अनुक्रम
विकास और अभिवृद्धि से तात्पर्य गर्भावस्था से लेकर जीवन-पर्यन्त तक की स्थिति से है। गर्भावस्था से लेकर परिपक्वावस्था तक जिन परिवर्तनों से व्यक्ति गुजरता है सब विकास के अन्तर्गत आते हैं।
अभिवृद्धि एवं विकास का अर्थ
अभिवृद्धि – व्यक्ति के स्वाभाविक विकास को अभिवृद्धि कहते है। गर्भाशय में भ्रूण बनने के पश्चात जन्म होते समय तक उसमें जो प्रगतिशील परिवर्तन होते है वह अभिवृद्धि है। इसके अतिरिक्त जन्मोपरान्त से प्रौढावस्था तक व्यक्ति में स्वाभाविक रूप से होने वाले परिवर्तन, जो अधिगम एवं प्रशिक्षण आदि से प्रभावित नही है, और ऊध्र्ववर्ती है, भी अभिवृद्धि है। अभिवृद्धि की सीमा पूर्ण होने के पश्चात लम्बाई में विकास होने की सम्भावना नगण्य होगी।
- विकास परिवर्तन की ओर संकेत करता है।
- विकास में एक निश्चित क्रम होता है।
- विकास की एक निश्चित दिशा एवं लक्ष्य होता है।
हरलॉक के कथनानुसार विकास की प्रक्रिया जीवनपर्यन्त एक क्रम से चलती रहती है तथा प्रत्येक अवस्था का प्रभाव विकास की दूसरी अवस्था पर पडता है।
अभिवृद्धि एवं विकास की परिभाषा
अभिवृद्धि एवं विकास में अंतर
| अभिवृद्धि | विकास |
| 1. अभिवृद्धि विशेष आयु तक चलने वाली प्रक्रिया है 2. वृद्धि, विकास का एक चरण है। 3. अभिवृद्धि में परिवर्तनों को देखा व मापा जा सकता है। 4. अभिवृद्धि मुख्यत: शारीरिक परिवर्तनो को प्रकट करता है। 5. अभिवृद्धि केवल उन्ही घटकों की हाती है जो बालक में जन्म के समय विद्यमान होती है। |
1. विकास जन्म से मृत्यु तक चलने वाली प्रक्रिया है। 2. विकास में वृद्धि भी सम्मिलित है। 3. विकास में होने वाले परिवर्तनों को अनुभूत किया जा सकता है, मापा नही जा सकता। 4. विकास में सभी पक्षों (शारीरिक, मानसिक, सामजिक, संवेगात्मक, नैतिक आदि) के परिवर्तनों को संयुक्त रूप से लिया जाता है। 5. विकास के लिए यह आवश्यक नही है। |
- आकार परिवर्तन- जन्म के बाद ज्यो-ज्यों बालक की आय ु बढत़ ी जाती है, उसके शरीर में परिवर्तन होता जाता है। शरीर के ये परिवर्तन-वाºय एवं आन्तरिक दोनों अवयवों में होते हैं। शरीर की लम्बाई, चौड़ाई एवं भार में वृद्धि होती है। आन्तरिक अंग जैसे हृदय, मस्तिष्क, उदर, फेफड़ा आदि का आकार भी बढता है। शारीरिक परिवर्तनों के साथ-साथ मानसिक परिवर्तन होते हैं।
- अंग – प्रत्यगो के अनुपात मे परिवर्तन -बालक एवं वयस्क के अगं प्रत्यंगो में अन्तर होता है। बाल्यावस्था में हाथ पैर की अपेक्षा सिर बड़ा होता है, किन्तु किशोरावस्था में आने पर यह अनुपात वयस्कों के समान होता है। इसी प्रकार का अन्तर मानसिक विकास में भी देखने को मिलता है।
- कुछ चिहनों का लोप – विकास के साथ ही थाइमस ग्िरन्थ, दूध के दांत आदि का लोप हो जाता है। इसके साथ ही वह बाल-क्रियाओं एवं क्रीड़ाओं को भी त्याग देता है।
- नवीन चिहनों का उदय – आयु में वृद्धि के साथ-साथ बालक में अनेक नवीन शारीरिक एवं मानसिक चिहन प्रकट होते रहते है, उदाहरण के लिए, स्थायी दांतो का उगना। इसके साथ ही लैगिक चेतना का भी विकास होता है। किशोरावस्था में मुँह एवं गुप्तांगो पर बाल उगने प्रारम्भ हो जाते है।
विकास के सिद्धान्त
- विकास की दिशा का सिद्धान्त- इसके अनुसार शिशु के शरीर का विकास सिर से पैर की दिशा में होता है। मनोवैज्ञानिकों ने इस विकास को ‘मस्तकाधोमुखी’ या ‘शिर: पुच्छीय दिशा’ कहा है।
- निरन्तर विकास का सिद्धान्त- स्किनर के अनसु ार विकास प्िर क्रयाओं की निरन्तरता का सिद्धान्त केवल इस तथ्य पर बल देता है कि व्यक्ति में कोई आकस्मिक परिवर्तन नही होता है। विकास एक समान गति से नही होता है। विकास की गति कभी तेज कभी धीमी रहती है।
- विकास की गति में व्यक्तिगत भिन्नता का सिद्धान्त- वज्ञै ानिक अध् ययनों से यह निश्चित हो गया है कि विभिन्न व्यक्तियों के विकास की गति में विभिन्नता होती है। एक ही आयु में दो बालकों में शारीरिक, मानसिक, सामाजिक विकास में वैयक्तिक विभिन्नताएँ स्पष्ट दिखायी देती है।
- विकास क्रम का सिद्धान्त- विकास एक निश्चित एव व्यवस्थित क्रम में होता है। उदाहरणार्थ बालक का भाषा एवं गामक सम्बन्धी विकास एक क्रम में होता है।
- परस्पर सम्बन्ध का सिद्धान्त- बालक के शारीरिक, मानसिक, सवं गे ात्मक पक्षके विकास में परस्पर सम्बन्ध होता है। शारीरिक विकास बौद्धिक विकास को प्रभावित करता है। गैरीसन तथा अन्य के अनुसार “शरीर सम्बन्धी द्वष्टिकोण व्यक्ति के विभिन्न अंगो के विकास में सामज्यस्य और परस्पर सम्बन्ध पर बल देता है।”
विकास को प्रभावित करने वाले कारक
मानव विकास तथा व्यवहार का अध्ययन करने के लिए विशेष रूप से दो प्रमुख कारकों पर ध्यान दिया जाता है। प्रथम, जन्मजात या प्रकृतिदत्त प्रभाव तथा दूसरा, जन्म के उपरान्त प्रभावित करने वाले बाºय कारक। व्यक्तित्व में भिन्नता प्रकृतिजन्य कारकों तथा पर्यावरण का पोषण सम्बन्धी कारणों से होती है। जन्म से सम्बन्धित बातों को वंशानुक्रम एवं समाज से सम्बन्धित बातों को वातावरण कहते हैं। इसे प्रकृति तथा पोषण भी कहा जाता है। वुडवर्थ का कथन है कि एक पौधे का वंशक्रम उसके बीज में निहित है और उसके पोषण का दायित्व उसके वातावरण पर है।
पुरूष और स्त्री दोनों में 23-23 गुण सूत्र (Chromosomes) होते हैं। इस प्रकार संयुक्त कोष में गुण सूत्रों के 23 जोड़े होते हैं। प्रत्येक गुण-सूत्र में 40 से 100 तक पित्र्यैक होते है। प्रत्येक पित्र्यैक एक गुण या विशेषता को निर्धारित करता है। इसलिए इन पित्र्यैकों को वंशानुक्रम निर्धारक (heredity determinants) कहते है।
- मूल शक्तियों पर प्रभाव- बालक की मूल शक्तियों का प्रधान कारण उसका वंशानुक्रम है।
- शारीरिक लक्षणों पर प्रभाव- कॉल पियरसन के अनुसार माता-पिता की लम्बाई कम या अधिक होने पर उनके बच्चों की लम्बाई भी कम या अक्तिाक होती है।
- प्रजाति की श्रेष्ठता पर प्रभाव- बुद्धि की श्रेष्ठता का कारण प्रजाति है। यही कारण है कि अमेरिका की श्वेत प्रजाति नीग्रो प्रजाति से श्रेष्ठ है। यद्यपि कुछ मनोवैज्ञानिकों ने इसका खण्डन किया है।
4. वंशानुक्रम सम्बन्धी कुछ अध्ययन- पाश्चात्य विद्वानों ने वंशानुक्रम के प्रभाव एवं महत्व के सम्बन्ध में जो अध्ययन किए है वो है-
- शिक्षा मनोविज्ञान-एस.के. मंगल, पी.एच.आई. लर्निंग प्रा. लि., नई दिल्ली।
- शिक्षा मनोविज्ञान- एस.एच. सिन्हा और रचना शर्मा, अटलांटिक पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली।