अनुक्रम
शैक्षिक मापन के लिए निष्पत्ति परीक्षण और निदानात्मक परीक्षण दोनों ही आवश्यक है।
इस प्रत्यय को उदाहरणों से स्पष्ट किया गया है-
(1) दो समान योग्यताओं वाले छात्रों की निष्पत्तियों में अन्तर हो सकता है। जिस छात्र को अधिक प्रेरणा दी गई है, उसके अंक या प्राप्तांक अधिक हो सकते हैं, और जिसकों प्रेरणा नहीं मिली है उसके अंक कम हो सकते हैं। यह कारण निदान से ही ज्ञात किया जा सकता है।
- किस प्रकार की अभिप्रेरणा दी गई है यह भी महान्वपूर्ण होता है क्योंकि एक ही प्रकार की प्रेरणा दो प्रकार के छात्रों के लिए प्रभावी नहीं हो सकती है, अन्तर्मुखी छात्रों के लिए निरन्तर प्रेरणा की आवश्यकता होती है, जबकि बहिर्मुखी छात्रों के लिए कभी-कभी प्रेरणा देना पर्याप्त होता है।
- अभिप्रेरणा के अतिरिक्त छात्र की परिस्थितिया जिनमें वह रहकर अध्ययन कर रहा है। वह भी उसकी निष्पत्ति को प्रभावित करती है। जबकि विद्यालय में सभी को समान परिस्थितिया उत्पन्न की जाती है।
- तृतीय कारण परीक्षा और परीक्षक की परिस्थितिया भी हो सकती हैं। परीक्षण में छात्र की पाठ्यवस्तु एवं उसकी लेखन विधि अच्छे अंकों के लिए महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करते हैं। निदान के अन्तर्गत कम अंक प्राप्त करने के कारणों का सही पता लगाया जाता है। आधुनिक निदान की प्रकिया के अन्तर्गत केवल निदानात्मक परीक्षाओं तक ही सीमित नहीं रहते हैं। छात्र की समस्त परिस्थितियों का अवलोकन करके विशिष्ट प्रभावों का ज्ञान किया जाता है, निदान के अन्तर्गत वस्तुनिष्ठ विधियों एवं प्रवििधयों का प्रयोग किया जाता है।
(2) आधुनिक निदान के अन्तर्गत छात्र के व्यवहार के सभी क्षेत्रों को सम्मिलित किया जाता है, उसे एक क्षेत्र तक संकुचित रूप में सीमित नहीं रखते हैं। इस निदान के प्रारूप में सामान्य क्षेत्रों की अयोग्यताएं उद्धेश्यों एवं विधियों का विभिन्न व्यक्तियों पर प्रभाव का अध्ययन किया जाता है, इसके अन्तर्गत सामूहिक निदान किया जाता है। इसे केवल एक व्यक्ति के निदान तक सीमित नहीं रखा जाता है।
निदानात्मक परीक्षण के कार्य
1. वर्गीकरण – निदान की प्रकिया का वर्गीकरण प्राथमिक सोपान या लक्ष्य माना जाता है। निदान की प्रकिया को आरम्भ करने के लिए यह आवश्यक है कि सभी छात्रों को सजातीय समूहों में विभाजित किया जाए। यह विभाजन इन सामान्य गुणों पर आधारित होता है-
- मानसिक स्तर (Intellectual Level)
- व्यावसायिक स्तर (Vocational Level), तथा
- संगीत की प्रवणता (Musical Level)।
इन स्तरों का प्रयोग प्रशासनिक अथवा निर्देशन की दृष्टि से किया जाता है।
- समायोजन का स्तर (Level of Adjustment)
- असमायोजन का स्तर (Level of Abnormality)
- उत्सुकता का स्तर (Level of Anxiety)
- हताशा का स्तर (Level of Depression)
- वैमनस्यता का स्तर (Level of Hostility)।
3. निदान सम्बन्धी कारण – यह कार्य सबसे जटिल और कठिन होता है। इसके अन्तर्गत यह ज्ञात करने का प्रयास किया जाता है कि उसके सीखने की कमजोरिया उसकी सामान्य योग्यताओं एवं विशिष्ट योग्यताओं से किस प्रकार सम्बन्धित है। इसके अन्तर्गत छात्रों के न सीखने के कारणों का पता लगाया जाता है।
निदानात्मक परीक्षण की विधियाँ
निदान की प्रकिया में प्रमुख रूप से दो प्रकार की विधियों का प्रयोग किया जाता है-(1) दार्शिनिक विधि तथा (2) निदानात्मक परीक्षण।
निदानात्मक परीक्षण के प्रकार
निदान की परीक्षण विधि भी दो प्रकार की होती है-
पिछले कुछ दशकों से प्रक्षेपित परीक्षण (Projective Tests) का प्रयोग निदान के लिए किया जाने लगा है। व्यक्तित्व मापन में इसका प्रयोग अधिक किया जाने लगा है। व्यक्ति के अवांछित एवं असामान्य व्यवहारों का पता इसी प्रकार के परीक्षणों से किया जाता है। छात्रों के उनरों का विश्लेषण तीन पक्षों-प्रकरण, प्रकिया एवं परिणाम में किया जाता है।
- उद्धेश्यों का निर्धारण तथा पाठ्यवस्तु के प्रकरणों की रूप रेखा
- पाठ्यवस्तु विश्लेषण तार्विक क्रम में, (अ) पाठ्यवस्तु के प्रकरणों का क्रम, (ब) सीखने के सोपानों का क्रम,
- पाठ्यवस्तु के कठिनाई क्रम का निर्धारण,
- परीक्षण के पदों के प्रकार का निर्धारण,
- परीक्षण के पदों का सुधार,
- पाठ्यवस्तु के तार्किक क्रम का विश्लेषण, तथा
- परीक्षण के अन्तिम प्रारूप की तैयारी।
निदानात्मक परीक्षण के पदों के सुधार के लिए पद विश्लेषण भी किया जाता है। पद विश्लेषण के लिए गलत पदों को महत्व दिया जाता है और इसमें स्टेनले (Stanley) विधि का प्रयोग करते हैं। छात्रों की गलतियों के अनेक कारण हो सकते हैं, जैसे-कम सुनना एवं कम देखना, घर की परिस्थिति का अच्छा न होना, मानसिक योग्यता का अभाव तथा साथियों के अच्छे सम्बन्ध न होना आदि।
इस प्रकार ऐसे भी कारण होते हैं जो अमयापक की पहुच में नहीं होते, जिसमें माता-पिता तथा अन्य लोगों की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है।
- गद्य की बोधगम्यता तथा अध्ययन की गति (Rate of Reading and Comprehensiveness of Prose)
- पद्य की बोधगम्यता तथा सौन्दर्यानुभूति (Poetry Comprehension and Appreciation)
- विभिन्न प्रकार के पाठ्यवस्तु की शब्दावली (Vocabulary in Different Content Areas)
- वाक्यों का अर्थ (Meanning of Sentences) तथा
- परिच्छेद की बोधगम्यता (Paragraph Comprehension)।
इन पाच उप-परीक्षणों को पढ़ने के निदानात्मक परीक्षण में सम्मिलित किया गया है। छात्रों को यह परीक्षण दिया जाता है, और परीक्षक उनकी त्रुटियों को देखता है, और अधोलिखित त्रुटियों ज्ञात करता है। शब्दों के गलत उच्चारण, शब्दों की गलत वर्तनी, शब्दों का लोप, पुनरावृनि, शब्दों का स्थानापन्न, शब्दों को जोड़ना तथा विपरीत पढ़ना आदि त्रुटिया पायी जाती है।
इन त्रुटियों के आधार पर पढ़ने की कठिनाई के कारणों के सम्बन्ध में संकेत मिलता है। जैसे-गलत उच्चारण में तुतलाना या शर्माना तथा गलत वर्तनी में दृष्टि का दोष आदि कारणों का बोध होता है। शिक्षक इन कारणों को ज्ञात करके छात्रों को समुचित निर्देशन तथा सुधारात्मक शिक्षण की व्यवस्था करता है।
गणित कौशलों हेतु निदानात्मक परीक्षण – पढ़ने के निदानात्मक परीक्षणों के बाद दूसरा स्थान गणित के निदानात्मक परीक्षण का है, जो छात्रों की दृष्टि से बहुत ही आवश्यक है। गणित अपेक्षाकृत एक कठिन विषय है, इसलिए इसमें निदानात्मक परीक्षणों का प्रयोग व्यापक रूप से किया जाता है। गणित में कम्पास डाइग्नोस्टिक टेस्ट इन अर्थमेटिक (Compass Diagnostic Tests in Arithmetic) का प्रयोग अधिक किया गया है। इसमें कक्षा दो से आठ तक के लिए, प्रश्नों को सम्मिलित किया गया है। इसमें प्रमुख रूप से चार प्रकार के उप-परीक्षणों को सम्मिलित किया गया है। यह गणित मूल कियायें मानी जाती हैं- 1. जोड़ना (Addition) 2. घटाना (Subtraction)
3. गुणा करना (Multiplication) 4. भाग करना (Division) इन चारों को उप-परीक्षणों में निहित कौशलों में विभाजित किया गया है और उनमें से प्रत्येक के परीक्षण के लिए अलग-अलग परीक्षणों की रचना की गयी है।
इन परीक्षणों को छात्रों का निदान करने के लिए दिया जाता है, परीक्षक गलतियों की प्रकृति पहचानने का प्रयास करता है। इसमें साधारणतया अधोलिखित कठिनाइयाँ (त्रुटिया) पायी जाती हैं:-
- जोड़ में हासिल लगाना नहीं आता,
- घटाने में उधार लेना नहीं आता,
- उधार लेकर अगले अंक में एक कम करना नहीं आता,
- दशमलव लगाना नहीं आता,
- गुणा में तालिका का याद न होना।
- गुणा में हासिल लगाना नहीं आता,
- गुणा में दशमलव लगाना नहीं आता,
- भाग में तालिका याद न होना,
- अंकों में तालिका याद न होना,
- दशमलव अंक लगाना-आदि।
इन त्रुटियों से छात्रों की कठिनाइयों के बारे में पता चलता है और त्रुटियों के कारणों का भी बोध होता है। शिक्षक को छात्रों की कठिनाइयों के लिए समुचित सुधारात्मक शिक्षण की व्यवस्था करनी होती है।
निदानात्मक परीक्षण के गुण तथा दोष
- छात्रों की कमजोरियों की दृष्टि से निदानात्मक परीक्षण की सबसे अधिक आवश्यकता होती है।
- निदानात्मक परीक्षणों के आधार पर सुधारात्मक शिक्षण की व्यवस्था की जाती है। उपचारी शिक्षण को विकसित किया जाता है।
- इनके आधार पर छात्र की उपलब्धियों के सम्बन्ध में विश्वसनीय कारण ज्ञात किए जाते हैं।
- निदानात्मक उप-परीक्षणों की वैधता एवं विश्वसनीयता कम होती है। परन्तु आपस में सह-सम्बन्ध अधिक होता है।
- निदानात्मक परीक्षण में अधिक समय लगता है और उनकी रचना करना भी कठिन होता है।
