अनुक्रम
- संवेगात्मक विक्षिप्त बालकों हेतु,
- मानसिक रूप से कमजोर बालकों हेतु,
- शारीरिक रूप से अपंग या बाधित बालकों हेतु,
- शैक्षिक मन्दित बालकों हेतु,
- विभिन्न परिस्थितियों में समस्यात्मक बालक हेतु,
- सामान्य बालकों के कुसमायोजन हेतु।
निदान तथा मनोचिकित्सा को पृथक करना कठिन है।
मनोचिकित्सा की प्रविधिया
1. मनोचिकित्सा प्रत्यक्ष प्रविधि – इस प्रविधि में प्रत्यक्ष रूप से जो असमायोजन के लक्षण दिखाई देते हैं उनका सुधार तथा उपचार क्रिया जाता है उससे मनोविज्ञान का ज्ञान भी होता है। यह सुझाव भी है कि उसे चिन्ताओं के कुप्रभाव की जानकारी देने से उसके स्वास्थ्य और मस्तिष्क पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा और इससे कुछ भी भला नहीं होना है।
- व्यक्ति की मूल आवश्यकताओं को स्वीकार करके उनकी पूर्ति की जाती है।
- आवश्यकता की पूर्ति से अहम् की सन्तुष्टि की जाती है।
- आवश्यकता की पूर्ति सर्जनात्मक क्रियाओं से की जाती है तथा
- आवश्यकता की पूर्ति हेतु सामाजिक पुनशिक्षा भी दी जाती है।
3. शाब्दिक सामूहिक मनोचिकित्सा – इस प्रविधि में विशेषज्ञ समूह को क्रमश: एक श्रेणीबद्ध व्याख्यान देता है, किस सामायोजन की प्रक्रिया किस प्रकार सम्पादित होती है और व्यक्ति समस्याओं का भी उदाहरण देकर स्पष्टीकरण करता है। व्यक्ति संवेगात्मक समस्याओं से किस प्रकार चिन्तित हो जाता है। समूह के सदस्यों को अपनी-अपनी समस्याओं को समझाने और उनसे मुक्ति पाने का उपाय भी मिल जाता है।
सम्मोहन की अवस्था में संकेत प्रदान करने के अतिरिक्त कभी-कभी बालापराधी को जाग्रत अवस्था में भी संकेत दिए जाते हैं। इन संकेतों का भी उद्देश्य ‘अहं’ को दृढ़ बनाना ही रहता है।
जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है कुछ बालापराधी संवेगात्मक प्रबलता के ही कारण अपराध करने लगते हैं। अत्यधिक चिन्ता, वेdh, भय आदि कभी-कभी अपराध को जन्म दे देते हैं। कभी-कभी बालकों में काम-ग्रन्थि, अधिकार-ग्रन्थि, उच्चता-ग्रन्थि, हीनता-ग्रन्थि आदि भावना-ग्रन्थिया उत्पन्न होती हैं। कभी-कभी बालकों में स्नायु विकृति का मानसिक रोग हो जाता है। ऐसी अवस्था में अपराधियों का सुधार प्रोबेशन पर रिहा कर देने से अथवा सुधारगृह में भेज देने से नहीं होता है। इनके लिए मानसिक चिकित्सा की आवश्यकता होती है। अत: मानसिक चिकित्सा की प्रक्रिया को भी संक्षेप में समझ लेना आवश्यक समझ पड़ता है।
मानसिक चिकित्सा का सबसे पहला कदम ग्रन्थियों तथा मानसिक अन्तर्द्वन्द्वों को खोजना है। बालापराधी की उन प्रवृनियों को जानने का प्रयत्न क्रिया जाता है जिनके वश में आकर बालक विशेष ने अपराध क्रिया है। इसी समय यह देखने का प्रयत्न क्रिया जाता है कि अपराध के कारण का बालक की किसी ग्रन्थि से संबंमा तो नहीं है। यदि यह निश्चय हो जाता है कि बालापराधी के अपराध का कारण उसके संवेग में अथवा अचेतन मस्तिष्क में है तो मनोविश्लेषण की प्रक्रिया प्रारंभ होती है।
मनोचिकित्सा की प्रक्रिया
मनोविश्लेषक मनोविश्लेषण की प्रक्रिया में बाल-अपराधी की जीवनी मालूम करता है। मनोविश्लेषक की कुशलता इसी में है कि वह बालक के सही इतिवृन को मालूम कर ले। उसे सदैव बालक को यह बतला देना चाहिए कि वह कोई वकील या अफसर नहीं है, वह बालक के कारनामों पर कोई कानूनी कार्यवाही नहीं करेगा तथा वह बालक की समस्याओं को जानने के लिए ही उसकी जीवनी जानना चाहता है। उसे सदैव बालक को यह आभास करा देना चाहिए कि वह उसका सहायक तथा मित्र है। बालक में मनोविश्लेषक के सामने निर्भयता लाना एक कला है। मनोविश्लेषक अपनी चतुरता से बालक की लज्जा को दूर कर सकता है। कभी-कभी बालक अपनी पुरानी घटनाओं को बतलाने में भय या लज्जा करते हैं। विशेषत: काम संबंमाी घटनाओं को तो बालक छिपाने का ही प्रयत्न करते हैं। इन सब बातों का मनोविश्लेषक को ध्यान रखना है।
पुन: शिक्षा केवल व्याख्यान देना नहीं है। इसमें बालक को केवल सूचना देने से ही काम नहीं चलता है। कभी-कभी हम शिक्षा के नाम पर बालक को आवश्यक बातें याद करवा देते हैं। बालक को किसी बात को मौखिक रूप से कह देना या किसी पुस्तक के किसी अंश को रटवा देना अथवा किसी दुरूह विचार को सरल भाषा में समझा देना ही शिक्षा नहीं है पुन: शिक्षा का स्वरूप व्यावहारिक है। बाल-अपराधी के समक्ष ऐसा अवसर प्रस्तुत क्रिया जाता है जिसमें वह सही सिधान्त का प्रयोग कर सके। जो बालक चोरी करने का आदी हो गया है, उसकी चोरी की प्रवृनि का संबंमा संभव है अचेतन मन से हो। यह मालूम हो जाने पर कि बालक विशेष की चोरी की आदत जीवन में घटी किसी घटना विशेष के कारण है, मनोविश्लेषक बालक को इस कारण से अवगत करा देता है। साथ ही वह बालापराधी को चोरी न करने का परामर्श देता है।
इन सब संकेतों में एवं बाल-अपरािमायों को सुधारने के अन्य मानसिक, चिकित्सात्मक उपायों में बालक की इच्छा-शक्ति को दृढ़ करने का प्रयत्न क्रिया जाता है। जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, मानसिक चिकित्सा में बालापराधी के ‘अहम्’ को जाग्रत करने का बहुत प्रयत्न क्रिया जाता है। बालक को इस बात की टें ̄नग दी जाती है कि वह अपने ‘स्व’ से परिचित हो जाये। कभी-कभी हम अपने ‘स्व’ को अपने दृष्टिकोण से ही देखते हैं। यहा इस बात को स्पष्ट कर देना उचित समझ पड़ता है कि हम अपने स्वरूप को स्वयं जिस प्रकार देखते हैं, दूसरे उसे वैसा ही नहीं देखते। हमें अपनी आवाज, अपने चेहरे, अपनी मुस्कान आदि का जैसा अभ्यास होता है, दूसरों को भी वैसा ही आभास नहीं होता है। दूसरे व्यक्ति हमें किस प्रकार का समझते हैं, इसकी भी जानकारी आवश्यक है।
जब बाल-अपराधी का ‘अहम्’ जाग्रत हो उठता है तो वह मानापमान पर बहुत मयान देने लगता है। समाज में सम्मान प्राप्त करने की उसकी इच्छा तीव्र हो जाती है। ऐसी परिस्थिति में उसे समाज के अनुवूफल कार्यो की झाकी दिखा देनी चाहिए। बालक समाज के अनुवूफल कार्यो में रुचि लेने लगेगा। वह सोचेगा कि समाज के विरुण् कार्य करने से समाज में निन्दा होती है। यदि समाज की मान्यताओं के अनुरूप कार्य होते हैं, तो समाज में सम्मान प्राप्त होता है। समाज के नियमों का पालन करने की आवश्यकता का शनै:-शनै: वह इसी प्रकार अनुभव करने लगता है।
बाल-अपराधी में ‘अहम्’ की जागृति के साथ ही साथ उसकी इच्छा-शक्ति में दृढ़ता आने लगती है। जिस व्यक्ति की इच्छा-शक्ति निर्बल होती है वह मानसिक अन्तर्द्वन्द्व का बहुत शीघ्र शिकार बन जाता है। निर्बल इच्छा-शक्ति से बालक में निर्णय शक्ति का ह्रास हो जाता है। मानसिक चिकित्सा में इच्छा-शक्ति की दृढ़ता पर भी मयान दिया जाता है। विभिन्न प्रकार के संकेतों को प्रदान कर बाल-अपराधी की इच्छा-शक्ति में सबलता लाने का प्रयास क्रिया जाता है। बालक को बीच-बीच में प्रोत्साहित भी क्रिया जाता है। बालक के मन की हीनता की भावना को निकालने का प्रयत्न क्रिया जाता है। मानसिक चिकित्सक इस बात की कोशिश करता है कि बालक अपने ‘स्व’ को दूसरों के दृष्टिकोण से देखे। उसे इस बात को भी समझा दिया जाता है कि वह एक अच्छा एवं सुयोग्य नागरिक बन सकता है। उसे अपने अनुचित विचारों के शोमा की भी शिक्षा प्रदान की जाती है। इस प्रकार बाल-अपराधी को कर्नव्य-परायणता, नियमपालिता, आज्ञाकारिता, सहयोग आदि सद्गुणों का भी ज्ञान कराया जाता है। विभिन्न परिस्थितियों में इन सद्गुणों के प्रयोग पर भी बल दिया जाता है।
द्वितीय महायुण् के मध्य में एवं उसके कुछ समय पूर्व मानसिक चिकित्सा की एक नई प्रविधि निकाली। यह प्रविधि वैयक्तिक सम्मोहन, संकेत आदि से भिन्न है। इस नई प्रविधि को सामूहिक चिकित्सा के नाम से पुकारा जाता है। वास्तव में यदि देखा जाये तो यह कोई नई प्रविधि नहीं है वरन् एक पुरानी प्रविधि को वैज्ञानिक रीति से व्मबण् क्रिया गया है। इसमें कई व्यक्तियों की एक साथ ही चिकित्सा की जाती है। समूह निर्माण की परिस्थिति में बालक की नैतिक भावनाओं में परिवर्तन करना ही इस प्रविधि का उद्धेश्य है।
मानसिक चिकित्सा की विधि का सबसे बड़ा लाभ यह है कि इस विधि से बाल-अपराधी का सुधार शीघ्र होता है। यह विधि संक्षिप्त भी है, किन्तु इस विधि से सभी बाल-अपरािमायों का सुधार नहीं हो सकता है। इसके अतिरिक्त इस विधि में एक दोष यह भी है कि बाल-अपराधी छ समय के लिए अपराध की प्रवृनि से मुक्त दिखाई पड़ता है, किन्तु उसकी प्रवृनि जड़ से समाप्त नहीं होती। वस्तुत: होता यह है कि अपराध के लक्षण चेतन से अचेतन मस्तिष्क में चले जाते हैं और हम कह उठते हैं कि अपराध के लक्षण समाप्त हो गए। अचेतन मस्तिष्क में पहुच कर ये लक्षण अपराध के अन्य लक्षणों को किसी भी समय जन्म दे सकते हैं, तथापि मानसिक चिकित्सा के उपयोग से हम आख नहीं बन्द कर सकते और यह कहना उपयुक्त ही है कि वर्तमान समय में छ बाल-अपरािमायों के लिए यह विधि सर्वश्रेष्ट विधि है। मानसिक चिकित्सा वास्तव में मानसिक रोगों को दूर करने का उपाय है। हम मानसिक आरोग्य एवं मानसिक रोग निरोध के अध्यायों में इसका उल्लेख कर चुके हैं। यहा पर मानसिक चिकित्सा का बालापराध को दूर करने के उपाय के रूप में ही उल्लेख क्रिया गया है।
इस प्रकार बालापराधी को सुधारने का प्रयत्न क्रिया जाता है एवं उसे एक सुयोग्य नागरिक बनाने का सदा उद्धेश्य रखा जाता है। पहले अपराधी को बन्दीगृह में ही भेज कर अपराध से छुट्टी लेने की कोशिश की जाती थी, किन्तु उससे समस्या का समाधान नहीं हुआ। अब अपराधी को सुधारने पर बल दिया जाता है।
सफल मनोचिकित्सा विशेषज्ञ के गुण
- वह भावनाओं, अभिवृनियों, अभिरूचियों तथा व्यवहारों के प्रति अधिक संवेदनशील होना चाहिए।
- मानव व्यवहार का पर्याप्त ज्ञान तथा बोध होना चाहिए।
- उसे अपने रोगी का समुचित आदर सम्मान करना चाहिए।
- उसे मौर्यवान श्रोता भी होना चाहिए।
- वह अधिक नैतिकवादी नहीं होना चाहिए।
- रोगी की समस्याओं के प्रति वैज्ञानिक तथा वस्तुनिष्ठ दृष्टि कोण होना चाहिए।
- रोगी के उपचार में मौर्य तथा निरन्तरता होनी चाहिए।