अनुक्रम
विश्व को प्रभावित करने वाली कई घटनाएं, जैसे- सशस्त्र संघर्ष, व्यापार और वित्त, कानून, पर्यावरण मुद्दे, स्वास्थ्य अंतरराष्ट्रीय संबंधों को परिभाषित करते हैं। अंतरराष्ट्रीय संबंध के राजनीतिक आयाम कई राष्ट्र-राज्यों के बीच के राजनीतिक संबंधों और अन्तः क्रियाओं का अध्ययन ही अंतरराष्ट्रीय राजनीति कहलाता है।
अंतरराष्ट्रीय राजनीति के उपागम
- अंतरराष्ट्रीय राजनीति के आदर्शवादी उपागम
- अंतरराष्ट्रीय राजनीति के यथार्थवादी उपागम
- अंतरराष्ट्रीय राजनीति के व्यवस्था परक उपागम
- अंतरराष्ट्रीय राजनीति के निर्णय परक उपागम
- अंतरराष्ट्रीय राजनीति के खेल/क्रीड़ा उपागम
- अंतरराष्ट्रीय राजनीति के संचार उपागम
1. अंतरराष्ट्रीय राजनीति के आदर्शवादी उपागम
फ्रांसी क्रांति (1789) व अमेरिकी क्रान्ति (1776) को आदर्शवादी दृष्टिकोण की प्रेरणा माना गया है। अंतरराष्ट्रीय राजनीति में कौण्डरसैट के ग्रंथ की 1795 में विश्व समाज की रचना को आधार माना गया है। इसके प्रमुख समर्थक रहे हैं – कौण्डरसैट, वुडरो विल्सन, बटन फिल्ड, बनार्ड रसल आदि। इनके द्वारा एक आदर्श विश्व की रचना की गई है जो अहिंसा व नैतिक आधारों पर आधारित होगा व युद्धों को त्याग देगा। इस दृष्टिकोण की मूल मान्यताएँ हैं-
- मानव स्वभाव जन्म से ही बहुत अच्छा व सहयोगी प्रवृत्ति का रहा है।
- मानव द्वारा दूसरों की मदद करने एवं कल्याण की भावना ने ही विकास को सम्भव बनाया है।
- मानव स्वभाव में विकार व्यक्तियों के कारण नहीं बल्कि बुरी संस्थाओं के विकास के कारण आता है। मानव युद्ध की ओर भी इन संस्थाओं के कारण प्रेरित होता है।
- युद्ध अंतरराष्ट्रीय राजनीति की सबसे खराब विशेषता है।
- युद्धों को रोकना असम्भव नहीं है, अपितु संस्थागत सुधारों के माध्यम से ऐसा करना सम्भव है।
- युद्ध एक अंतरराष्ट्रीय समस्या है, अत: इसका हल भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ही खोजना होगा, स्थानीय स्तर पर नहीं।
- समाज को अपने आप को इस प्रकार से संगठित रखना चाहिए कि युद्धों को रोका जा सके।
इस दृष्टिकोण की विशेषताएं स्पष्ट रूप से प्रकट होती हैं-
- इस दृष्टिकोण के अंतर्गत नैतिक मूल्यों पर बल दिया गया है। अत: यह मानती है कि राज्यों के मध्य अच्छे संबंधों हेतु शक्ति की नहीं बल्कि नैतिक मूल्यों की आवश्यकता होती है। इसके अंतर्गत राज्यों के बीच भेदभाव समाप्त होंगे तथा परस्पर सहयोग का विकास होगा।
- इसके अंतर्गत वर्तमान शक्ति व प्रतिस्पर्धा पर आधारित विश्व संस्था को छोड़कर एक शान्ति व नैतिकता पर आधारित विश्व सरकार बनानी चाहिए। इसमें संघात्मकता व नैतिक मूल्यों के आधार पर विश्व सरकार का गठन कर शक्ति की राजनीति को समाप्त करना चाहिए।
- इसके अंतर्गत यह माना गया है कि युद्धों को कानून द्वारा रोका जा सकता है। कई अच्छे कानूनों द्वारा युद्ध करने सम्भावनाओं को कानूनी रूप से अवैध घोषित किया जा सकता है। इस दृष्टिकोण का मानना है कि अंतरराष्ट्रीय कानून के पालन द्वारा किसी भी प्रकार के युद्धों के संकट से बचा जा सकता है।
- इस दृष्टिकोण के द्वारा हथियारों की हौड़ को समाप्त करने की बात कही गई है। उनका मानना है कि हथियारों का होना भी युद्धों की प्रवृत्तियों को जन्म देने में सहायक होता है। इसके अंतर्गत भावी हथियारों के साथ-साथ वर्तमान हथियारों की व्यवस्था को घटाकर अंतत: समाप्त करने की बात कही गयी है।
- इस दृष्टिकोण में किसी भी प्रकार की निरंकुश प्रवृत्तियों पर रोक लगाने की बात पर बल दिया गया है। आदर्शवादियों का मानना है कि टकराव हमेशा निरंकुशवादियों एवं प्रजातांत्रिक पद्धति में विश्वास रखने वालों के बीच होता है।
- आदर्शवादियों का मानना है कि शान्तिपूर्ण विश्व की स्थापना हेतु राजनैतिक के साथ-साथ आर्थिक विश्व व्यवस्था को भी बदलना होगा। इस सन्दर्भ में राज्यों को आत्मनिर्णय के सिद्धान्त के साथ आर्थिक स्वतन्त्रता भी प्राप्त होती है।
- इस दृष्टिकोण के अंतर्गत एक आदर्श विश्व की कल्पना की गई है जिसमें हिंसा, शक्ति, संघर्ष आदि का कोई स्थान नहीं होगा।
- इस दृष्टिकोण के अंतर्गत राज्य किसी शक्ति अथवा युद्धों की देन नहीं है, बल्कि राज्य का क्रमिक विकास हुआ है। यह विकास धीरे-धीरे मानव कल्याण व सहयोग पर आधारित है।
आदर्शवादी सिद्धान्त की कुछ बिन्दुओं को लेकर आलोचना भी की गई है जो इस प्रकार से है-
- सर्वप्रथम यह सिद्धान्त कल्पना पर आधारित है जिसका राष्ट्रों की वास्तविक राजनीति से कोई लेन देन नहीं होता। इस काल्पनिक विश्व के आधार पर यह मान लेना कि सब कुछ सुचारू रूप से चल रहा है गलत होगा।
- इस उपागम में नैतिकता पर जरूरत से अधिक बल दिया गया है। यह सत्य है कि नैतिकता का समाज में अपना महत्व है, परन्तु राष्ट्रों के मध्य राष्ट्रीय हितों के संघर्ष में शक्ति व कानून दोनों का विशेष स्थान होता है। बिना कानूनी व्यवस्था के राष्ट्रों को एक विश्व में बांधना बड़ा कठिन है। तथा वास्तविकता की धरातल पर शक्ति के महत्व को भी नकारा नहीं जा सकता।
- अंतरराष्ट्रीय राजनीति कोरी आदर्शवादिता पर भी नहीं चलाई जा सकती। अंतरराष्ट्रीय राजनीति के सम्यक अध्ययन हेतु शक्ति, युद्ध आदि वास्तविक तत्वों को अपनाना अपरिहार्य है। इन मूल यथार्थ प्रेरणाओं की उपेक्षा के कारण ही आदर्शवादी दृष्टिकोण अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विश्लेषण में विशेष सहायक नहीं रहा है। राष्ट्र संघ की असफलता इसका प्रत्यक्ष परिणाम है।
- आदर्शवाद के अनुसार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संघात्मक व्यवस्था अथवा विश्व सरकार बनने की सम्भावनाएं बहुत कम प्रतीत होती है। इसका सबसे बड़ा कारण राष्ट्रों द्वारा अपने राष्ट्रीय हितों हेतु अडिग रवैय्या अपनाना रहा है। आज के इस युग में कोई भी राष्ट्र अपने राष्ट्रीय हितों से समझौता नहीं करना चाहता तथा न ही वह अपने राष्ट्रीय हितों के एवज में किसी अन्य राष्ट्र के उद्देश्यों की पूर्ति हेतु तैयार है।
यद्यपि इस उपागम में कई कमियाँ अवश्य है, परन्तु यह सत्य है कि नैतिकता व्यक्ति, राष्ट्र व सम्पूर्ण विश्व के कल्याण हेतु लाभकारी होती है। यद्यपि वर्तमान स्वार्थी हितों की पूर्ति के सन्दर्भ में इसे लागू करना अति कठिन है, परन्तु इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि यह अंतरराष्ट्रीय राजनीति हेतु अहितकर है।
2. अंतरराष्ट्रीय राजनीति के यथार्थवादी उपागम
अंतरराष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन हेतु यथार्थवाद का सिद्धान्त अति महत्वपूर्ण है। यह आदर्शवादी उपागम के बिल्कुल विपरीत वास्तविकता के धरातल पर रह कर कार्य करता है। 18वीं एवं 19वीं शताब्दी में यथार्थवाद का महत्व रहा है। उसके बाद द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद यह फिर अत्यधिक महत्वपूर्ण बन गया। इसके मुख्य समर्थकों में मारगेन्थाऊ, ई.एच.कार, राइनॉल्ड नेबर, जार्ज केनन, केनेथ डब्ल्यू, थामप्सन, हेनरी किंसीजर आदि है।
इस उपागम की मुख्य विशेषताएं हैं-
- यह दृष्टिकोण तर्क एवं अनुभव पर आधारित है। इसमें नैतिकता तथा गैर-तार्किक तथ्यों को स्वीकार नहीं किया है।
- यह सिद्धान्त शक्ति को अत्यधिक महत्व प्रदान करता है। तथा इसका मानना है कि राज्य हमेशा शक्ति हेतु संघर्षरत रहते हैं।
- इस उपागम का मानना है कि शक्ति के माध्यम से राज्य हमेशा अपने राष्ट्रीय हितों की पूर्ति में लीन रहते हैं। इसीलिए वे हमेशा अपने हितों का ही ध्यान रखते हैं, अन्य राष्ट्रों का नहीं।
- यथार्थवादी इस शक्ति संघर्ष से निपटने हेतु मुख्यत: शक्ति संतुलन के तरीके का प्रयोग करते हैं। शक्ति स्पर्धा को सुचारू रखने हेतु इस प्रकार के तरीके को अपनाना अनिवार्य हो जाता है।
- यह उपागम काल्पनिकता की बजाय हमेशा वास्तविकता में विश्वास करता है।
- इस दृष्टिकोण के अंतर्गत राष्ट्रीय हितों के बीच संघर्ष को टालने हेतु सभी राष्ट्रों के बीच के मध्य संतुलन स्थापित करने पर बल दिया जाता था।
- इसके अंतर्गत प्रत्येक राष्ट्र के लिए हित ही सर्वोपरि होते हैं तथा सभी राष्ट्र इन्हीं हितों की पूर्ति हेतु हमेशा संघर्षरत रहते हैं।
- इस उपागम के अंतर्गत अंतरराष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन को अत्याधिक वैज्ञानिक एवं तर्कशील बनाने के प्रयास किए गए हैं।
यथार्थवाद की इन विशेषताओं को अलग-अलग विद्वानों ने अपने-अपने ढंग से प्रस्तुत किया है। ना ही सभी विद्वान इन सभी बातों का उल्लेख करते है। तथा न ही ऐसी कोई सर्वसम्मति ही है। अपितु उपरोक्त विशेषताएं कुल मिलाकर विभिन्न यथार्थवादी समर्थकों के विचारों का सार है। परन्तु यथार्थवाद के एक सुस्पष्ट उपागम के रूप में स्थापित करने का कार्य मारगेन्थाऊ (पॉलिटिक्स अमंग नेशंज) ने किया है। उसके अनुसार यथार्थवादी दृष्टिकोण छ: प्रमुख सिद्धान्तों पर आधारित है-
3. अंतरराष्ट्रीय राजनीति के व्यवस्था परक उपागम
‘व्यवस्था’ शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम 1920 के दशक में लुडविग वॉन बर्टलेन्फी ने जीव विज्ञान में किया। उसका मुख्य अभिप्राय सभी विज्ञानों को जोड़ना रहा था। जीव विज्ञान से यह अवधारणा मानव विज्ञान, समाजशास्त्र व मनोविज्ञान में प्रयोग होने लगी। समाजशास्त्र से इसे राजनीति शास्त्र में अपनाया गया। इस विषय में राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन हेतु डेविड ईस्टन एवं गेबीरियाल आमण्ड ने प्रयोग किया तथा अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में मार्टन कापलान ने किया। अत: इस सिद्धान्त को प्रमुख रूप से राजनीति शास्त्र में व्यवहारवाद के फलस्वरूप विकसित हुआ माना जा सकता है।
इस उपागम से पूर्व यह जानना अति आवश्यक है कि यहां इस अवधारणा का क्या अर्थ लिया गया है। यद्यपि विभिन्न विद्वानों में इस पर सर्वसम्मति नहीं है, तथापि मुख्य रूप से व्यवस्था से अभिप्राय राष्ट्र राज्यों का वह समुच्चय है जो नियमित एवं अनवरत रूप से अन्त: क्रिया करते रहते हैं। इस प्रकार यह अवधारणा गतिशील होने के साथ साथ राष्ट्र राज्यों के व्यवहार के अध्ययन पर बल देते हैं। यह माना जाता है कि अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में कोई भी परिवर्तन राष्ट्र राज्यों में आये बदलाव के कारण ही होता है, चाहे उनके व्यवहार में परिवर्तन का कारण कोई भी हो। व्यवस्थापरक उपागम द्वारा इन परिवर्तनों को समझने के प्रयास किए जाते हैं। अत: इस दृष्टिकोण का मुख्य उद्देश्य अतीत एवं वर्तमान के साथ अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के भावी स्वरूप को उजागर करता है।
इस दृष्टिकोण के समर्थकों में मुख्यत: जेम्स एन. रोजनाऊ, कैनेथ वाल्टज, चार्लज मेक्ललैंड, कैनेथ बोल्डिंग, जार्ज लिस्का, आर्थर ली बन्र्स आदि के नाम सम्मिलित हैं। लेकिन इस अवधारणा को सुस्पष्ट उपागम दृष्टिकोण का स्वरूप मॉर्टन काप्लान ने प्रदान किया। अत: व्यवस्था उपागम को सामान्यतया काप्लान के नाम से ही जाना जाता है।
कॉप्लान के अनुसार अंतरराष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन हेतु अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था अति महत्वपूर्ण है। परन्तु वह अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को राजनीतिक व्यवस्था नहीं मानता क्योंकि अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में निर्णयकर्ताओं की भूमिका राष्ट्रीय व्यवस्था में उनके द्वारा निर्वाह की जाने वाली भूमिका के अधीनस्थ होती है। फलत: अंतरराष्ट्रीय मामलों के क्षेत्र में कार्यकर्ताओं का व्यवहार सदा राष्ट्रीय हित के मौलिक विचार से प्रेरित होता है।
4. अंतरराष्ट्रीय राजनीति के निर्णय परक उपागम
निर्णय परक उपागम राजनीति शास्त्र के अध्ययन हेतु व्यवहारवादी आंदोलन से प्रेरित है। यद्यपि विभिन्न लेखकों ने इस संदर्भ में लिखा है, परन्तु इसे उपागम के रूप में प्रस्तुत करने का श्रेय रिचर्ड सी स्नाइडर व उसके साथियों एच. डब्ल्यू बर्क या बर्टन सापिन को जाता है।
निर्णय परक दृष्टिकोण का मानना है कि (i) निर्णय निर्माण का अध्ययन उसी राज्य की पृष्ठभूमि के संदर्भ में होना चाहिए जिस परिवेश का वह भाग है। (ii) इसका अध्ययन उन परिकल्पनाओं के आधार पर किया जाना चाहिए जिस आधार पर निर्णय लेने वाला विश्व की पुनर्रचना करना चाहता है। इस दृष्टिकोण को विकसित करने के बारे में दो मुख्य उद्देश्य रहे हैं – (क) प्रत्येक देश के उन मार्मिक संरचनाओं का पहचानना आवश्यक है जहां परिवर्तन होते हैं, निर्णय लिए जाते हैं, कार्यवाहियां की जाती हैं आदि। (ख) निर्णय लेने वालों के व्यवहार की परिस्थितियों का सुव्यवस्थित अध्ययन किया जाना चाहिए।
इस उपागम का मुख्य विचार है कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति के मुख्य अभिकर्ता तो राष्“ट्र इही होते हैं, परन्तु अपनी इस भूमिका का प्रयोग कुछ व्यक्तियों के माध्यम से ही करता है। अत: राष्ट्रों के व्यवहार का सही आंकलन राष्ट्र के उन प्रतिनिधियों के व्यवहार द्वारा संभव हो सकता है। अत: निर्णयकर्त्तओं के व्यवहार का अध्ययन करना अति अनिवार्य है। लेकिन निर्णयकर्त्ताओं के इस व्यवहार का अध्ययन उसकी सभी परिस्थितियों के संदर्भ में किया जाना चाहिए। इस प्रकार उस सारी प्रक्रिया का अध्ययन किया जाना चाहिए जिसके माध्यम से वह निर्णय लेने वाला गुजरता है।
- सबसे महत्वपूर्ण प्रभाव निर्णय लेने वाले पर समाज के आन्तरिक परिवेश का होता है। इस आन्तरिक परिवेश में जनमत के साथ साथ उसका व्यक्तित्व, भूमिकाएं, सामाजिक मूल्य, नागरिकों का चरित्र, उनकी मांगे, सामाजिक संगठन की मुख्य विशेषताएं जैसे समूह संरचना, सामाजिक प्रक्रियाएं, विभेदीकरण, ढांचागत स्थिति आदि उसे अत्यधिक प्रभावित करते हैं। इसके अतिरिक्त समाज की भौतिक व प्रौद्योगिक स्थिति भी महत्वपूर्ण होती है।
- आन्तरिक के साथ-साथ बाह्य परिवेश भी उतना ही महत्वपूर्ण प्रभाव डालता है। इसमें मुख्य रूप से अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था, अंतरराष्ट्रीय संकट, संघर्ष व सहयेाग, महाशक्तियों की भूमिका, पड़ोसियों का रुख आदि महत्वपूर्ण होते हैं। अत: दुनिया के अन्य राष्ट्रों की क्रिया-प्रतिक्रियाओं का भी व्यापक असर निर्णायकों पर पड़ता है।
- आन्तरिक व बाह्य वातावरण के साथ-साथ निर्णय प्रक्रिया की भूमिका भी उतनी ही महत्वपूर्ण होती है। इसके मुख्य रूप से प्रशासनिक ढांचे, सरकारी व गैर सरकारी अभिकर्ताओं की परस्पर क्रिया, कार्यपालिका व विधानमण्डल की अन्त:क्रिया आदि का प्रभाव भी महत्त्व रखता है।
इस प्रकार स्नाइडर ने राज्य को निर्णय लेने वालों के रूप में माना है। अत: इन निर्णय लेने वालों के व्यवहार के अध्ययन से अनुभव सिद्ध शोध सम्भव है। इस प्रकार व्यवहारवाद के माध्यम से स्नाइडर ने अंतरराष्ट्रीय राजनीति का वैज्ञानिक अध्ययन करने का प्रयास किया है। सैद्धान्तिक रूप में तो स्नाइडर के समर्थक उसकी मुख्य अवधारणा को मानते हैं, परन्तु व्यावहारिक रूप में समर्थकों की कार्य शैली में थोड़ा अलगाव है। परन्तु वे सभी भी निर्णय परक उपागम की मूल मान्यताओं से सहमत हैं। निर्णय परक उपागम की विद्वानों ने विभिन्न कारणों से आलोचनाएं भी की हैं जो हैं –
5. अंतरराष्ट्रीय राजनीति के खेल/क्रीड़ा उपागम
यह उपागम अंतरराष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन हेतु आंशिक उपागमों में से एक है। मूलत: इसका विकास गणितज्ञों एवं अर्थशास्त्रियों ने किया। सबसे प्रथम इसे पहचान व इसको विकसित किया मार्टिन शुबिक (गेम्ज थ्योरी एण्ड रिलेटिड अप्रोचिज टू सोशल बिहेवियर (1954), ऑस्कर मॉर्गन्स्टर्न (थ्योरी ऑफ गेम एण्ड ईकोनोमिक बिहेवियर (1964), मोरटन डी. डेविस (गेम थ्योरी : ए नॉन टेक्नीकल इंट्रोडक्सन (1970) आदि। लेकिन इसे अंतरराष्ट्रीय राजनीति में एक प्रतिमान के रूप में लागू किया मार्टन कॉप्लान, काल डॉयस, आर्थर ली. वन्र्स, रिचर्ड कवांट आदि ने।
खेल दृष्टिकोण अंतरराष्ट्रीय राजनीति में एक विश्लेषण प्रणाली तथा विभिन्न विकल्पों में से एक विकल्प चुनने का तरीका है। यह विचारों का ऐसा समूह है जो तर्क संगत निर्णयों एवं प्रतियोगिता व संघर्ष की परिस्थितियों में, जब प्रत्येक प्रतिभागी अधिकतम लाभ के लिए प्रयत्नशील होता है, श्रेष्ठतम रणनीति के चयन से सम्बद्ध है। यह उपागम कोशिश करता है कि किन परिस्थितियों में कौन सा निर्णय या प्रक्रिया या विकल्प तर्कसंगत है। अत: इस उपागम द्वारा अंतरराष्ट्रीय राजनीति में निर्णयकर्त्ताओं को अपने विकल्पों की उपादेयता जांचने का सर्वोत्तम अवसर प्रदान करता है। अत: यह अंतरराष्ट्रीय राजनीति में तर्कसंगत व्यवहार का प्रतिमान है जिससे प्रत्येक राज्य अपनी विदेशी नीति संचालन के क्रम में ऐसा निर्णय ले जिससे उसके हितों में वृद्धि के अधिकतम अवसर प्राप्त हो सके।
यह उपागम रणनीति का खेल है, संयोग का नहीं। इसमें खेल के अपने नियम, खिलाड़ी, क्रियाएं, रणनीति, क्षतिपूर्ति आदि होते हैं। खेल प्रतिस्पर्द्धापूर्ण एवं सहकारितापूर्ण दोनों ही प्रकार का हो सकता है। इस खेल के खिलाड़ी निर्णय लेने वाले होते हैं जो दो या दो से अधिक भी हो सकते हैं। खेल के निश्चित नियम होते हैं जिन पर खिलाड़ियों का नियंत्रण नहीं होता। प्रत्येक खिलाड़ी का प्रयास तो अपने हितों के संदर्भ में अधिकतम लाभ कमाने का होता है।
सामान्यतया इस उपागम के समर्थक अंतरराष्ट्रीय राजनीति की संघर्षपूर्ण परिस्थितियों के संदर्भ में मुख्य तौर पर निम्न प्रश्नों के उत्तर खोजने के प्रयास करते हैं – खिलाड़ी के पास कौन-कौन सी रणनीतियां हैं?, अपने विरोधी के पास कौन-कौन सी रणनीतियां हैं?, विरोधी व अपनी रणनीतियों की तुलना करता है, विभिन्न परिणामों के मूल्यों का आकलन करते हैं, तथा अपने विरोधी द्वारा इन मूल्यों का किस प्रकार आकलन किया जा रहा है आदि। खेल कई प्रकार के होते हैं जिनमें से मुख्यतया इन तीन प्रकार के खेलों को अधिक महत्त्व दिया जाता है –
- शून्य योग खेल – इसमें मुख्यत: दो खिलाड़ी होते हैं जिसमें किसी भी एक पक्ष का लाभ किसी दूसरे की कीमत पर होता है। अत: इस खेल में संघर्ष निर्णायक होता है। इसीलिए अंतरराष्ट्रीय राजनीति के अंतर्गत द्विपक्षीय संबंधों के अध्ययन हेतु अति महत्त्वपूर्ण है।
- स्थिर योग खेल- इस खेल में किसी भी पक्ष का लाभ दूसरे की कीमत पर नहीं होता। इसमें खिलाड़ियों के मध्य पारस्परिक सहयोग अधिक होता है तथा इसी सहयोग के साथ समान लाभ प्राप्त करने की कोशिश की जाती है।
- गैर-शून्य-योग खेल- यह खेल उपरोक्त दोनों के बीच की स्थिति का द्योतक है। इसमें खेल के विभिन्न पक्षों के बीच प्रतिस्पर्धा एवं सहयोग दोनों ही उपलब्ध होते हैं। इसमें दोनों ही पक्ष लाभान्वित भी हो सकते हैं तथा दोनों की हानियां भी हो सकती है।
विभिन्न आलोचकों ने इस सिद्धान्त की भी इन आधारों पर आलोचनाएं की हैं-
6. अंतरराष्ट्रीय राजनीति के संचार उपागम
संचार उपागम के बारे में सर्वप्रथम गणितज्ञ नार्बर्ट वीनर ने अपने संचार, साइबरनेटिक्स, फील्ड बैक आदि अवधारणाओं के माध्यम से प्रस्तुत किया। परन्तु इसे अंतरराष्ट्रीय राजनीति में कार्ल डब्ल्यू ने अपनी पुस्तक – नर्वज ऑफ गवर्नमेंट – के माध्यम से प्रस्तुत किया। इस उपागम के माध्यम से अंतरराष्ट्रीय राजनीति के लक्ष्यों को निर्णय प्रक्रिया व समायोजन के माध्यम से जानना है। यह सरकारी तंत्र की कार्यवाही को सूचना प्रवाह की तरह मानती है। अत: विभिन्न ढांचों के माध्यम से किस प्रकार सूचना प्रवाह की प्रक्रिया होती है इसे जानना जरूरी है। इस उपागम की निर्णय के परिणामों की बजाय निर्णयों की प्रक्रिया में अधिक रूचि है। अत: यह साइबरनेटिक्स के अनुरूप ही है क्योंकि उसमें भी संचालन व समायोजन पर अधिक बल दिया जाता है न कि निर्णयों के परिणामों पर।
संचार उपागम का मुख्य बल परिवर्तन पर है। इसका मानना है कि यह परिवर्तन शक्ति की बजाय संचार पर आधारित होगा तो अधिक प्रभावी व कारगर रहेगा। डॉयस का मानना है कि प्रत्येक प्रणाली में सूचना को ग्रहण करने वाले कारक होते हैं। कई सूचना ग्रहण करने वाले ढांचे मात्र सूचना ग्रहण ही नहीं करते अपितु उसे चुनते हैं, छांटते हैं, आंकड़ाबद्ध करते है। आदि। निर्णय लेने वाली प्रक्रिया में उन सूचनाओं को याद रखने, मूल्य की जटिलता आदि के माध्यम से वास्तविक निर्णय लेने तक संभाल कर रखा जाता है।
सूचना ग्रहण करने के अतिरिक्त, डॉयस के अनुसार, राजनैतिक तंत्र में चैनलों के भार व उनकी क्षमताओं का वर्णन भी होता है। राजनैतिक प्रणाली में सुचनाओं का भार प्रणाली के पास उपलब्ध समय की दृष्टि से तय होता है। उसी प्रकार भार की क्षमता चैनलों के उपलब्धिता पर आधारित है। इन्हीं आधारों पर यदि वो राजनैतिक व्यवस्था आने वाली सभी सूचनाओं को सुनिश्चित रूप से संभाल पाती है तो वह प्रणाली उत्तरदायी है। अगर वह ऐसा नहीं कर पाती है तो प्रणाली अनुत्तरदायी है। कार्ल डॉयस का यह भी मानना है कि सूचनाओं की मापतोल व गिनती सम्भव है। भेजी गई सूचना किस मात्रा में सही या विकृत रूप में प्राप्त की जाती है उसका अनुमान लगाने के लिए सम्प्रेषण सारणियों की उपलब्धता, क्षमता या मर्यादा का परिमाणात्मक रूप से अध्ययन किया जा सकता है। डॉयस ने समूहों, समाजों, राष्ट्र व अंतरराष्ट्रीय समाजों, सभी संगठनों आदि की संश्लिष्टता मापने हेतु सूचना प्रवाहों के अध्ययन की पद्धति का प्रयोग किया है।
इस उपागम में ‘नकारात्मक फीडबैक’ एक अत्यंत महत्वपूर्ण पहलू है। इसका अभिप्राय उन प्रक्रियाओं से है जिसके माध्यम से निर्णयों व उनसे क्रियान्वयन से उत्पन्न होने वाले परिणामों की सूचना व्यवस्था में पुन: इस प्रकार स्थापित कर सकें कि वह व्यवस्था के व्यवहार को स्वत: ऐसी दिशा प्रदान करें कि लक्ष्य की प्राप्ति सम्भव हो सके। अत: इस दृष्टिकोण में नकारात्मक फीडबैक लक्ष्यों की प्राप्ति में अति सहायक सिद्ध होती है। एक कुशल व्यवस्था वह है जो सूचना को अधिकृत रूप से सही समय पर ले सके तथा उसके आधार पर अपनी स्थिति व व्यवहार में समय पर यथोचित बदलाव कर सके। इस प्रकार डॉयस राजनीतिक प्रणाली को जीवित प्राणी की शारीरिक व्यवस्था के समान मानता है।
डॉयस ने अपने इस संचार उपागम में ढांचागत सुधार हेतु चार मात्रात्मक अवधारणाओं का समावेश किया है। ये चार अवधारणाएँ हैं – (i) भार (लोड), (ii) देरी (लेग), (iii) लाभ (गेन), तथा (iv) अग्रता (लीड)। भार से उसका अभिप्राय है व्यवस्था द्वारा अपने उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु संचार की गति व उसकी मात्रा को लक्ष्य के साथ समन्वित करना। देरी का अर्थ है सूचना के सही व उचित समय पर पहुंचने पर भी व्यवस्था द्वारा निर्णयों का उसके फलस्वरूप उत्पन्न परिणामों में देरी करना। लाभ से उसका अभिप्राय है कि प्राप्त होने वाले सूचना के प्रतिउत्तर में शीघ्रता व प्रभावी होना। अग्रता से अभिप्राय सम्भावित परिणामों का पूर्व आकलन करके अपने निर्धारित लक्ष्यों को समय पर प्राप्त करना। अत: डॉयस का मानना है कि इन चार कारणों से संचार उपागम का मात्रात्मक ढंग से अध्ययन सम्भव है।
अत: संचार दृष्टिकोण में डॉयस ने अध्ययन की मूल ईकाई सूचना प्रवाह को माना है। क्योंकि इसी के माध्यम से संचालन की प्रक्रिया को गति के साथ सम्बद्ध किया जा सकता है। अंतरराष्ट्रीय राजनीति में भी निर्णयों हेतु सूचना प्रवाह अति आवश्यक बन पड़ा है। जिन राष्ट्रों के पास सुचारू, सुस्पष्ट एवं वस्तुनिष्ठ सूचना तंत्रों का जाल बिछा है वे अपने विदेशी नीति के निर्धारण एवं लक्ष्यों को प्राप्त करने में ज्यादा सफल होते हैं। इसी के परिणामस्वरूप वे अंतरराष्ट्रीय राजनीति में भी अधिक प्रभावी भूमिका निभाते हैं। संचार उपागम की भी कई आधारों को लेकर आलोचनाएँ की गई हैं जो इस प्रकार से हैं-