अनुक्रम
कवि बिहारी हिन्दी के रीति युग के सर्वाधिक लोकप्रिय कवि है। इनकी ख्याति का एकमात्र आधार इनकी कृति ‘‘बिहारी सतसई’’ है। सतसई का मुख्य छन्द दोहा है। बीच-बीच में कुछ सोरठे भी मिल जाते है। केवल एक छोटी सी रचना के आधार पर जो यश बिहारी को मिला वह साहित्य क्षेत्र के इस तथ्य की घोषणा करता है ‘‘किसी कवि का यश उनकी रचनाओं के परिणाम के हिसाब से नहीं होता, गुण के हिसाब से होता है।’’
बिहारी का जीवन परिचय
| नाम | बिहारी |
| जन्म | 1595 ई. (सवंत् 1652 वि.) |
| जन्म स्थान | वसुआ गोविन्दपुर |
| मृत्यु | 1673 ई. (संवत् 1720 वि.) |
| मृत्यु – स्थान | ग्वालियर के पास बसुआ गोविन्दपुर गाँव |
| पिता का नाम | केशवराय |
| माता का नाम | सम्बन्ध में कोई साक्ष्य – प्रमाण प्राप्त नही |
| गुरु | स्वामी बल्लभाचार्य |
| भाषा | हिन्दी, बुंदेलखंडी, उर्दू, फारसी |
| कृतियाँ | बिहारी सतसई |
बिहारी की रचनाएं
बिहारी के काव्य का हम दो भागों में बांट कर अध्ययन कर सकते हैं। एक उनका भाव पक्ष और दूसरा अभिव्यक्ति पक्ष, जिसे कला पक्ष भी कहा जाता है। काव्य में भाव व्यंजना की दृष्टि से बिहारी सतसई का वण्र्य-विषय श्रृंगार है। श्रृंगार रस के दोनों पक्षों-संयोग और वियोग का चित्रण ही कवि का लक्ष्य है। संयोग-वर्णन के अन्तर्गत नायक-नायिका की हर्षोल्लासपूर्ण भावनाओं एवं प्रेमपरक लीलाओं का वर्णन अधिक हुआ है। संयोगवस्था में नायक के साहचर्य में नायिका की विविध चेष्टाएँ ही हाव कहलाती हैं। इन अवसरों पर नायिका का हँसना, रीझना, खीझना, लजाना, मान करना, बहाने बनाना, हर्ष-पुलक और रोंमाच आदि का कवि ने आकर्षक वर्णन किया है, किन्तु बिहारी से संयोग वर्णन आंतरिक उल्लास की अभिव्यक्ति अपेक्षाकृत कम हो पायी है, बाह्म चेष्टाओं और क्रीड़ाओं में स्थूल मांसल चित्र ही अधिक उभरे है।
संयोग की अपेक्षा वयोग वर्णन के अंतर्गत मर्मस्पर्शी मार्मिक अनुभूतियों के चित्रण की सुविधा अधिक होती है। बिहारी का वियोग वर्णन सामान्यत: स्वाभाविक और अनुभूतिपूर्ण है। कहीं-कहीं वियोग-श्रृंगार के संचारी भावों की योजना इतनी मधुर और मर्मस्पर्शिनी है कि इस प्रकार के दोहे सहृदयों को भुलाए नहीं भूलते। स्मरण संचारी भाव का एक उदाहरण देखिए –
सघन कुंज छाया सुखद, सीतल मंद समीर।
मन हृैजात अजौ वहै, वा जमुना के तीर।।
कविता के भाव पक्ष की दृष्टि से बिहारी ने आलंबनगत सौन्दर्य के एक-से-एक चटकीले चित्र अंकित किए हैं। उनके नखशिख वर्णन में सरसता और सुकुमारता व्यंजक उक्तियों का सौन्दर्य दृष्टव्य है। सतसई के सौन्दर्य वर्णन का आलंबन मुख्यत: नायिका है-कहीं-कहीं नायक भी। रूप वर्णन अन्तर्गत बिहारी ने सबसे अधिक रचना नेत्रों पर की है। नेत्रों की विशालता, बेधकता, चंचलता आदि के कहीं अलंकृत और कहीं सीधे किन्तु आकर्षक वर्णन है। निम्नलिखित दोहे में नेत्रों के मौन-मुखर आलाप की भाषा को पढ़ने का प्रयास स्तुत्य है-
कहत नटत रीझत खिझत, मिलत खिलत लजियात।
भरे भुवन में करत है, नैनन ही सों बात।।
बिहारी का भावपक्ष
बिहारी मुख्यत: श्रृंगार रस के कवि है। उनकी कृति में प्रेम, सौंदर्य व भक्ति का सुन्दर समन्वय है। श्रृंगार रस के अतिरिक्त उन्होंने भक्ति परक, नीति परक एवं प्रकृति चित्रण आदि पर भी दोहे लिखे हैं।
बिहारी का कलापक्ष
बिहारी ने ब्रज भाषा को लालित्य एवं अभिव्यंजना शक्ति से सम्पन्न कर उसे सुन्दरतम स्वरूप प्रदान किया है। अलंकारों की योजना में भी बिहारी ने अपनी अपूर्व क्षमता का प्रदर्शन किया है। बिहारी की भाषा बोलचाल की होने पर भी साहित्यिक है। बिहारी की कलात्मकता के बारे में जितना कहा जाए उतना थोड़ा है। मुक्तक कविता में जो गुण होना चाहिए वह बिहारी के दोहों में जाकर चरम उत्कर्ष को पहुंचा है। छोटे से दोहे में बिहारी ने गागर में सागर भरने वाली उक्ति चरितार्थ की है।
बिहारी की समास-पद्धति
बिहारी को ‘गागर में सागर’ भरने वाला कहा जाता है। यह कथन उनकी समास-पद्धति के कारण ही प्रचलित हुआ है। यही कारण है कि बिहारी हिन्दी के सम्पूर्ण मुक्तककारों में सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं। इसके पीछे जो तर्क दिया जा सकता है वह आचार्य शुक्ल के शब्दों में इस प्रकार है – ‘‘जिस कवि में कल्पना की समाहार-शक्ति के साथ भाषा की समासशक्ति जितनी ही अधिक होगी, उतना ही वह मुक्तक की रचना में सफल माना जाता है।’’ इस दृष्टि से बिहारी की समास-पद्धति में एक ओर कल्पना की समाहार-शक्ति भी उत्कृष्ट रूप में विद्यमान है तथा दूसरी ओर इनकी भाषा में अनुपम समास-शक्ति भी दिखाई देती है।
सायक सम मायक नयन, रँगे त्रिविध रंग गात।
झखौं बिलखि दुरि जात जल, लखि जलजात लजात।।
खौरि-पनच भृकुटी-धनुषु, बधिक-समरु, तजि कानि।
हनतु तरुन-मृग, तिलक-सर, सुरक-भाल भरि तानि।।
ऐसी ही सफल समास योजना एक और दोहे में मिलती है –
मंगल बिंदु सुरंगु, मुख-ससि, केसरि आड़-गुरु।
इस नारी लहि संगु, रसमय किय लोचन जगत।।
डिगति पानि डिगुलात गिरि लखि सब ब्रज बेहाल।
कंपि किसोरी दरसि कै खरे लजाने लाल।
बिहारी की समास-पद्धति में तीसरी विशेषता यह है कि बिहारी ने विभिन्न कार्य व्यापारों का वर्णन भी बड़ी चतुराई के साथ एक छोटे से ही दोहे में कर दिया है –
बतरस-लालच लाल की मुरली धरी लुकाइ।
सौंह करैं, भौहनु हँसे, देन कहै, नटि जाइ।।
बसि सँकोच-दसबदन-बस, साँचु दिखावति बाल।
सिय लौ सोधाति तिय तनहिं, लगनि अगिनि की ज्वाल।।
प्रथम प्रश्नपत्र बिहारी की समास-पद्धति की एक विशेषता यह भी है कि उन्होनें असंगति, विरोधाभास आदि विरोधमूलक अलंकारों द्वारा भी सुन्दर प्रसंग-विधान किया है, जिससे दोहे में चमत्कार के साथ-साथ चारुता भी आ गई है।
दृग उरझत, टूटत कुटुम, चतुर चित प्रीति।
परति गाँठि दुरजन हियै, दई यह रीति।।
बिहारी का साहित्य में स्थान
रीतिकालीन कवि में बिहारी का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है। आपको बिहारी- सतस रचना ने हिन्दी साहित्य में विशिष्ट स्थान प्रदान किया है।
बिहारी का केन्द्रीय भाव
बिहारी जी ने श्रृंगार के दोनों पक्षों संयोग एवं वियोग का चित्रण करते समय नायक-नायिका की दैनिक गति-विधियों को चुना है। बिहारी के भक्ति परक दोहे भक्तिकालीन काव्य से अलग हटकर है। उन्होंने सख्यभाव से अत्यंत अंतरंगता के साथ कृष्ण का स्मरण किया है। कृष्ण उसके काव्य में श्रृंगार के नायक के रूप में उपस्थित है। उन्होने प्रकृति के कोमल और रूचिकर रूपों के साथ साथ उनके प्रचंड रूपों का भी वर्णन किया है।
