पष्ट संकते ह ै । उसका कहना था कि भारतवासियों का विश्वास था कि संसार को कोई भी देश, धर्म और विज्ञान उनके देश ध् ार्म और विज्ञान के समान नहीं है । वे अपना ज्ञान दूसरी जाति और विदेशियों को नहीं देते थे । ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के उत्तर भारत में सामाजिक क्षेत्र के अतिरिक्त आर्थिक क्षेत्र में भी आर्थिक क्षेत्र में एकाकिपन दिखाई देता था । भारत का व्यापार घटा, छोटे राज्यों ने व्यापार को हतोत्साहित किया और स्वावलम्बी ग्रामीणी अर्थ व्यवस्था को प्रोत्साहन दिया । इसी एकाकीपन का परिणाम था कि तुर्को के आगमन से भारत को गहरा धक्का लगा । सौभाग्य से इसका परिणाम घातक नहीं हुआ । इससे राष्ट्रीय जीवन में नई शक्ति आई ।