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ध्यान चिन्तन की ही एक प्रक्रिया है पर ध्यान का कार्य चित्त करना नहीं अपितु चिन्तन का एकाग्रीकरण अर्थात चिन्त को एक ही लक्ष्य पर स्थिर करना ध्यान कहलाता है। सामान्यतः ईश्वर या परमात्मा में ही अपना मनोनियोग इस प्रकार करना कि केवल उसमें ही साधक निमग्न हो और किसी अन्य विषय की ओर उसकी वृत्ति आकर्षित न हो ध्यान कहलाता है। वस्तुतः ध्यान किया नहीं जाता परन्तु धारणा करते-करते ध्यान लग जाता है, अतः धारणा की उच्च अवस्था ध्यान है। पतंजलि ध्यान को परिभाषित कर सकते है।
तत्र प्रत्यदैक तानता ध्यानम् योग सूत्र III/2
ध्यान किसे कहते हैं ?
ध्यान शब्द की व्युत्पत्ति
ध्यान की परिभाषा
महर्षि व्यास के अनुसार- उन देशों में ध्येय जो आत्मा उस आलम्बन की और चित्त की एकतानता अर्थात आत्मा चित्त से भिन्न न रहे और चित्त आत्मा से पृथक न रहे उसका नाम है सदृश प्रवाह। जब चित्त चेतन से ही युक्त रहे, कोई पदार्थान्तर न रहे तब समझना कि ध्यान ठीक हुआ।
सांख्य सूत्र के अनुसार- ध्यानं निर्विषयं मन:।। 6/25 अर्थात मन का विषय रहित हो जाना ही ध्यान है।
आदिशंकराचार्य के अनुसार – अचिन्तैव परं ध्यानम्।। अर्थात किसी भी वस्तु पर विचार न करना ध्यान है।
महर्षि घेरण्ड के अनुसार- ध्यानात्प्रयत्क्षमात्मन:।।अर्थात ध्यान वह है जिससे आत्मसाक्षात्कार हो जाए।
तत्वार्थ सूत्र के अनुसार- उत्तमसघनस्येकाग्राचिन्ता निरोधो ध्यानगन्तमुहुर्वाति। -त.सू. 9/27अर्थात एकाग्रचित्त और शरीर, वाणी और मन के निरोध को ध्यान कहा गया है।
गरूड़ पुराण के अनुसार- ब्रह्मात्म चिन्ता ध्यानम् स्यात्।।अर्थात केवल ब्रह्म और आत्मा के चिन्तन को ध्यान कहते हैं।
त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद् के अनुसार- सोSहम् चिन्मात्रमेवेति चिन्तनं ध्यानमुच्यते।।अर्थात स्वयं को चिन्मात्र ब्रह्म तत्व समझने लगना ही ध्यान कहलाता है।
मण्डलब्राह्मणोपनिषद् के अनुसार- सर्वशरीरेषु चैतन्येकतानता ध्यानम्।। अर्थात सभी जीव जगत को चैतन्य में एकाकार होने को ध्यान की संज्ञा दी गयी है।
आचार्य श्रीराम शर्मा के अनुसार- कोई आदर्श लक्ष्य या इष्ट निर्धारित करके उसमें तन्मय होने को ध्यान कहते हैं।
ध्यान की कुछ अन्य व्यावहारिक परिभाषाएँ इस प्रकार हैं –
- क्लेशों को पराभूत करने की विधि का नाम ध्यान है।
- ध्यान का तात्पर्य चेतना के अंतर वस्तुओं के अखण्ड प्रवाह होते हैं।
- अपनी अंत:चेतना (मन) को परमात्म चेतना तक पहुँचाने का सहज मार्ग है।
- बिखरी हुई शक्ति को एकाग्रता के द्वारा लक्ष्य विशेष की ओर नियोजित करना ध्यान है।
- मन को श्रेष्ठ विचारों में स्नान कराना ही ध्यान है।
ध्यान के प्रकार
ध्यान तीन प्रकार का है- स्थूल ध्यान, ज्योतिध्र्यान, सूक्ष्म ध्यान। स्थूल ध्यान में इष्टदेव की मूर्ति का ध्यान होता है। ज्योतिर्मय ध्यान में ज्योतिरूप ब्रह्म का ध्यान तथा सूक्ष्म ध्यान में बिन्दुमय ब्रह्म कुण्डलिनी शक्ति का ध्यान किया जाता है। घेरण्ड संहिता में 3 प्रकार के ध्यान बताये गये हैं-
- स्थूल ध्यान वह कहलाता है, जिसमें मूर्तिमय इष्टदेव का ध्यान हो।
- ज्योतिर्मय ध्यान वह है, जिसमें तेजोमय ज्योतिरूप ब्रह्म का चिंतन हो।
- सूक्ष्म ध्यान उसे कहते हैं, जिसमें बिंदुमय ब्रह्म कुंडलिनी शक्ति का चिंतन किया जाए।
ध्यान का महत्व
निज स्वरूप को मन से तत्वत: समझ लेना ही ध्यान होता है। ध्यान करते करते जब चित्त ध्येयकार में परिणत हो जाता है, उसके अपने स्वरूप का अभाव सा हो जाता है। धारणा में केवल लक्ष्य निर्धारित होता है, जबकि ध्यान में ध्येय की प्राप्ति और उसकी प्रतीति होती है। ध्यान के माध्यम से क्लेशों की स्थूल वृत्तियों का नाष हो जाता है। धारणा, ध्यान और समाधि तीनों को संयम कहा गया है।
‘‘यथा दीपो निवातस्थो नेगंते सोपमा स्मृता।
योगिनो यतचित्तस्य युंजतो योगमात्मन:।। 6/19
जिस प्रकार वायुरहित स्थान मे स्थित दीपक की लौ चलायमान नहीं होती, वैसी ही उपमा परमात्मा के ध्यान में लगे हुए योगी के जीते हुए चित्त की कही गई है।
घेरंडसंहिता- ‘‘ ध्यानात्प्रत्यक्षं आत्मन:’’ 1/11
ध्यान से अपनी आत्मा का प्रत्यक्ष हो जाता है।
आत्म साक्षात्कार का तात्पर्य यहाँ पर सीधा ईश्वर से सम्वन्ध नहीं, वरन् स्वयं के अनुसंधान से है। ध्यान अपने आपको पहचानने की प्रक्रिया है, स्वयं का साक्षात्कार होना, स्वयं को जानना ध्यान के द्वारा ही संभव है। ध्यान प्राचीन, भारतीय ऋषि-मुनियों, तत्तवेत्ताओं द्वारा प्रतिपादित अनमोल ज्ञान-विज्ञान से युक्त एक विशिष्ट पद्धति है, इसके द्वारा मनुष्य का समग्र उत्थान, विकास, उत्कर्ष संभव है।