अनुक्रम
कार्यात्मक वित्त का अर्थ
कर सार्वजनिक ऋण सार्वजनिक व्यय आधुनिक अर्थशास्त्री के मतानुसार करारोपण का उद्देश्य आर्थिक असमानताओं को कम करना एवं आर्थिक क्रियाओं का नियमन करना है। लार्ड कीन्स (Lord Keynes) पहले अर्थशास्त्री थे जिन्होने इस बात पर जोर दिया कि राजस्व की नीतियों द्वारा आर्थिक क्रियाओं को प्रभावित किया जा सकता है। कीन्स के पश्चात् प्रो0 लर्नर (Prof. Lerner) ने इस विचार को एक आधुनिक रूप प्रदान किया। प्रो0 लर्नर का कहना है जिस ढंग से सार्वजनिक वित्तीय उपाय समाज में कार्य करते है उसे कार्यात्मक वित्त कहते हे। उनका मानना है कि राजकोशीय कार्यवाहियों की जाँच केवल उनके प्रभावों द्वारा ही की जानी चाहिये।
जिस विधि के द्वारा अर्थव्यवस्था में राजकोशीय कार्यवाहियाँ क्रियाशील रहती है उसी को प्रो0 लर्नर ने कार्यात्मक वित्त का नाम दिया। आज राज्य के सामने अनेक उद्देश्य है जैसे – बेरोजगारी दूर करना, सार्वजनिक कल्याण की योजनाएँ बनाना, उन पर व्यय करना, यातायात के साधनो का विकास करना, निजी उद्योग एवं सार्वजनिक उद्योगो में गति प्रदान करना, वितरण की असमानता को मिटाना आदि। इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिये लोक वित्त की सहायता ली जाती है। जिन साधनों का प्रयोग इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिये किया जाता है, वे कार्यात्मक वित्त के अन्तर्गत आते है। कार्यात्मक वित्त के अर्थ को इन बातो से स्पष्ट किया जा सकता है।
कार्यात्मक वित्त इस विचार पर आधारित है कि बजट स्थिरता (budget stability) के साथ पूर्ण रोजगार की स्थिति को प्राप्त करने तथा बनाये रखने का एक महत्वपूर्ण अस्त्र है। इस विचार के अनुसार लोक वित्त मुद्रा स्फीति (inflation)तथा मुद्रा अवस्फीति (deflation) के मूल कारण को दूर करता है जिससे आर्थिक स्थिरता (economic stability) कायम रहती है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रो0 लर्नर ने सुझाव दिया है कि कार्यात्मक वित्त के अन्तर्गत सरकार की क्रियाओं के लिये इन नियमों का पालन किया जाना चाहिए। 1. राज्य को सबसे पहली जिम्मेदारी यह है कि वह खर्च को इस प्रकार नियमित तथा नियन्त्रित करें कि सभी वस्तुओं व सेवाओं की पूर्ति प्रचलित मूल्यों पर ही पूरी तरह खप जाय। खर्च की मात्रा अधिक होने पर मुद्रास्फीति उत्पन्न हो जायेगी और यदि कम हुयी तो मुद्रा अवस्फीति और उसके परिणाम स्वरूप बेरोजगारी उत्पन्न होगी।
कार्यात्मक वित्त के उद्देश्य
1. रोजगार में वृद्धि :- देश के लिये बेरोजगारी एक अभिशाप होती है। रोजगार स्तर में वृद्धि करने के लिए कार्यात्मक वित्त की सहायता ली जाती है।
कार्यात्मक वित्त एवं कार्यशील वित्त में अंतर
- कार्यात्मक वित्त इस मान्यता पर आधारित है कि सम्पूर्ण आय व्यय नही की जाती जिससे फलस्वरूप प्रभावपूर्ण मांग कम होती है। अत: ऐसी स्थिति में उत्पादन मांग से अधिक होगा और इसलिये कार्यात्मक वित्त का मुख्य कार्य वित्तीय क्रियाओं द्वारा मांग में वृद्धि करना है। इसके विपरीत कार्यशील वित्त की मान्यता है कि कोई देश इसलिये निर्धन है क्योंकि उसकी आय कम है। अत: मुख्य समस्या बचत एवं विनियोग में वृद्धि करके राष्ट्रीय आय को बढ़ाना है।
- डॉ0 बलजीत सिंह के अनुसार कीन्स एवं लर्नर के विचार विकसित अर्थव्यवस्था से सम्बन्धित है। अल्पविकसित अर्थव्यवस्था में प्रभावपूर्ण मांग बढ़ाना समस्या नही है। जैसा कि विकसित अर्थव्यवस्था में होती हैं। इन अल्पविकसित अर्थव्यवस्थाओं में बचत एवं विनियोग को प्रोत्साहित करके उत्पादन बढ़ाना मुख्य लक्ष्य होता है।
- कार्यात्मक वित्त में व्यय से आरम्भ करते है जबकि कार्यशील वित्त में उत्पादन से आरम्भ किया जाता है। प्रो0 वॉन फिलिप का कहना है कि कार्यशील वित्त की धारणा कार्यात्मक वित्त की धारणा से निश्चित रूप से श्रेष्ठ है।
- बिना रूकावट के चलने वाली अर्थव्यवस्था में भी असाम्य उत्पन्न हो जाता है। इसको ठीक करने के लिये कार्यात्मक वित्त का सहारा लिया जाता है। इसके विपरीत जो अर्थव्यवस्था अविकसित है और अर्थव्यवस्था स्वयं नही चल पा रही है, ऐसी अर्थव्यवस्था में वित्तीय नीति द्वारा ऐसे उपाय किये जाते है जिससे बचत एवं विनियोग में निरन्तर प्रभाव बना रहे तथा उपलब्ध साधनो का इष्टतम प्रयोग किया जा सकें, यह कार्यशील वित्त में ही सम्भव है।
संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि किसी देश के विकास के लिये प्रथम चरण में कार्यशील वित्त तथा विकास के अंतिम चरण में कार्यात्मक वित्त का प्रयोग करके कोई भी देश अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है।