अनुक्रम
देशबन्धश्चितस्य धारणा योग सूत्र III/1
धारणा का अर्थ
धारणा मन की एकाग्रता है, एक बिन्दु, एक वस्तु या एक स्थान पर मन की सजगता को अविचल बनाए रखने की क्षमता है। ‘‘योग में धारणा का अर्थ होता है मन को किसी एक बिन्दु पर लगाए रखना, टिकाए रखना। किसी एक बिन्दु पर मन को लगाए रखना ही धारणा है। धारणा शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के ‘धृ’ धातु से हुई है जिसका अर्थ होता है- आधार, नींव।’’ धारणा अर्थात ध्यान की नींव, ध्यान की आधारशिला।
स्वामी विवेकानन्द- धारणा का अर्थ है मन को देह के भीतर या उसके बाहर किसी स्थान में धारण या स्थापन करना। मन को स्थान विशेष में धारण करने का अर्थ है मन को शरीर के अन्य स्थानों से हटाकर किसी एक विशेष अंश के अनुभव में बलपूर्वक लगाए रखना।
आचार्य श्रीराम शर्मा- धारणा का तात्पर्य उस प्रकार के विश्वासों की धारणा करने से है जिनके द्वारा मनोवांछित स्थिति को प्राप्त किया जा सकता है। भौतिक संपदायें कुपात्रों को भी मिल जाती हैं परंतु आत्मिक संपदाओं में एक भी ऐसी नहीं है जो अनाधिकारी को मिल सके। स्वामी निरंजनानंद सरस्वती- वह वस्तु या प्रत्यय जिस पर मन दृढ़तापूर्वक आधारित होता है, योग की परंपराओं में धारणा राजयोग का अंतरंग अभ्यास है जो मानसिक अनुशासन का मार्ग है।
स्वामी शिवानंद- विचारों के सामुदायीकरण को धारणा कहते हैं। मानसिक प्रवृत्तियों को केवल एक पदार्थ पर स्थिर और प्रतिष्ठापित करना धारणा है। जिस विधि में मन और मन की प्रवृत्तियाँ एकाग्र कर दी जाती हैं। उनमें चंचलता और विक्षेप नहीं रहता उसे (या उस विधि को) धारणा कहा जाता है।
धारणा के प्रकार
धारणा के प्रकारों का वर्णन विभिन्न ग्रंथों एवं विभिन्न विद्वानों ने अलग-अलग प्रकारों का वर्णन किया है- स्वामी निरंजनानंद सरस्वती के अनुसार – इन्होंने चार प्रकार की धारणा बतायी है जिनके कई उपभेद हैं जो क्रमश: इस प्रकार हैं –
- औपनिषदिक धारणा
- लय धारणा
- व्योम पंचक धारणा
- नादानुसंधान धारणा
1. औपनिषदिक धारणा
इसमें स्वामी जी ने 6 प्रकार की धारणा बताई है-
- बाह्याकाश
- अंतराकाश
- चिदाकाश
- आज्ञाचक्र धारणा
- हृदयाकाश धारणा
- दहराकाश धारणा
2. लय धारणा
यह दो प्रकार की है-
- मूलाधार एवं विशुद्धि दृष्टि
- लोक दृष्टि
3. व्योम पंचक धारणा
इसमें पांचों सूक्ष्म आकाशों की अनुभूति अवचेतन तथा उसके परे जगत की होती है। ये पांच हैं-
- गुणरहित आकाश
- परमाकाश
- महाकाश
- तत्वाकाश
- सूर्याकाश
3. नादानुसंधान धारणा
स्थूल से सूक्ष्म आकाशों की अनुभूति अवचेतन तथा उसके परे ध्वनि कंपन की खोज धारणा का संपूर्ण भाग है जिसे नादानुसंधान कहते हैं।
धारणा का परिणाम एवं महत्व
धारणा से एकाग्रता बढ़ती है और एकाग्रता से अनेक कार्य संपन्न होते हैं क्योंकि हमारी मानसिक ऊर्जा एक बिन्दु पर होती है। आध्यात्मिक एवं लौकिक दोनों प्रकार के कार्यों के लिए धारणा आवश्यक है। स्वामी निरंजनानंद सरस्वती के अनुसार कोई भी छोटा से छोटा कार्य हो, उसे एकाग्रता से करने की आवश्यकता होती है। बिना एकाग्रता के हम कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकते। जबकि एकाग्र मन वाला व्यक्ति कोई भी कार्य अधिक दक्षतापूर्वक कर सकता है।
वसिष्ठ संहिता (4/11-15) में धारणा की महत्ता के सन्दर्भ में बताया गया है कि –
- पृथ्वी तत्व की धारणा से पृथ्वी तत्व पर विजय प्राप्त कर सकते हैं।
- जल तत्व की धारणा से रोगों से छुटकारा मिलता है।
- अग्नि तत्व की धारणा करने वाला अग्नि से नहीं जलता।
- वायु तत्व की धारणा से वायु के समान आकाश विहारी होता है।
- आकाश तत्व में पांच पल की धारणा से जीव मुक्त होगा और एक वर्ष में ही मल-मूल की अल्पता होगी।