अनुक्रम
अंतरराष्ट्रीय राजनीति को समझने से पहले अंतरराष्ट्रीय संबंध को समझना आवश्यक है। समकालीन समय में अंतरराष्ट्रीय संबंध से तात्पर्य संप्रभुता राष्ट्र-राज्य के बीच संबंधों तथा अन्य गैर-राज्य अधिकर्ताओं जैसे अंतरराष्ट्रीय संगठनों, गैर-सरकारी संगठनों एवं बहु-राष्ट्रीय निगमों की नीतियों, गतिविधियों व भूमिकाओं सहित विभिन्न अंतरराष्ट्रीय घटनाओं और मुद्दों के अध्ययन से है। इस प्रकार अंतरराष्ट्रीय संबंध अपनी प्राचीन परिभाषा जिसमें राज्यों के बीच के आधिकारिक राजनीतिक संबंधों से अधिक विस्तृत है। वर्तमान में विश्व को प्रभावित करने वाली कई घटनाएं, जैसे- सशस्त्र संघर्ष, व्यापार और वित्त, कानून, पर्यावरणीय मुद्दे, स्वास्थ्य चुनौतियां और बहुत कुछ अंतरराष्ट्रीय संबंधों को परिभाषित करते हैं। जबकि अंतरराष्ट्रीय संबंध के राजनीतिक आयाम अर्थात विभिन्न राष्ट्र-राज्यों के बीच के राजनीतिक संबंधों और अन्तः क्रियाओं का अध्ययन ही अंतरराष्ट्रीय राजनीति कहलाता है।
अंतरराष्ट्रीय राजनीति का अर्थ
साधारण शब्दों में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का अर्थ है राज्यों के मध्य राजनीति करना। यदि राजनीति के अर्थ का अध्ययन करें तो तीन तत्व सामने आते हैं –
- समूहों का अस्तित्व;
- समूहों के बीच असहमति; तथा
- समूहों द्वारा अपने हितों की पूर्ति।
इस आशय को यदि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आकलन करें तो ये तीन तत्व मुख्य रूप से –
- राज्यों का अस्तित्व;
- राज्यों के बीच संघर्ष; तथा
- अपने राष्ट्रहितों की पूर्ति हेतु शक्ति का प्रयोग।
अंतर्राष्ट्रीय राजनीति उन क्रियाओं का अध्ययन करना है जिसके अंतर्गत राज्य अपने राष्ट्र हितों की पूर्ति हेतु शक्ति के आधार पर संघर्षरत रहते हैं। इस संदर्भ में राष्ट्रीय हित अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के प्रमुख लक्ष्य होते हैं; संघर्ष इसका दिशा निर्देश तय करती है; तथा शक्ति इस उद्देश्य प्राप्ति का प्रमुख साधन माना जाता है।
अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की परिभाषा
1. परम्परागत परिभाषाएँ
इन परिभाषाओं का दायरा अति सीमित है, क्योंकि इसके अंतर्गत मूलत: ‘राज्यों’ को ही अन्तरराष्ट्रीय राजनीति के कारक के रूप में माना गया है। यह अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के स्वरूप तक ही सीमित है। मुख्य रूप से हेंस जे. मारगेन्थाऊ, हेराल्ड स्प्राऊट, बोन डॉयक, थाम्पसन आदि इसके मुख्य समर्थक हैं जो इनकी निम्न परिभाषाओं से स्पष्ट हो जाता है-
1. हेंस जे. मारगेन्थाऊ – “अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति शक्ति के लिए संघर्ष है।”
2. हेराल्ड स्प्राऊट – “स्वतन्त्र राज्यों के अपने-अपने उद्देश्यों एवं हितों के आपसी विरोध-प्रतिरोध या संघर्ष से उत्पन्न उनकी प्रतिक्रिया एवं संबंधों का अध्ययन अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति कहलाता है।”
3. वोन डॉयक- “अंतर्राष्ट्रीय राजनीति प्रभुसत्ता सम्पन्न राज्यों की सरकारों के मध्य शक्ति संघर्ष है।”
4. थाम्पसन- “राष्ट्रों के मध्य प्रारम्भ प्रतिस्पर्धा के साथ-साथ उनके आपसी संबंधों को सुधारने या खराब करने वाली परिस्थितियों एवं समस्याओं का अध्ययन अंतर्राष्ट्रीय राजनीति कहलाता है।”
2. समसामयिक परिभाषाएँ
नवीन परिभाषाओं में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के व्यापक स्वरूप अंतर्राष्ट्रीय संबंधों की चर्चा की गई है। इसमें राज्य के अतिरिक्त अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के नवीन कारकों जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठन, देशांतर समूह, गैर सरकारी संगठन, अंतर्राष्ट्रीय संस्थायें, कुछ व्यक्तियों आदि को भी सम्मिलित किया गया है। इसके अतिरिक्त इसमें संघर्ष के साथ-साथ सहयोग तथा राजनीति के साथ-साथ प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में इसे प्रभावित करने वाले अर्थात, सांस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक, विज्ञान एवं तकनीकि आदि पहलुओं का भी उल्लेख किया गया है। विभिन्न लेखकों की परिभाषाओं से यह आशय अति स्पष्ट रूप में उजागर हो जाता है-
1. नार्मन डी. पामर व होवार्ड सी परकिंस – “अंतर्राष्ट्रीय संबंध में राष्ट्र राज्यों, अंतर्राष्ट्रीय संगठनों तथा समूहों के परस्पर संबंधों के अतिरिक्त और बहुत कुछ सम्मिलित है। यह विभिन्न स्तर पर पाये जाने वाले अन्य संबंधों का भी समावेश करता है जो राष्ट्र राज्य के ऊपरी व निचले स्तर पर मिलते हैं। परन्तु यह राष्ट्र राज्य को ही अंतर्राष्ट्रीय समुदाय का केन्द्र मानता है।”
2. स्टेनले होफमैन- “अंतर्राष्ट्रीय संबंध उन तत्वों एवं गतिविधियों से सम्बन्धित है, जो उन मौलिक ईकाईयों जिनमें विश्व बंटा हुआ है, की बाह्य नीतियों एवं शक्ति को प्रभावित करता है।”
3. क्विंसी राइट- “अंतर्राष्ट्रीय संबंध केवल राज्यों के संबंधों को ही नियमित नहीं करता अपितु इसमें विभिन्न प्रकार के समूहों जैसे राष्ट्र, राज्य, लोग, गठबंधन, क्षेत्र, परिसंघ, अंतर्राष्ट्रीय संगठन, औद्योगिक संगठन, धार्मिक संगठन आदि के अध्ययनों को भी शामिल करना होगा।”
इस प्रकार अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का स्वरूप प्रारंभ से वर्तमान तक बहुत व्यापक हो जाता है। इसमें आज राष्ट्र राज्यों के साथ विभिन्न विश्व इकाइयों एवं संगठनों के अध्ययन का समावेश हो चुका है। परन्तु इन सभी परिवर्तनों के बाद भी इन अध्ययनों का केन्द्र बिन्दु आज भी राष्ट्र राज्य ही है।
अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का स्वरूप
उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के स्वरूप के बारे में निष्कर्ष सामने आते हैं।
- इन परिभाषाओं से एक बात बिल्कुल स्पष्ट रूप से प्रकट होती है कि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति अभी भी बदलाव के दौर से गुजर रही है। इसके बदलाव की प्रक्रिया अभी स्थाई रूप से स्थापित नहीं हुई है। अपितु यह अपने विषय क्षेत्र के बारे में आज भी नवीन प्रयोगों एवं विषयों के समावेश से जुड़ी हुई हैं
- एक अन्य बात यह उभर कर आ रही है कि अंतर्राष्ट्रीय स्थिति बहुत जटिल है। इसके अध्ययन हेतु बहुआयामी प्रयासों की आवश्यकता होती है।
- यह निश्चित है कि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन का केन्द्र बिन्दु राज्य ही है, परन्तु यह भी काफी हद तक सही है कि इसके अंतर्गत राज्यों के अतिरिक्त विभिन्न संगठनों, समुदायों, संस्थाओं आदि का अध्ययन करना अति अनिवार्य हो गया है।
- अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन हेतु विभिन्न स्तरों एवं आयामों का अध्ययन आवश्यक है। अत: इस विषय का अध्ययन अन्तत: अनुशासकीय आधार पर अधिक कुशलतापूर्वक हो सकता है।
- इसके अध्ययन हेतु नवीन दृष्टिकोणों की उत्पत्ति हो रही है। जैसे-जैसे अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में बदलाव आता है उसके अध्ययन एवं सामान्यीकरण हेतु नये उपागमों की आवश्यकता होती है। उदाहरणस्वरूप, द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जहां यथार्थवाद, व्यवस्थावादी, क्रीड़ा, सौदेबाजी, तथा निर्णयपरक उपागमों की उत्त्पत्ति हुई, उसी प्रकार अब उत्तर शीतयुद्ध युग में उत्तर आधुनिकरण, विश्व व्यवस्था, क्रिटिकल सिद्धान्त आदि की उत्पत्ति हुई। भावी विश्व में भी वैश्वीकरण व इससे जुड़े मुद्दों पर नये उपागमों के कार्यरत होने की व्यापक सम्भावनाएँ हैं।
अत: अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का स्वरूप परिवर्तनशील है। जब-जब अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के परिवेश, कारकों व घटनाक्रम में परिवर्तन आयेगा, इसके अध्ययन करने के तरीकों व दृष्टिकोणों में भी परिवर्तन अनिवार्य है। इसके अतिरिक्त, यह परिवर्तन स्थाई न होकर निरंतर है। इसके साथ-साथ विभिन्न कारकों, स्तरों, आयामों आदि के कारण यह बहुत जटिल है अत: इसके सुचारू अध्ययन हेतु बहुत स्पष्ट, तर्कसंगत, व्यापक दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है।
जैसा उपरोक्त परिभाषाओं एवं स्वरूप से ज्ञात है कि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का विषय क्षेत्र बढ़ता ही जा रहा है। आज इसका विषय क्षेत्र काफी व्यापक हो गया है जिसके अंतर्गत इन बातों का अध्ययन किया जाता है-
अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के विकास के चरण
अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के विकास का इतिहास ज्यादा प्राचीन नहीं है, बल्कि यह विषय बीसवीं शताब्दी की उपज है। स्पष्ट रूप से देखा जाए तो वेल्ज विश्वविद्यालय में अंतर्राष्ट्रीय वुडरो विल्सन पीठ की 1919 में स्थापना से ही इसका इतिहास प्रारम्भ होता है। इस पीठ पर प्रथम आसीन होने वाले प्रसिद्ध इतिहासकार प्रोफेसर ऐल्फर्ड जिमर्न थे तथा बाद में अन्य प्रमुख विद्धान जिन्होंने इस पीठ को सुशोभित किया उनमें से प्रमुख थे – सी.के. वेबस्टर, ई.एच.कार, पी.ए. रेनाल्ड, लारेंस डब्लू, माटिन, टीई. ईवानज आदि। इसी समय अन्य विश्वविद्यालयों एवं संस्थानों में भी इसी प्रकार की व्यवस्थाएं देखने को मिली।
केनेथ थाम्पसन ने सन् 1962 के रिव्यू ऑफ पॉलिटिक्स में प्रकाशित अपने लेख में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के इतिहास को चार भागों में बांटा है, जिसके आधार पर इस विषय का सुस्पष्ट एवं सुनिश्चित अध्ययन सम्भव हो सकता है। विकास के इन चार चरणों में शीतयुद्धोत्तर युग के पांचवें चरण को भी सम्मिलित किया जा सकता है। इनका विस्तृत वर्णन निम्न प्रकार से है –
- कूटनीतिक इतिहास का प्रभुत्व, प्रारम्भ से 1919 तक
- सामयिक घटनाओं / समस्याओं का अध्ययन, 1919-1939
- राजनैतिक सुधारवाद का युग, 1939-1945.
- सैद्धान्तिकरण के प्रति आग्रह, 1945-1991
- वैश्वीकरण व गैर सैद्धान्तिकरण का युग, 1991-2003.
- कूटनीतिक इतिहास का प्रभुत्व, प्रारम्भ से 1919 तक
प्रथम विश्व युद्ध से पूर्व इतिहास, कानून, राजनीति शास्त्र, दर्शन शास्त्र आदि के विद्वान ही अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के अलग-अलग पहलुओं पर विचार करते थे। मुख्य रूप से इतिहासकार ही इसका अध्ययन राजनयिक इतिहास तथा अन्य देशों के साथ संबंधों के इतिहास के रूप में करते थे। इसके अंतर्गत कूटनीतिज्ञों व विदेश मंत्रियों द्वारा किए गए कार्यों का लेखा जोखा होता था। अत: इसे कूटनीतिक इतिहास की संज्ञा भी दी जाती है। ई.एच.कार के अनुसार प्रथम विश्व युद्ध से पूर्व युद्ध का संबंध केवल सैनिकों तक समझा जाता था तथा इसके समकक्ष अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का संबंध राजनयिकों तक। इसके अतिरिक्त, प्रजातांत्रिक देशों में भी परम्परागत रूप से विदेश नीति को दलगत राजनीति से अलग रखा जाता था तथा चुने हुए अंग भी अपने आपको विदेशी मंत्रालय पर अंकुश रखने में असमर्थ महसूस करते थे।
इस प्रकार इस युग में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन की सबसे बड़ी कमी सामान्य हितों का विकास रहा। इस काल में केवल राजनयिक इतिहास का वर्णनात्मक अध्ययन मात्र ही हुआ। परिणामस्वरूप, इससे न तो वर्तमान तथा न ही भावी अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को समझने में कोई मदद मिली। इस युग की मात्र उपलब्धि 1919 में वेल्स विश्वविद्यालय में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन के पीठ की स्थापना रही।
शायद इसीलिए इस युग में भी दो मूलभूत कमियाँ स्पष्ट रूप से उजागर रहीं। प्रथम, पहले चरण की ही भांति इस काल में भी अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में सार्वभौमिक सिद्धान्त का विकास नहीं हो सका। द्वितीय, आज भी अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का अध्ययन अधिक सुस्पष्ट एवं तर्कसंगत नहीं बन पाया। इस प्रकार इस चरण में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन में बल देने की स्थिति में बदलाव के अतिरिक्त बहुत ज्यादा परिवर्तन देखने को नहीं मिला तथा न ही इस विषय के स्पष्ट रूप से स्वतन्त्र अनुशासन बनने की पुष्टि हुई।
- शान्ति स्थापित करना सभी राष्ट्रों का सांझा हित है, अत: राज्यों को हथियारों का प्रयोग त्याग देना चाहिए।
- अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी कानून व व्यवस्था के माध्यम से झगड़ों को निपटाया जा सकता है।
- राष्ट्र की तरह, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी, कानून के माध्यम से अनुचित शक्ति प्रयोग को प्रतिबंधित किया जा सकता है।
- राज्यों की सीमा परिवर्तन का कार्य भी कानून या बातचीत द्वारा हल किया जा सकता है।
इन्हीं आदर्शिक एवं नैतिक मूल्यों पर बल देते हुए अंतर्राष्ट्रीय संगठन (राष्ट्र संघ) की परिकल्पना की गई। इसकी स्थापना के उपरान्त यह माना गया कि अब अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में राज्यों के मध्य शान्ति बनाने का संघर्ष समाप्त हो गया। नई व्यवस्था के अंतर्गत शक्ति संतुलन का कोई स्थान नहीं होगा। अब राज्य अपने विवादों का निपटारा संघ के माध्यम से करेंगे। अत: इस युग में न केवल युद्ध व शान्ति की समस्याओं का विवेचन किया, अपितु इसके दूरगामी सुधारों के बारे में भी सोचा गया। अत: अध्ययनकर्ताओं के मुख्य बिन्दु भी कानूनी समस्याओं व संगठनों के विकास के साथ-साथ इनके माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के स्वरूप को बदलने वाला रहा। अन्तत: इस काल में भावात्मक, कल्पनाशील व नैतिक सुधारवाद पर अधिक बल दिया गया है।
परन्तु विश्वयुद्धों के बीच इन उपागमों की सार्थकता पर हमेशा प्रश्न चिन्ह लगा रहा। राष्ट्र संघ की प्रथम एक दशक (1919-1929) की गतिविधियों से जहां आशा की किरण दिखाई दी, वहीं दूसरे दशक (1929-1939) की यर्थाथवादी स्थिति ने इस धारणा को बिल्कुल समाप्त कर दिया। बड़ी शक्तियों के मध्य असहयोग व गुटबन्दियों ने शान्ति की स्थापना की बजाय शक्ति संघर्ष व्यवस्था को जन्म दिया। जापान ने मंचूरिया पर हमले करके जहां शांति को भंग कर दिया वहीं इटली, जर्मनी व रूस ने भी विवादास्पद स्थितियों में न केवल राष्ट्र संघ की सदस्यता ही छोड़ी, बल्कि द्वितीय विश्वयुद्ध के प्रारम्भ होने की प्रक्रिया को और तीव्र बना दिया। इस प्रकार शान्ति, नैतिकता, व कानून से विश्व व्यवस्था नहीं चल सकी, तो ई.एच.कार, शुंभा, क्विंसी राईट आदि लेखकों के कारण यथार्थवादी दृष्टिकोण को वैकल्पिक उपागम के रूप में बल मिला।
पूर्व चरणों की आदर्शिक, संस्थागत, नैतिक, कानूनी एवं सुधारवादी धाराओं की असफलताओं ने नये उपागमों के विकास की ओर अग्रसर किया। यह नया उपगम था-यथार्थवाद। वैसे तो ई.एच.कार, श्वार्जनबर्जर, क्विंसी राईट, शुभां आदि लेखकों ने इस दृष्टिकोण को विकसित किया, परन्तु हेंस जे. मारगेन्थाऊ ने इसे एक सामान्य सिद्धान्त के रूप में प्रस्तुत किया। इस सिद्धान्त के अनुसार राज्य हमेशा अपने हितों की पूर्ति हेतु संघर्षरत रहते हैं। अत: अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को समझने हेतु इस शक्ति संघर्ष के विभिन्न आयामों को समझना अति आवश्यक है।
यथार्थवादी दृष्टिकोण के साथ अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के सुनिश्चित व सुस्पष्ट विकास के रूप में अंतर्राष्ट्रीय संगठन (संयुक्त राष्ट्र संघ) की भी उत्पत्ति हुई। अब इस संगठन का स्वरूप मात्र आदर्शवादी व सुधारवादी न होकर, महत्वपूर्ण राजनैतिक संगठन के रूप में उभर कर आया। इसके अंतर्गत मानवजाति को युद्ध की विभीषिका से बचाने के साथ-साथ राज्यों के मध्य संघर्ष के कौन-कौन से कारण हैं? विश्वशांति हेतु खतरे के कौन-कौन से कारक हैं? शांति की स्थापना कैसे हो सकती है? शस्त्रें की होड़ को कैसे रोका जा सकता है? आदि कई प्रकार के प्रश्नों का समाधान ढूंढने के प्रयास भी किए गए।
उपरोक्त दो प्रवृत्तियों के साथ-साथ व्यवहारवाद की उत्पत्ति भी इस युग की महत्वपूर्ण उपलब्धि रही। व्यवहारवादी दृष्टिकोण के माध्यम से “व्यवस्था सिद्धान्त” की उत्पत्ति कर अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को समझने का प्रयास किया गया। इस उपागम के अंतर्गत राज्यों के अध्ययन हेतु तीन प्रमुख कारकों का अध्ययन किया जाना जरूरी माना गया। ये कारक थे –
- विभिन्न देशों की विदेश नीतियों को प्रभावित करने वाले कारकों का अध्ययन;
- विदेश नीति संचालन की पद्धतियों का अध्ययन;
- अंतर्राष्ट्रीय विवादों और समस्याओं के समाधान के उपायों का अध्ययन।
उपरोक्त प्रवृतियों का मुख्य बल अंतर्राष्ट्रीय राजनीति मैं सैद्धान्तिकरण को बढ़ावा देना रहा है। अत: इस युग में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के सार्वभौमिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन करना अति महत्वपूर्ण कार्य रहा है। सिद्धान्त निर्माण की इस प्रक्रिया के परिणाम स्वरूप अनेक आंशिक सिद्धान्तों जैसे – यथार्थवाद, संतुलन का सिद्धान्त, संचार सिद्धान्त, क्रीड़ा सिद्धान्त, सौदेबाजी का सिद्धान्त, शान्ति अनुसंधान दृष्टिकोण, व्यवस्था सिद्धान्त, विश्व व्यवस्था प्रतिमान आदि का निर्माण हुआ। इन सिद्धान्तों के प्रतिपादन के बावजूद इस युग में किसी एक सार्वभौमिक व सामान्य सिद्धान्त का अभाव अभी भी बना रहा। 1990 के दशक में जयन्त बंधोपाध्याय ने अपनी पुस्तक – जनरल थ्योरी ऑफ इंटरनेशनल रिलेशंज (1993) – में मार्टिन कापलान के व्यवस्थापरक सिद्धान्त की कमियों को दूर कर एक सार्वभौमिक सिद्धान्त की स्थापना की कोशिश की है, परन्तु वह भी अभी वाद-प्रतिवाद के दौर में ही हैं। अत: सैद्धान्तिकरण के मुख्य दौर के बावजूद शीतयुद्ध कालीन युग अपनी वैचारिक संकीर्णता व अलगाव के कारण किसी एक सामान्य सिद्धान्त के प्रतिपादन से वंचित रहा।
सैद्धान्तिक स्तर पर भी 1945 से 1991 तक के सार्वभौमिक सिद्धान्त की स्थापना के प्रयास को धक्का लगा। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की इस संदर्भ में अब प्राथमिकताएं बदल गई। उत्तर-आधुनिकतावाद में (पोस्ट मोडर्निज्म) अब सार्वभौमिक सिद्धान्तों की सार्थकता पर प्रश्न चिह्न लग रहे हैं। ऐतिहासिक सन्दर्भ एवं प्राचीन परिवेश के प्रभाव को भी नकारा जा रहा है। अब स्वतन्त्र मुद्दे अधिक महत्वपूर्ण हो गए हैं। वृहत् सिद्धान्त गौण हो गए हैं। नए सन्दर्भ में आंशिक शोध अधिक महत्वपूर्ण बन गई है।
अंतरराष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन क्षेत्र
अंतरराष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन क्षेत्र से तात्पर्य है की अंतरराष्ट्रीय अध्ययन का विस्तार कहां तक है अथवा इसकी सीमा कहां तक हैं। वर्तमान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति का अध्ययन क्षेत्र अत्यंत व्यापक हो गया है। प्रारम्भ में जहां अंतरराष्ट्रीय राजनीति का अध्ययन-क्षेत्र राष्ट्र-राज्यों के मध्य संबंधों, उनकी राजनीति, कूटनीति, इतिहास, अंतरराष्ट्रीय कानून और संगठनों के अध्ययन तक सीमित था, वहीं द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अध्ययन क्षेत्र का तेजी से विस्तार हुआ। एशिया और अफ्रीकी राष्ट्रों के मुक्ति संघर्षों, विभिन्न राज्यों के बीच बढ़ते संपर्कों की जटिलता, तकनीकी विकास, क्षेत्रीय राजनीतिक, आर्थिक व सैन्य सहयोग गठबन्धनां े के परिणामस्वरूप अंतरराष्ट्रीय अध्ययन के नये सिद्धांत और अवधारणाए सामने आयी।
अंतरराष्ट्रीय राजनीति के सभी पहलुओं अंतरराष्ट्रीय, राजनीतिक-अर्थव्यवस्था, अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा, पर्यावरण के साथ राज्यों के बीच बढ़ती निर्भरता के कारण अंतर्राज्यीय गतिविधियां े और जटिलताओं का भी अध्ययन करता है। अंतरराष्ट्रीय राजनीति एक गतिशील अनुशासन है। वैश्वीकरण के दौर में राज्यों की संप्रभुता को पारंपरिक खतरांे की तुलना में गैर-पारंपरिक खतरों ने अधिक आघात पहुंचाया है, जिसकी वजह से अंतरराष्ट्रीय राजनीति में कट्टरतावाद, आतंकवाद, जातीय-संघर्ष, मानवाधिकार जैसे मुद्दांे और चुनौतियों का अध्ययन किया जा रहा है।
अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विद्वानों द्वारा भी अंतरराष्ट्रीय राजनीति के क्षेत्र और विषय-वस्तु की भिन्न- भिन्न व्याख्या की गयी है। पामर और पर्किन्स के अनुसार अंतरराष्ट्रीय राजनीति के क्षेत्र के अंतर्गत राष्ट्रीय शक्ति, राज्य- प्रणाली, युद्ध, कूटनीति, शक्ति संतुलन, राष्ट्रीय हित, सामूि हक सुरक्षा, साम्राज्यवाद, प्रचार, अंतरराष्ट्रीय कानूनांे, संगठनों, परमाणु शास्त्रों और परिवर्तित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था जैसे विषय को शामिल करते हैं।
इस प्रकार आज अंतरराष्ट्रीय राजनीति अपने अध्ययन क्षेत्र में निम्लिखित बिंदुआंे को सम्मिलित करता हैः
- अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विभिन्न सिद्धांतों, दृष्टिकोण और विधियां का अध्ययन जैसे- आदर्शवाद, यथार्थवाद, माक्र्सवाद, बहुलवाद इत्यादि। इसके अतिरिक्त कई अन्य सिद्धांत उदाहरण के लिए, खेल सिद्धातं , निर्णय-निर्माण, प्रकार्यात्मक, व्यवस्था सिद्धांत का भी अध्ययन किया जाता है।
- अंतरराष्ट्रीय राजनीति सभी वैश्विक संस्थाओं और संगठनों जैसे- राष्ट्र-संघ, संयुक्त राष्ट्र-संघ, अंतरराष्ट्रीय न्यायालय आदि के संगठन, कार्य और भूमिका का अध्ययन करता है।
- अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक विचारधाराओं, राष्ट्रवाद, साम्राज्यवाद, उपनिवश्े ावाद व नव-उपनिवेशवाद का अध्ययन।
- अंतरराष्ट्रीय कानून, विभिन्न अंतरराष्ट्रीय संधिया ं और समझौते अंतरराष्ट्रीय संबंधों की विषय-वस्तु रहें हैं।
- अंतरराष्ट्रीय राजनीति केवल राज्य ही नहीं बल्कि गैर-राज्य अधिकर्ताओं जैसे- अंतरराष्ट्रीय गैर-सरकारी संगठनों, बहुराष्ट्रीय निगमों और अंतःसरकारी संगठनोंको अध्ययन करता जो विश्व राजनीति को प्रभावित कर रहे हैं।
- अंतरराष्ट्रीय राजनीति अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था, अंतरराष्ट्रीय व्यापार, अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संगठनों जैसे विश्व व्यापार संगठन, विश्व बैंक आदि की गतिविधियांे और भूमिकाओं े के साथ ही विकसित व विकासशील देशांे के आर्थिक स्थिति और संबंधां,े वैश्वीकरण तथा उदारीकरण की अवधारणाआंे का अध्ययन भी करता है।
- इस क्षेत्र के अंतर्गत क्षेत्रीय संगठनों जैसे आसियान, सार्क, अफ्रीकी संघ, और ब्रिक्स आदि का अध्ययन भी सम्मिलित है।
- अंतरराष्ट्रीय राजनीति विभिन्न वैश्विक घटनाओं और मुद्दा जैसे- युद्ध, शांति, शस्त्रीकरण और निशस्त्रीकरण, आतंकवाद, बह-ु धुव्र ीय विश्व व्यवस्था, भ-ू राजनीती, मानव सुरक्षा और पर्यावरण सुरक्षा इत्यादि का अध्ययन करता है।
इस प्रकार वर्तमान समय में अंतरराष्ट्रीय राजनीति का अध्ययन क्षेत्र बहुत विशाल है और ऊपर वर्णित बिंदु अंतिम नहीं है जो इसके क्षेत्र को निर्धारित करें। यह विषय विश्व की बदलती घटनाओं और अंतरराष्ट्रीय राजनीति की नयी जुड़ती प्रवृतियों के साथ अपने दायरे को और अधिक विस्तृत कर रहा है।
