अनुक्रम
गुप्त साम्राज्य के प्रमुख शासक
समुद्रगुप्त के बाद चंद्रगुप्त द्वितीय (380-415 ई0) उसका उत्तराधिकारी बना। उसने पश्चिम भारत के शक राजाओं पर जीत हासिल करने के बाद विक्रमादित्य की उपाधि अपनाई। उसने महत्वपूर्ण वैवाहिक संबंध भी स्थापित किए। उसकी बेटी प्रभावती का विवाह वाटक के शासक रुद्रसेन द्वितीय के साथ हुआ था। उसका उत्तराधिकारी उसका बेटा कुमारगुप्त प्रथम (415 – 455 ई0) बना। उसके शासन काल में शांति और खुशहाली थी। उसका उत्तराधिकारी उसका बेटा स्कंदगुप्त (455 – 467 ई) बना। उसने कई बार हूण आक्रमण विफल किए। स्कंदगुप्त के उत्तराधिकारी (पुरुगुप्त, बुद्धगुप्त, नारायणगुप्त) उतने शक्तिशाली और योग्य नहीं थे। इससे धीरे-धीेरे गुप्त साम्राज्य का पतन हो गया।
1. श्री गुप्त
गुप्त साम्राज्य का संस्थापक श्री गुप्त था । श्री गुप्त के महाराज कहा जाता था । श्री गुप्त का उत्तराधिकारी उसका पुत्र घटोत्कच हुआ । उसे भी महाराज कहा जाता था । इस वंश में चन्द्रगुप्त प्रथम को महाराजाधिराज की उपाधि प्राप्त हुई । उसके राज्यकाल में गुप्त साम्राज्य का अत्यधिक विस्तार हुआ ।
2. घटोत्कच गुप्त
श्री गुप्त के बाद घटोत्कच का नाम मिलता है। विद्वानों के अनुसार घटोत्कच ने लगभग 300 ई0 से 319 ई0 तक शासन किया होगा। गुप्त अभिलेखों में घटोत्कच के विषय में ज्यादा जानकारी नहीं मिलती है।
3. चन्द्रगुप्त प्रथम
गुप्त वंश का पहला महान शासक था चन्द्रगुप्त प्रथम । उसने अपने छोटे से राज्य को एक महत्वपूर्ण राज्य बनाया । उसे ही प्रथम राजा माना जाता है । क्योकि उसने महाराजाधिराज की पदवी धारण की । उसने लिच्छवी वंश की राजकुमारी कुमारदेवी से विवाह किया । इसके प्रमाण है सोने के सिक्के और अभिलेख । इन सिक्कों पर चन्द्रगुप्त प्रथम के नाम व चित्र के साथ कुमारदेवी का नाम चित्र भी अंकित किया गया है । लिच्छबी वंश नेपाल का प्राचीन राजवंश था जिससे वैवाहिक संबंध स्थापित करने के कारण गुप्त राजाओं की प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई । चन्द्रगुप्त प्रथम एक अत्यन्त महत्वपूर्ण राजा था क्योंकि उसने 319-320 ई. में राज्यारोहाण की तिथि से गुप्त सम्वत् आरम्भ किया । बाद में अनेक अभिलेखों की तिथियां गुप्त सम्वत् में दी गई । गुप्त वंश का प्रथम महान शासन चन्द्रगुप्त प्रथम (320-335 ई.) था ।
4. समुद्रगुप्त
समुद्रगुप्त चन्द्रगुप्त प्रथम का उत्तराधिकारी था । समुद्रगुप्त एक योग्य, दूरदश्र्ाी वीर व सहिष्णु शासक था । जिसने गुप्त साम्राज्य के प्रशासन को सुदृढ़ कर अद्भुत पराक्रम से साम्राज्य की सीमा में वृद्धि की । समुद्रगुप्त के अभियानों का जीवन्त चित्रण उसके दरबारी कवि ‘हरिषेण’ ने किया है । समुद्रगुप्त संगीत प्रेमी था उसके सिक्कों में उसे वीणा बजाते हुये दिखाया गया है।
समुद्रगुप्त का विजय अभियान
भारतीय इतिहास में वह अपनी विजय के लिये विख्यात है । वह एक महत्वकांक्षी और साम्राज्यवादी शासक था । समुद्रगुप्त के विजय है –
- कोसल का महेन्द्र
- महाकान्तर का व्याध्रराज
- कोसल का मृणराज
- पिष्यपुर का महेन्द्रगिरि
- कोहूरकत स्वामीछत्र
- एरण्डपलि का दमन
- कांत्र्ची का विष्णु भोगप
- अवमुक्त का नीलराज
- वेंगी का हस्तिवर्मन
- पालक का उग्रसेन
- देवराष्ट्र का कुबेर
3. सीमान्त प्रदेशों पर विजय – उत्तर-दक्षिण के सफल युद्ध अभियान के बाद समुद्रगुप्त उत्तरपूर्वी राज्य की ओर बढ़ा । इस समय उसने पांच राज्यों के शासको को युद्ध में पराजित किया।
समुद्रगुप्त ने अश्वमेघ यज्ञ की प्रथा को फिर से चलाया । अनेक सिक्कों पर घोड़े का चित्र अंकित है । यद्यपि गुप्त शासक विष्णु के उपासक थे फिर भी उन्होंने अन्य धर्मो के प्रति सहिष्णुता दिखाई । एक चीनी स्रोत से ज्ञात होता है कि सिंहल द्वीप (श्रीलंका) के राजा मेघवर्मन ने अपने दूर द्वारा समुद्रगुप्त को उपहार भेजे और उसने बौध-गया में एक विहार बनाने की अनुमति मांगी। समुद्रगुप्त ने सहर्ष आज्ञा दी जिसके फलस्वरूप वहां महाबोधी बिहार विकसित हो गया । समुद्रगुप्त एक महान योद्धा व सेना नायक होने के साथ कला और साहित्य का पोषक था। इलाहाबाद स्तम्भ में उसकी सैनिक सफलताओं की जानकारी मिलती है । उसके सिक्के उसके काव्य प्रेम के साक्षी है।
5. चन्द्रगुप्त द्वितीय
गुप्त वंश का अन्य महान शासक था चन्द्रगुप्त द्वितीय । इसे चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य भी कहा जाता है । उसका शासन काल चौमुखी विकास और समृद्धि का काल कहा जाता है । चन्द्रगुप्त द्वितीय को समुद्रगुप्त से उत्तराधिकारी रूप में एक विशाल साम्राज्य मिला था । उसने वैवाहिक संबंधों और विजयों द्वारा साम्राज्य को और बढ़ाया । उसने अपनी पुत्री प्रभावती का विवाह मध्य भारत के वाकाटक राजा रूद्रसेन द्वितीय के साथ कर दिया । रूद्रसेन की मृत्यु के बाद उसका बेटा गद्दी पर बैठा और प्रभावती उसके संरक्षक के रूप में कार्य करने लगी । वह अपने पिता के परामर्श से राज्य कार्य चलाने लगी । इस प्रकार वाकाटक राज्य पर चन्द्रगुप्त द्वितीय का अप्रत्यक्ष नियंत्रण स्थापित हो गया । चन्द्रगुप्त की शकों पर विजय अन्य महत्वपूर्ण सफलता थी।
चन्द्रगुप्त द्वितय कला और साहित्य का पोषक था । कहा जाता है कि नवरत्न उसके दरबार की शोभा बढ़ाते थे । ये भी अपने-अपने क्षेत्र के प्रसिद्ध विद्वान थे । इन्हीं में से थे- कालीदास और अमरसिंह । इस काल में उज्जैन एक राजनैतिक, धार्मिक और व्यापारिक केन्द्र के रूप में विकसित हुआ । इस नगर को साम्राज्य की दूसरी राजधानी बनाया गया, पहली राजधानी पाटलीपुत्र थी ।
विद्वान अभी तक उस चन्द्र राजा के विषय में सही रूप से नही कह पाए है जिसकी सैनिक सफलताओं का उल्लेख मैहरोली में कुतुब मीनार के पास स्थित लौह-स्तम्भ पर किया गया है । यदि चन्द्रगुप्त द्वितीय ही है तो यह स्तम्भ अभिलेख प्रमाणित करता है कि गुप्त शासकों का आद्विापत्य बंगाल और उत्तर पश्चिमी भारत पर था । अन्य भ्रान्ति क्षेत्र है कि क्या चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ही उज्जैन का वह राजा है जिसने शकों को पराजित कर 58 ईसा पूर्व सम्वत् आरम्भ किया था । चन्द्रगुप्त द्वितीय के काल को महत्वपूर्ण घटना चीनी विद्वान फाह्यान (399-414 ई.) का भारत भ्रमण था । उसके विवरण से चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय के जन-जीवन व राजनैतिक, सामाजिक तथा धार्मिक स्थिति का अच्छा प्रकाश पड़ता है ।
चन्द्रगुप्त द्वितीय ने शकों को पराजित कर साम्राज्य की सीमा पश्चिमी समुद्र तट तक पहुंचा दी । उसने कला और साहित्य को प्रोत्साहन दिया । कालीदास और अमरसिंह दरबार के नवरत्नों में से थे । उज्जैन एक सांस्कृतिक केन्द्र के रूप में विकसित हुआ । इस काल में ही फाह्यान भारत भ्रमण के लिए गया था ।
चन्द्रगुप्त द्वितीय के उत्तराधिकारी
चन्द्रगुप्त द्वितीय की मृत्यु के उपरान्त उसका पुत्र कुमारगुप्त प्रथम 415 ई. में सिंहासन पर बैठा । वह उत्तराधिकार में प्राप्त विशाल साम्राज्य को अक्षुण्ण रखने में सफल रहा । उसका दिर्घ शासनकाल सुख, शान्ति और समृद्धि का प्रतीक था । 455 ई. में उसकी मृत्यु के पश्चात् स्कन्दगुप्त सिंहासन पर बैठा । स्कन्दगुप्त ने हूण आक्रमणकारियों को अपने साम्राज्य से बाहर खदेड़कर साम्राज्य की सीमाओं की रक्षा की । वह सदैव जनकल्याण में संलग्न रहता था । सन् 467 ई. मे उसकी मृत्यु के उपरान्त पुरूगुप्त, बुद्धगुप्त, परसिंहगुप्त, बालादित्य, कुमारगुप्त द्वितीय, विष्णुगुप्त आदि शासकों ने शासन किया ।
स्कन्दगुप्त की मृत्यु के बाद हूणों ने फिर गुप्त साम्राज्य पर आक्रमण शुरू कर दिया । अब गुप्त वंश के उत्तराधिकारी में कोई ऐसा न था जो हूणों का सामना कर सकता । तोरमाण के नेतृत्व में हूणों ने पूर्व मालवा और मध्य भारत के कुछ भाग पर अपना अधिकार कर लिया । तोरभाण के बेटे मिहिरकुल के नेतृत्व में भी हूणों के आक्रमण होते रहे । व्हेनसांग के विवरण और 12वीं शताब्दी की कश्मीर की साहित्यिक रचना कल्हन की राजतंरगिणी से पता चता है कि मिहिरकुल एक अत्याचारी राजा था । हूणों की सत्ता अधिक समय तक नहीं बनी रही । मालवा के राजा यशोवर्मन ने मिहिरकुल को पराजित किया । हूणों का राज्य कश्मीर, गंधार और सिंधु नदी के समीप के क्षेत्र तक सीमित हो गया । कालान्तर में हूणों का प्रभुत्व समाप्त हो गया और वे स्थानीय जनता में घुलमिल गए ।
हूण तुर्क-मंगोल के लोग थे । उन्होंने गुप्त साम्राज्य पर आक्रमण किया परन्तु स्कन्दगुप्त ने उन्हें पराजित किया । तोरमाण और मिहिरकुल के नेतृत्व में हुण शक्ति अपनी सर्वोत्तम सीमा पर पहुंची । समय के साथ, हूण लोग स्थानीय जनता में मिल गए।
गुप्त साम्राज्य का पतन के कारण
स्कन्द गुप्त के उत्तराधिकारी विशालगुप्त साम्राज्य को अक्षुण नहीं रख सके । शक्तिशाली हूणों के आक्रमण और विघटनकारी शक्तियों के आगे वे निर्बल सिद्ध हुयें इस प्रकार गुप्त साम्राज्य का पतन हो गया ।
गुप्त साम्राज्य का इतिहास जानने के स्रोत
गुप्त वंश की जानकारी के मुख्य स्त्रोत है : इलाहाबाद और सांची के अभिलेख, भूमि अनुदान संबंधी दस्तावेज, सिक्के और फाह्यान व कालीदास की साहित्यिक कृतियां ।